पू. (सौ.) अश्विनीताई, आपल्या वात्सल्यभावामुळे आनंद द्विगुणीत होतो ।
हे भगवंता, पू. अश्विनीताईच्या रूपात तू आमच्या जवळ असतोस ॥
ताईंचे घडवणे असे कधी तारक, तर कधी मारक ।
कृतज्ञतेला शब्द नसे, निःशब्द कृतज्ञता ॥
आपका सत्संग ध्येय की ओर खींच लेता है ।
आप तो चैतन्य स्वरूप गंगा हो ।
आपकी चैतन्य स्वरूप मधुर वाणी से हम तो गुरुचरणों में स्थित हो रहे हैं ॥
आपकी प्रेमभरी दृष्टि से हम तो चैतन्य में डूब रहे हैं ।
आपकी ओर से केवल असीम चैतन्य तथा शक्ति आ रही है ॥ १ ॥
आपकी ओर नयन जाते हैं, तो श्रीकृष्ण के दर्शन होते हैं ।
आपके सत्संग से आवरण घटता है ॥
ध्येय की ओर खींच लेता है ।
इसलिए कृतज्ञता के लिए शब्द अल्प हैं ॥ २ ॥
आपकी दूरदृष्टि, आपकी सरलता आपका अंतर्चक्षु से सब समझना ।
वो ही भाती, वो ही प्रेम, ये सब देखकर ।
‘गुरुदेवजी’ हैं, ऐसी अनुभूति आती है ॥
हे गुरुदेव, नहीं शब्द मेरे पास, आपका देना अमाप है ।
इस जीव की ओर से अखंड कृतज्ञता है ॥ ३ ॥
हम हमें जानते ही नहीं है, गुरुदेव ही हमें जानते हैं ।
इस श्रद्धा से हम उनके चरणों में शरण हैं ॥
ऐसा अनुभव करते हैं ।
भाव में ही रखो, हम अखंड कृतज्ञ हैं ॥ ४ ॥
तब भी पू. ताई, आज ऐसा लगता है ।
आप हमें कितना जानती हो ।
इसका विचार भी नहीं कर सकते ॥ ५ ॥
आप हम सभी साधकों को स्वभावदोष और अहंभाव से ।
मुक्त करवाकर श्रीचरणों में स्थित कर रही हो ।
इसलिए अखंड कृतज्ञता ॥ ६ ॥
‘स्थूल देहा असे स्थळकाळाची मर्यादा ।
कैसे असू सर्वदा सर्वा ठायी ॥
सनातन धर्म माझे नित्य रूप ।
त्या रूपे सर्वत्र आहे सदा ॥’
सदैव गुरुदेवजी के इन शब्दों का स्मरण होता है ॥ ७ ॥
आपके मधुर शब्दों से स्मरण बढता है तथा प्रयास होते हैं ।
आपकी दृष्टि हम पर कितनी है ।
इस विचार से कृतज्ञता भाव बढता है ॥
हे गुरुदेवजी, हम तो अज्ञानी हैं ।
हमें तो कुछ नहीं आता ।
परंतु आपकी कृपा से ये सब चमत्कार हो रहे हैं ॥ ८ ॥
– कु. मनीषा शिंदे, सनातन आश्रम, देवद, पनवेल. (नोव्हेंबर २०१९) कु. मनीषा शिंदे
येथे प्रसिद्ध करण्यात आलेल्या अनुभूती या ‘भाव तेथे देव’ या उक्तीनुसार साधकांच्या वैयक्तिक अनुभूती आहेत. त्या सरसकट सर्वांनाच येतील असे नाही. – संपादक |