साधकांची प्रज्ञा जागृत करणारे परात्पर गुरु डॉ. आठवले !
धन्य हैं गुरुदेव आप ।
जो चाहे वो
शिष्य से करवा लेते हैं ।। १ ।।
अभी तक बहुत सारी
कविताएं आपने ।
मुझसे मातृभाषा मराठी में
लिखवा लीं ।। २ ।।
मुझमें व्यापकता बढाने के लिए ।
हिन्दी में कविता करने की चाह ।
अब मुझमें उत्पन्न की है ।। ३ ।।
आपका संकल्प पूरा हो इसलिए ।
चंद शब्द कागज पर उतरने पर ।
वे मन-ही-मन आनंदित हो ।
शरणागति से आपके पांव चूमने दौड पडे ।। ४ ।।
इसका फल सामने आ रहा है ।
वो कविता स्वरूप आपके चरणों में ।
शरणागतभाव से साकार हुआ है ।। ५ ।।
यह मन आपका है और यह कविता भी ।
लीला गिरिधर की अनुभव करने के लिए ।
मन-ही-मन स्वाद लेने को जी चाह रहा है ।। ६ ।।
क्या कहूं गुरुदेव, मन इतना ही ।
कहने को ललच रहा है ।
‘धन्य’ हैं गुरुदेव आप ।
जो चाहे वो शिष्य से करवा लेते हैं ।
जो चाहे वो शिष्य से करवा लेते हैं ।। ७ ।।
संकलक : श्री. संजय घाटगे, जयसिंगपूर, जि. कोल्हापूर. (५.९.२०२०)