हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के विषय में मार्गदर्शक सनातन की ग्रंथमाला : हिन्दू धर्म एवं धर्मग्रंथों का माहात्म्य

हिन्दू धर्म की निर्मिति किसने और कब की ? हिन्दू धर्म का महत्त्व क्या है तथा ‘हिन्दू’ किसे कहें ? इन प्रश्नोंके उत्तर पढिये “धर्मका मूलभूत विवेचन” इस ग्रंथ में

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी द्वारा वर्ष २००२ से अध्यात्मप्रसार करने की अपेक्षा हिन्दू राष्ट्र के लिए कार्य करने के लिए प्रधानता देने का कारण !

साधकों को व्यष्टि साधना करते समय ‘मेरी आध्यात्मिक उन्नति हो रही है या नहीं ?’, इस विचार में संलिप्त होने की अपेक्षा यह विचार करना चाहिए कि ‘क्या मैं समष्टि साधना के लिए अधिकाधिक प्रयास कर रहा हूं न ?’

‘साधना में टिके रहना’ ही साधना की परीक्षा है !

‘साधना में टिके रहना ही साधका की परीक्षा है’, इसे गंभीरतापूर्वक समझकर साधकों को ऐसे विचारों पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है । इस संदर्भ में निम्नांकित कुछ दृष्टिकोण उपयोगाी सिद्ध होंगे ।

सिखाने की अपेक्षा सीखने की वृत्ति रखने से अधिक लाभ होता है !

‘ईश्वर सर्वज्ञानी हैं । हमें उनके साथ एकरूप होना है । इसलिए हमारा निरंतर सीखने की स्थिति में रहना आवश्यक है । किसी भी क्षेत्र में ज्ञान अर्जित करना, यह कभी भी समाप्त न होनेवाली प्रक्रिया है । अध्यात्म तो अनंत का शास्त्र है ।

भारतवर्ष

‘किसी भी राष्ट्र के व्यक्ति के जन्म से ही उसके ‘धर्म अथवा पंथ’ की पहचान अपनेआप ही चिपक जाती है । व्यक्तियों को मिलाकर राष्ट्र बनने से स्वाभाविक ही राष्ट्र के बहुसंख्यक धर्मियों के कारण वह राष्ट्र भी ‘उन धर्मियों के राष्ट्र’ के रूप में ही जाना जाता है ।

सूक्ष्म से मिलनेवाले ज्ञान में अथवा नाडीपट्टिका में परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का उल्लेख ‘संत’ न करते हुए ‘विष्णु का अंशावतार’ होने के विविध कारण !

अन्य संप्रदायों में उनके द्वारा बताई साधना करते समय उस साधक को कुछ न कुछ बंधन पालने पडते हैं; परंतु सनातन में साधना करते समय साधना के अतिरिक्त अन्य कोई भी बंधन नहीं बताए जाते ।

परात्पर गुरु डॉ. जयंत आठवलेजी के अव्यक्त संकल्प के कारण गत एक वर्ष में विविध भाषाओं में सनातन के ३० नए ग्रंथ-लघुग्रंथ प्रकाशित और ३५७ ग्रंथ-लघुग्रंथों का पुनर्मुद्रण !

‘हिन्दू राष्ट्र’ धर्म के आधार पर ही स्थापित होगा । धर्मप्रसार के कार्य में ज्ञानशक्ति, इच्छाशक्ति और क्रियाशक्ति में से ज्ञानशक्ति का योगदान सर्वाधिक है । ज्ञानशक्ति के माध्यम से कार्य होने का सर्वाधिक प्रभावी माध्यम हैं ‘ग्रंथ’ ।

प.पू. भक्तराज महाराजजी का लीलासामर्थ्य और उनके शिष्य डॉ. जयंत आठवलेजी की त्रिकालदर्शिता !

‘भविष्य में प.पू. बाबा के भजनों का अर्थ कोई तो बताएगा’, यह परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी को वर्ष २०१३ में ही ज्ञात था’, यह उनकी त्रिकालदर्शिता ही है !

सनातन के ग्रंथ : न केवल ज्ञान, अपितु चैतन्य के दिव्य भंडार !

श्रीमद्गवद्गीता, महाभारत आदि धर्मग्रंथ ईश्वरीय वाणी द्वारा साकार हुए हैं; इसलिए उनमें चैतन्य है, उसी प्रकार सनातन के ग्रंथ भी ईश्वरीय संकल्प द्वारा साकार हुए हैं । वेदों के समान महतीवाले ये ग्रंथ स्वयंभू चैतन्य के स्रोत हैं ।

हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता

हिन्दू धर्म में अनेक संप्रदाय, उपासना-पंथ व धार्मिक विचारधाराएं हैं; परंतु ‘अन्यों पर अपने मत का वर्चस्व जताने हेतु कोई किसी के विरुद्ध शस्त्र चलाकर निष्पाप लोगों का रक्त नहीं बहाता ।