‘साधना में टिके रहना’ ही साधना की परीक्षा है !

पू. संदीप आळशी

‘आज के समय में गृहस्थी की समस्याओं के कारण कुछ क्रियाशील अथवा पूर्णकालीन साधकों के मन में शिक्षा, नौकरी, गृहस्थ जीवन आदि के संबंध में बहुत ही तीव्र विचार आ रहे हैं । कुछ साधकों को ‘मेरे पास पैसे नहीं हैं, तो भविष्य में मेरा क्या होगा ?’, इस विचार से असुरक्षा की भावना है, तो कुछ साधक साधना एवं सेवा से ऊब रहे हैं तथा वे ‘आरामदायी जीवन जीने’ जैसे मायापूर्ण जीवन की ओर आकृष्ट हो रहे हैं । भले ही इस प्रकार के कारण भिन्न हों, तब भी अनेक साधक ‘साधना कर ईश्वरप्राप्ति करने’ के अपने लक्ष्य से विचलित हुए हैं’; यही सर्वाधिक सत्य है । आज के समय में तीव्र आपातकाल होने के कारण अनिष्ट शक्तियों की शक्ति बढ गई है तथा वे भी साधकों को साधनापथ से विचलित करने का काम जोरों से कर रही हैं । ऐसे समय में ‘साधना में टिके रहना ही साधका की परीक्षा है’, इसे गंभीरतापूर्वक समझकर साधकों को ऐसे विचारों पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है । इस संदर्भ में निम्नांकित कुछ दृष्टिकोण उपयोगाी सिद्ध होंगे ।

१. विश्व युद्ध, प्राकृतिक आपदाएं आदि के रूप में बहुत शीघ्र ही भीषण आपातकाल आरंभ होनेवाला है । उस काल में पैसा, घर आदि नहीं, अपितु साधना का सुरक्षा-कवच ही उपयोगी सिद्ध होगा । इसलिए अब साधना को ही प्रधानता देनी होगी ।

२. अनेक साधकों को बाहर का चटपटा खाना-पीना, महंगे वस्त्र तथा सचल-दूरभाष आदि चाहिए होते हैं । अपनी आवश्यकताएं न्यून (कम) की गईं, तो ‘जो हमारे पास है, उसमें भी संतुष्ट’ होकर रहना संभव है ।

३. सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी जब साधकावस्था में थे, उस समय उन्होंने अपना सर्वस्व ही गुरुचरणों में समर्पित कर दिया था । उस समय में वे अर्थार्जन के लिए चिकित्सालय चलाते थे तथा उससे मिलनेवाले धन से घर चलाने के लिए आवश्यक धन अपने पास रखकर शेष धन का व्यय अध्यात्म प्रसार के लिए करते थे । एक बार उनके गुरुदेवजी ने उनकी परीक्षा ली । उस समय चिकित्सालय चलाने पर भी उससे किसी प्रकार का अर्थार्जन नहीं हो रहा था । ऐसा होते हुए भी सच्चिदानंद परब्रह्म डॉक्टरजी के पास जो संग्रहित धन था, उससे उन्होंने अध्यात्मप्रसार का कार्य जारी रखा । उसके उपरांत उन्हें ऐसी अनेक अनुभूतियां हुईं, जिससे हाथ में पैसे न होते हुए भी अकस्मात कहीं से पैसे का प्रबंध होकर उस दिन का काम संपन्न हो जाता था ! उनके गुरुदेवजी ने कभी भी उन पर भूखे रहने की स्थिति नहीं आने दी अथवा उनका अध्यात्मप्रसार का कार्य खंडित नहीं होने दिया ! आज साधकों को ऐसे विष्णुस्वरूप सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी ‘गुरु’ के रूप में प्राप्त हुए हैं, तो साधकों ने उनके प्रति संपूर्ण श्रद्धा रखी, तो क्या उन्हें भी वैसी अनुभूतियां नहीं होंगी ?

अपने एक भजन में प.पू. भक्तराज महाराजजी ने कहा है –

ब्रीद तुझे सत्य । जाणे मी त्रिवार ।
भक्तांचा तू भार । वाही सदा ।।

अर्थ : भक्तवत्सल प्रभु की भक्तवत्सलता की अनुभूति आने के लिए उनकी भक्तवत्सलता के प्रति श्रद्धा रखनी ही पडती है !

४. साधना करते समय उत्तरदायी साधकों को अपनी साधना के प्रयासों का ब्योरा देना पडता है । सेवा करते समय कार्यपद्धति एवं समयसीमा का पालन करना पडता है । ‘यह सब करना उबाऊ है; इसलिए हम यदि आरामदायी जीवन के भिन्न-भिन्न मार्ग खोजने लगे’ तो स्वयं ही अपने पैरों पर कुल्हाडी मारने जैसा होगा । इसका कारण यह है कि केवल तत्कालीन सुख देनेवाले इस मायाजाल में हम अधिकाधिक फंसकर सच्चे आनंद से शाश्वत रूप से दूर हो जाएंगे । हमारे जीवन में सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी जैसे महान ‘मोक्षगुरु’ का आना हमारे जनम-जनम का महासौभाग्य है । इस स्वर्णिम अवसर का लाभ उठाकर हमने अपने जीवन को सार्थक नहीं किया, तो हमारे जैसे अभागे हम ही होंगे !

सतर्क रहें ! माया के लालच की बलि न चढें तथा साधना न छोडें, न ही उसे अल्प होने दें । साधना एवं सेवा करते समय आनेवाली समस्याओं के विषय में, साथ ही मन में उत्पन्न व्यावहारिक विषयों के संदर्भ में उत्तरदायी साधकों अथवा मार्गदर्शक संतों से बात करें तथा उससे बाहर निकलने का प्रयास करें !’

– (पू.) संदीप आळशी (६.३.२०२३)