सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी की सादगी एवं सरलता !

वर्ष २०१७ में मैंने एक बार सच्चिदानंद परब्रह्म डॉक्टरजी को सुझाया था, आपका स्थान सभी से भिन्न है । वह अलग ही होना और दिखाई भी देना चाहिए । क्या हम सभी आपके नाम के पहले भिन्न उपाधि लगाएं ?’ इस पर सच्चिदानंद परब्रह्म डॉक्टरजी ने कहा, ‘‘अभी उसका विचार नहीं करना है ।’’

हिन्दू राष्ट्र की स्थापना हेतु ‘आपातकाल से पूर्व ग्रंथों के माध्यम से अधिकाधिक धर्मप्रसार’ होने के उद्देश्य से सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी का संकल्प कार्यरत हो गया है । अतः उनकी अपार कृपा प्राप्त करने के लिए इस कार्य में पूर्ण लगन से सम्मिलित हों !

धर्मप्रसार का कार्य होने में ज्ञानशक्ति, इच्छाशक्ति एवं क्रियाशक्ति, इनमें से ज्ञानशक्ति का योगदान सर्वाधिक है । ज्ञानशक्ति के माध्यम से कार्य होने हेतु सबसे प्रभावी माध्यम हैं ‘ग्रंथ’ !

साधना के विषय में उपयुक्त दृष्टिकोण !

‘साक्षित्व की अवस्था विलक्षण विलोभनीय है । यहां शुद्ध विश्राम है तथा परम विश्राम है । विभिन्न योनियों से भटककर परिश्रांत बना ऐसा जीव, जिस समय इस साक्षित्व की दशा को प्राप्त होता है, उस समय उसका संसार भ्रमण रुक जाता है

अतीत में हुई चूकों से व्यथित न हों, अपितु अच्छा भविष्य बनाने हेतु तत्पर हों !

अतीत में जो कुछ भी चूकें हुईं, सो हुईं; परंतु अब उन चूकों को सुधारना संभव हो, तो उन्हें तत्परता से सुधारें, पहले हुईं चूकें पुनः न हों; इस हेतु तत्परता से प्रयास भी करें, ‘स्वभावदोष-निर्मूलन प्रक्रिया’ अच्छे से करें । इस प्रकार प्रयास आरंभ करने से मन सकारात्मक होकर हम आनंदित रहते हैं।’

‘संयम रखकर सफलता की प्रतीक्षा करना’ तपस्या ही है !

आज की अंधकारभरी रात के गर्भ में ही कल का उषःकाल छिपा होता है । हमने यदि दृढतापूर्वक उस उषःकाल की प्रतीक्षा की, तभी जाकर हमें साधना के आगे के प्रयासों का भी मार्ग दिखाई देने लगता है । अतः साधक श्रद्धा एवं संयम रखकर साधना में अग्रसर रहें ।

हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के विषय में मार्गदर्शक सनातन की ग्रंथमाला : हिन्दू धर्म एवं धर्मग्रंथों का माहात्म्य

हिन्दू धर्म की निर्मिति किसने और कब की ? हिन्दू धर्म का महत्त्व क्या है तथा ‘हिन्दू’ किसे कहें ? इन प्रश्नोंके उत्तर पढिये “धर्मका मूलभूत विवेचन” इस ग्रंथ में

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी द्वारा वर्ष २००२ से अध्यात्मप्रसार करने की अपेक्षा हिन्दू राष्ट्र के लिए कार्य करने के लिए प्रधानता देने का कारण !

साधकों को व्यष्टि साधना करते समय ‘मेरी आध्यात्मिक उन्नति हो रही है या नहीं ?’, इस विचार में संलिप्त होने की अपेक्षा यह विचार करना चाहिए कि ‘क्या मैं समष्टि साधना के लिए अधिकाधिक प्रयास कर रहा हूं न ?’

‘साधना में टिके रहना’ ही साधना की परीक्षा है !

‘साधना में टिके रहना ही साधका की परीक्षा है’, इसे गंभीरतापूर्वक समझकर साधकों को ऐसे विचारों पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है । इस संदर्भ में निम्नांकित कुछ दृष्टिकोण उपयोगाी सिद्ध होंगे ।

सिखाने की अपेक्षा सीखने की वृत्ति रखने से अधिक लाभ होता है !

‘ईश्वर सर्वज्ञानी हैं । हमें उनके साथ एकरूप होना है । इसलिए हमारा निरंतर सीखने की स्थिति में रहना आवश्यक है । किसी भी क्षेत्र में ज्ञान अर्जित करना, यह कभी भी समाप्त न होनेवाली प्रक्रिया है । अध्यात्म तो अनंत का शास्त्र है ।

भारतवर्ष

‘किसी भी राष्ट्र के व्यक्ति के जन्म से ही उसके ‘धर्म अथवा पंथ’ की पहचान अपनेआप ही चिपक जाती है । व्यक्तियों को मिलाकर राष्ट्र बनने से स्वाभाविक ही राष्ट्र के बहुसंख्यक धर्मियों के कारण वह राष्ट्र भी ‘उन धर्मियों के राष्ट्र’ के रूप में ही जाना जाता है ।