‘ईश्वर सर्वज्ञानी हैं । हमें उनके साथ एकरूप होना है । इसलिए हमारा निरंतर सीखने की स्थिति में रहना आवश्यक है । किसी भी क्षेत्र में ज्ञान अर्जित करना, यह कभी भी समाप्त न होनेवाली प्रक्रिया है । अध्यात्म तो अनंत का शास्त्र है । हम चाहे कितना भी सीख लें, तब भी वह अल्प ही है । हमें सीखते समय ‘मैं अज्ञानी हूं’, इसका भान रखकर ज्ञान अर्जित करने की प्रक्रिया करनी चाहिए । इस कारण ‘मैं’पन न्यून होना तथा ज्ञान में विद्यमान चैतन्य का अनुभव करना, ऐसे दो लाभ होते हैं । इन दोनों लाभ से आनंद का अनुभव कर सकते हैं । इसके विपरीत, सिखाने में
‘मुझे आता है’, यह अहंकार बढता जाता है और ज्ञान में विद्यमान चैतन्य का अनुभव नहीं कर सकते । इसलिए सिखाने की भूमिका में रहने से अधिक हानि होती है ।’ – सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवले
गुरुदेवजी की शिक्षा से एकरूप होने का महत्त्व !
‘गुरुदेवजी का स्थूल रूप उनकी देह है, जबकि सूक्ष्म रूप उनकी शिक्षा ! साधक गुरुदेवजी के स्थूल रूप से नहीं, अपितु सूक्ष्म रूप से एकरूप हो सकते हैं । गुरुदेवजी के सूक्ष्म रूप से, अर्थात उनकी शिक्षा से एकरूप हो सकें, इसलिए गुरुदेवजी की दी गई शिक्षा सदा आचरण में लाना महत्त्वपूर्ण है । सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी सनातन संस्था की स्थापना से लेकर आज तक साधकों को साधना की सर्व शिक्षा दे रहे हैं । ‘उनकी दी गई शिक्षा को क्या वास्तव में हम प्रतिदिन आचरण में लाते हैं ?’, अंतर्मुख होकर साधकों को यह विचार करना चाहिए ।’
– (पू.) संदीप आळशी (७.२.२०२२)