‘जब मैं साधना के पथ पर अग्रसर था, उस समय मेरी आध्यात्मिक प्रगति अच्छे ढंग से होने के कारण अनेक संतों ने मेरी प्रशंसा की । उस समय मेरे मन में यह विचार आया, ‘अब मुझे स्वयं की आध्यात्मिक प्रगति को देने की अपेक्षा हिन्दू राष्ट्र के लिए कार्य करना चाहिए; क्योंकि हिन्दुओं की तथा भारत की स्थिति अत्यंत दयनीय हो गई है । उसके लिए वर्ष २००२ से मैंने अध्यात्मप्रसार करने की अपेक्षा हिन्दू राष्ट्र के लिए कार्य करना आरंभ किया । इसके अंतर्गत मैं संतों का संगठन करना, राष्ट्रप्रेमी एवं धर्मप्रेमियों का आध्यात्मिक स्तर पर मार्गदर्शन करना, राष्ट्र एवं धर्म से संबंधित ग्रंथों का संकलन करना इत्यादि कार्य कर रहा हूं । अभी तक मैंने इसी को ‘समष्टि साधना’ के दृष्टिकोण से प्रधानता दी है । हिन्दू राष्ट्र की स्थापना होने के उपरांत मैं पुनः साधकों की आध्यात्मिक प्रगति को महत्त्व दूंगा ।’
– सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवले (९.२.२०२३)
सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी के उपरोक्त विचार से साधकों को ध्यान में लेने योग्य सूत्र !
१. साधकों को व्यष्टि साधना करते समय ‘मेरी आध्यात्मिक उन्नति हो रही है या नहीं ?’, इस विचार में संलिप्त होने की अपेक्षा यह विचार करना चाहिए कि ‘क्या मैं समष्टि साधना के लिए अधिकाधिक प्रयास कर रहा हूं न ?’
२. सच्चिदानंद परब्रह्म डॉक्टरजी सनातन संस्था की स्थापना से लेकर ही कहते थे, ‘व्यक्तिगत आध्यात्मिक उन्नति’ साधकों की साधना का केंद्रबिंदु है ।’ हिन्दू राष्ट्र की स्थापना होने पर हिन्दू राष्ट्र को सुस्थापित करना आदि कार्याें की ओर ध्यान देने की अपेक्षा वे पुनः साधकों की आध्यात्मिक प्रगति को महत्त्व देंगे । इससे उनकी साधकों की आध्यात्मिक उन्नति की अपार लगन स्पष्ट होती है । साधकों को भी समष्टि साधना करते समय ही स्वयं की आध्यात्मिक उन्नति तीव्र गति से होने के लिए स्वभावदोष-निर्मूलन, भावजागृति जैसी व्यष्टि साधना की ओर भी उतनी ही गंभीरता से ध्यान देना आवश्यक है ।’
– (पू.) संदीप आळशी (९.२.२०२३)