त्यागी वृत्ति से युक्त केरल की स्व. (श्रीमती) सौदामिनी कैमल (आयु ८२ वर्ष) संतपद पर विराजमान !
पिछले १ वर्ष से उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा था । वे अंत तक अखंड नामजप करती थीं । पू. कैमल दादी को केरल के साधक प्रेम से ‘अम्मा’ कहकर बुलाते थे ।
पिछले १ वर्ष से उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा था । वे अंत तक अखंड नामजप करती थीं । पू. कैमल दादी को केरल के साधक प्रेम से ‘अम्मा’ कहकर बुलाते थे ।
‘मैं वाहन से प्रवास करते समय अथवा न्यायालय में भी नामजप करता हूं । भगवान पर हमारी इतनी श्रद्धा होनी चाहिए कि यदि हम पर कोई संकट आता है तो भगवान को हमारी सहायता करनी चाहिए । हमारे मालिक भगवान हैं । भगवान के भक्त को चिंता करने की आवश्यकता नहीं ।
गुरु को व्यापक धर्मकार्य प्रिय है । वह लगन से करना सच्ची ‘गुरुभक्ति’ है । यह कार्य करते समय कोई भी संदेह न रखना सच्ची गुरुनिष्ठा है एवं ‘यह धर्मकार्य परिपूर्ण करने से मेरी आत्मोन्नति निश्चित ही होगी’, यही ‘गुरु के प्रति’ श्रद्धा है ! इसीलिए गुरुपूर्णिमा से श्री गुरु के प्रति निष्ठा, श्रद्धा एवं भक्ति बढाएं ।
सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी ने प्रत्येक कार्य पहले स्वयं किया तथा उनकी बारीकियों का अध्ययन किया है । कार्य सूत्रबद्ध होने के लिए कार्यपद्धतियां बनाईं तथा तत्पश्चात ही वह साधकों को सिखाया । इसलिए अनेक साधक विविध क्षेत्रों में कार्य करने हेतु तैयार हो गए हैं । दिव्य कार्य दिव्य विभूतियों के हाथों से ही होता है । इस दिव्य कार्य के छायाचित्र स्वरूप में कुछ क्षणमोती यहां दिए हैं ।
अध्यात्मप्रसार के कार्य की व्यापकता बढने के उपरांत परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने २३.३.१९९९ को सनातन संस्था की स्थापना की । सनातन संस्था का उद्देश्य है वैज्ञानिक परिभाषा में हिन्दू धर्म के अध्यात्मशास्त्र का प्रसार कर धर्मशिक्षा देना
कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग इत्यादि जिस किसी भी मार्ग से साधना करें, तब भी ईश्वरप्राप्ति हेतु गुरुकृपा के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है । शीघ्र गुरुप्राप्ति हेतु तथा गुरुकृपा निरंतर होने हेतु परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने ‘गुरुकृपायोग’ नामक सरल साधनामार्ग बताया है ।
इस घटना के माध्यम से मानो साक्षात भगवान ही यह बता रहे हैं, ‘सनातन संस्था के साधकों को प्राप्त मोक्षगुरु सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी प्रत्यक्ष श्रीमन्नारायणस्वरूप ही हैं । वे ही श्रीविष्णु के अवतार हैं ।
प.पू. डॉक्टरजी मेरे जीवन में आए और मुझे जीवन का ध्येय समझ में आया तथा उनकी कृपा से मुझे वहां साधना एवं सेवा करने का अवसर मिला । मेरी साधना के प्रारंभिक काल में उन्होंने मुझे व्यवहार एवं साधना की प्रत्यक्ष सीख प्रदान कर तैयार किया ।
स्वामी श्री. आनंद कृष्णा सिंधी वंश के हैं तथा इंडोनेशिया उनका जन्मस्थल है । वे इंडोनेशिया के ‘आध्यात्मिक मानवतावाद, साथ ही अंतरधर्मीय सुसंवाद’ के प्रवर्तक हैं । उन्होंने प्रचुर लेखनकार्य भी किया है ।
सनातन संस्था के धर्मप्रचारक श्री. अभय वर्तक एवं साधक श्री. गिरीश पुजारी ने पू. घोषजी से सद्भावना भेंट की । बीमार पू. घोषजी के साथ किए वार्तालाप में बांग्लादेश के हिन्दुओं की रक्षा हेतु जागृत उनकी जाज्ज्वल्य लगन दिखाई दी । यही सच्ची धर्मनिष्ठता तथा लडाकूवृत्ति है ।