सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी द्वारा अध्यात्म-क्षेत्र में किया गया कार्य !

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी को यह अनुभव हुआ कि सम्मोहन चिकित्सा से स्वस्थ न होनेवाले मनोरोगी संतों के बताए अनुसार साधना करने से स्वस्थ होते हैं । उसके उपरांत उनके ध्यान में आया कि केवल स्वभावदोष तथा अहं ही सभी मनोरोगों के मूल कारण नहीं होते, यद्यपि ‘प्रारब्ध एवं अनिष्ट शक्तियों के कष्ट’ जैसे आध्यात्मिक कारण भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं’ । उसके कारण वर्ष १९८३ से वर्ष १९८७ की अवधि में उन्होंने अध्यात्म के अधिकारी लगभग २५ संतों के पास जाकर अध्यात्म का अध्ययन किया तथा उससे अध्यात्मशास्त्र की श्रेष्ठता ध्यान में आने के उपरांत उन्होंने स्वयं साधना आरंभ की । वर्ष १९८७ में उन्हें इंदौर निवासी महान संत प.पू. भक्तराज महाराजजी के रूप में गुरुप्राप्ति हुई । 

गुरु प.पू. भक्तराज महाराजजी के निकट दास्यभाव में नीचे बैठे हुए शिष्य डॉ. जयंत आठवलेजी (वर्ष १९९३)

अध्यात्मप्रसार के कार्य की व्यापकता बढने के उपरांत परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने २३.३.१९९९ को सनातन संस्था की स्थापना की ।

१. सनातन संस्था के उद्देश्य

अ. आध्यात्मिक उन्नति हेतु भक्तियोग, ज्ञानयोग, ध्यानयोग आदि विभिन्न योगमार्गाें के साधकों का व्यक्तिगत मार्गदर्शन करना

आ. वैज्ञानिक परिभाषा में हिन्दू धर्म के अध्यात्मशास्त्र का प्रसार कर धर्मशिक्षा देना

 इ. हिन्दू राष्ट्र की स्थापना हेतु समविचारी संगठनों के साथ हिन्दू संगठन तथा सांप्रदायिक एकता हेतु प्रयास करना

२.  सनातन संस्था का कार्य

अ. सत्संग : जिज्ञासुओं को साधना का महत्त्व बताना तथा ‘जितने व्यक्ति उतनी प्रकृतियां तथा उतने साधनामार्ग’, इस सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक जिज्ञासु को साधना सिखाने हेतु विभिन्न स्थानों पर साप्ताहिक सत्संग आयोजित किए जाते हैं । बालसंस्कारवर्ग, धर्मशिक्षावर्ग, स्वभावदोष-निर्मूलन सत्संग, भाववृद्धि सत्संग जैसे सत्संग के कुछ प्रकार हैं ।

आ. व्याख्यान : आनंदमय जीवन हेतु अध्यात्म, व्यक्तित्त्व का विकास, तनावमुक्ति हेतु अध्यात्म आदि विषयों पर सनातन संस्था की ओर से निःशुल्क व्याख्यान लिए जाते हैं ।

इ. गुरुपूर्णिमा : गुरु-शिष्य परंपरा के महत्त्व को बताने के लिए सनातन संस्था संपूर्ण देश में प्रतिवर्ष २०० से अधिक स्थानों पर ‘गुरुपूर्णिमा समारोह’ आयोजन करती है ।

ई. कुंभपर्व में अध्यात्मप्रसार : सनातन संस्था ने प्रयाग (वर्ष २००१ एवं वर्ष २०१३), नासिक (वर्ष २००३ एवं वर्ष २०१५), उज्जैन (वर्ष २००४ एवं वर्ष २०१६) तथा हरिद्वार (वर्ष २०१०) के कुंभपर्वाें में बडे स्तर पर अध्यात्मप्रसार किया । साथ ही कुंभक्षेत्रों, मंदिरों तथा तीर्थाें के पवित्रता की रक्षा, पाखंडी बाबाओं के विरुद्ध वैध पद्धति से कृति करना, धर्महानि रोकना आदि विषयों पर धर्मजागृति भी की गई ।

कोल्हापुर की संत-बैठक – (बाएं से) वारकरी संप्रदाय के प.पू. यादव महाराज, प.पू. तोडकर महाराज, करवीर पीठ के जगद्गुरु शंकराचार्य विद्याशंकर भारती, प.पू. प्रज्ञानंदस्वामी, प.पू. मुंगळे महाराज, प.पू. विजयेंद्र महाराज एवं  परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी (वर्ष २००१)

 

उ. दूरदर्शन वाहिनियों पर हिन्दू धर्म का पक्ष रखना : सनातन संस्था के बढते अध्यात्मप्रसार के कार्य के कारण संपूर्ण देश की विभिन्न सामाजिक, राष्ट्रीय एवं धार्मिक समस्याओं के संदर्भ में हिन्दू धर्म का पक्ष रखने के लिए संस्था के प्रवक्ताओं को विभिन्न दूरदर्शन वाहिनियों की ओर से सदैव आमंत्रित किया जाता है ।

उ १. वक्ता प्रशिक्षण कार्यशालाओं का आयोजन करना : दूरदर्शन वाहिनियों पर आयोजित परिचर्चाओं में हिन्दू धर्म के प्रवक्ताओं की अल्प संख्या को ध्यान में लेकर परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के मार्गदर्शन के अनुसार सनातन संस्था वर्ष २०१५ से ‘वक्ता प्रशिक्षण कार्यशाला का आयोजन कर रही है । इन कार्यशालाओं के माध्यम से हिन्दू धर्म का पक्ष रखनेवाले ४० प्रवक्ता तैयार हुए हैं ।

 उ २. सनातन संस्था का जालस्थल – sanatan.org : इस जालस्थल के प्रमुख उद्देश्य हैं – शास्त्रीय परिभाषा में अध्यात्म का प्रसार करना, धार्मिक कृतियों का शास्त्र समझाना तथा साधना के संदर्भ में शंकाओं का समाधान करना । प्रति मास १ लाख से अधिक पाठक संख्यावाला यह जालस्थल हिन्दी, मराठी, गुजराती, कन्नड एवं अंग्रेजी, इन पांच भाषाओं में कार्यरत है तथा वह १८० से अधिक देशों में देखा जाता है ।

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अध्यात्मप्रसारका कार्य

‘जीवन का अत्युच्च आनंद प्रदान करनेवाला ‘अध्यात्मशास्त्र’ चिकित्सकीय शास्त्र से भी उच्च गुणवत्तावाला शास्त्र है’, इसकी प्रतीति करने के उपरांत परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने अध्यात्मशास्त्र का प्रसार आरंभ किया । वर्ष १९८३ से १९८७ की अवधि में विभिन्न संतों से अध्यात्म सीखते समय ‘जो कुछ मुझे ज्ञात है, वह अन्यों को बताऊं’, इस दृढ निश्चय के अनुसार उनके पास मनोरोग चिकित्सा के लिए आनेवाले रोगियों को वे अध्यात्मशास्त्र का महत्त्व बताकर साधना बताने लगे तथा डॉक्टरों के लिए आयोजित व्याख्यानों में भी ‘सम्मोहनशास्त्र एवं अध्यात्मशास्त्र’ जैसे विषय रखने लगे । आगे जाकर वर्ष १९९४ में अध्यात्मप्रसार का पूर्णकालीन कार्य करने हेतु उन्होंने अपना चिकित्सकीय व्यवसाय पूर्णतः बंद कर दिया ।

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी द्वारा ‘सनातन भारतीय संस्कृति संस्था’ के माध्यम से स्वयं किया कार्य !

‘उठो राष्ट्रवीरो, धर्मवीरो…’, यह गर्जना करने के लिए  सभास्थल पर आते परात्पर गुरु डॉ. जयंत आठवलेजी  (वर्ष १९९७)

१.  सनातन भारतीय संस्कृति संस्था की स्थापना

वर्ष १९९१ में नाशिक में निवास के समय प.पू. भक्तराज महाराजजी ने डॉ. आठवलेजी को  बताया, ‘‘आप ‘सनातन भारतीय संस्कृति संस्था’ के नाम से अध्यात्म की शिक्षा एवं प्रसार का कार्य कीजिए ।’’ उसके अनुसार परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने १.८.१९९१ को सनातन भारतीय संस्कृति संस्था की स्थापना की ।

२.  परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का मुंबई स्थित  चिकित्सालय ‘सनातन भारतीय संस्कृति संस्था’ का पहला आश्रम तथा अध्यात्मप्रसार का प्रमुख केंद्र बन जाना

 ‘अध्यात्म में उन्नति करने हेतु तन-मन-धन का त्याग करना आवश्यक होता है’, यह सिद्धांत ज्ञात होने पर वर्ष १९९३ में मैंने मुंबई में स्थित मेरा ३ कमरों वाला चिकित्सालय मैंने अपने गुरु प.पू. भक्तराज महाराजजी को अर्पित किया । तब से लेकर सनातन के कार्य हेतु पूर्णकालीन साधक वहां रहने लगे ।’

– (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले (१३.३.२०१७)

३. सनातन भारतीय संस्कृति संस्था के माध्यम से किया कार्य

सनातन भारतीय संस्कृति संस्था के माध्यम से परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने महाराष्ट्र, गोवा तथा कर्नाटक, इन राज्यों में अध्यात्म के अभ्यासवर्ग आयोजित करना, प.पू. भक्तराज महाराजजी का गुरुपूर्णिमा महोत्सव आयोजित करना, अध्यात्म की शिक्षा देनेवाले ग्रंथों का संकलन करना, साथ ही जिज्ञासुओं एवं साधकों की शंकाओं का समाधान कर उनकी व्यक्तिगत साधना हेतु उनकी सहायता करना आदि कार्य किए । वर्ष १९९६ से वर्ष १९९८ की अवधि में परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने महाराष्ट्र, गोवा एवं कर्नाटक, इन राज्यों में ‘साधना एवं राष्ट्र-धर्म’ विषय पर सैकडों सार्वजनिक सभाएं कीं ।