सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी द्वारा विशद ‘अष्टांग साधना’, उसका क्रम एवं पंचमहाभूतों से संबंध

अष्टांग साधना में स्वभावदोष-निर्मूलन (एवं गुणसंवर्धन), अहं-निर्मूलन, नामजप, भावजागृति, सत्संग, सत्सेवा, त्याग एवं प्रीति यह ८ चरण हैं | यह साधना का क्रम सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी ने विशद किया है, वह विशेषतापूर्ण है

साधको, ‘प्रतिमा बनाए रखना’ इस अहं के पहलू के कारण स्वयं की चूकें छुपाकर भगवान के चरणों से दूर जाने की अपेक्षा प्रामाणिकता से चूकें स्वीकार कर ईश्वरप्राप्ति की दिशा में अग्रसर हों !

ईश्वर का हमारे प्रत्येक कृत्य की ओर ध्यान रहता है । ‘जो पापी स्वयं का पाप सारे विश्व को चीखकर बताता है, वही महात्मा बनने की योग्यता का होता है’, यह दृष्टिकोण रखकर साधकों द्वारा प्रयास होना अपेक्षित है ।

साधको, आध्यात्मिक प्रगति में प्रमुख अडचन के अहं युक्त विचारों से बाहर निकलने के लिए कठोर प्रयास करें !

साधना में स्वभावदोष एवं अहं के निर्मूलन की प्रक्रिया को अनन्यसाधारण महत्त्व है । ‘साधना में हमारे मन की विचारप्रक्रिया उचित दिशा में हो रही है न ?’, इसका अंतर्मुखता से चिंतन करना आवश्यक होता है ।

‘सुखी जीवन एवं उत्तम साधना हेतु स्वभावदोष-निर्मूलन एवं गुणसंवर्धन’ प्रक्रिया महत्त्वपूर्ण !

जीवन के किसी भी कठिन प्रसंग में मानसिक संतुलन खोए बिना, प्रसंग का धैर्यपूर्वक सामना कर पाने तथा सदैव आदर्श कृति होने हेतु व्यक्ति का मनोबल उत्तम एवं व्यक्तित्व आदर्श होना आवश्यक है । स्वभावदोष व्यक्ति का मन दुर्बल करते हैं, जबकि गुण आदर्श व्यक्तित्व विकसित करने में सहायक होते हैं ।

स्वभावदोष कैसे दूर करें ?

स्वभावदोषों के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, पारिवारिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक दुष्परिणामों को दूर कर, सफल तथा सुखी जीवन जीने हेतु, स्वभावदोषों को दूर कर चित्त पर गुणों का संस्कार निर्माण करने की प्रक्रिया को ‘स्वभावदोष (षड्रिपु)-निर्मूलन प्रक्रिया’ कहते हैं ।

सनातन की ग्रन्थमाला : स्वभावदोष एवं अहं निर्मूलन

स्वभावदोषों पर उपचारी सूचना, स्वसूचना बनाते समय ध्यान रखने योग्य सूत्र, स्वभावदोष-निर्मूलन प्रक्रिया अशिक्षित एवं अल्पशिक्षित व्यक्ति भी कर पाएं, इस हेतु उपयुक्त सूचना आदि के विषय में इस ग्रंथ में पढें ।

कृतज्ञताभाव में रहने से निराशा न आकर मन आनंदित होकर साधना और अधिक अच्छे ढंग से की जा सकेगी !

साधकों को साधना में भले ही प्रगति करना संभव न होता हो और स्वभावदोषों और अहं पर विजय प्राप्त करना संभव न होता हो; तब भी उन्हें बताया जाता है, ‘आप भावजागृति के लिए प्रयास कीजिए । भाव जागृत हुआ, तो साधना में उत्पन्न अनेक बाधाएं दूर होंगी और आपकी प्रगति होगी ।

आज ही ‘डाउनलोड’ करें, सनातन के ‘ई-बुक’ स्वरूप में ग्रंथ !

स्वभावदोष (षड्रिपु)-निर्मूलनका महत्त्व एवं गुण-संवर्धन प्रक्रिया (अंग्रेजी), नामजप का महत्त्व (अंग्रेजी), त्योहार मनानेकी उचित पद्धतियां एवं अध्यात्मशास्त्र (हिन्दी)

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के ओजस्वी विचार

‘ईश्वर पर तथा साधना पर विश्वास न हो, तब भी चिरंतन आनंद की आवश्यकता प्रत्येक व्यक्ति को होती है । वह केवल साधना से ही प्राप्त होता है । एक बार यह ध्यान में आ जाए, तो साधना का कोई पर्याय न होने के कारण, मानव साधना की ओर प्रवृत्त होता है ।’

स्वभावदोष एवं अहं निर्मूलन कर भगवान को अपना बनाने के लिए कहना

‘मन, बुद्धि एवं चित्त शुद्ध हुए बिना हम भगवान से एकरूप नहीं हो सकते’, यह सिद्धांत है । इस प्रकार भगवान को अपना बनाना सिखाकर परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी बहुत पहले से साधकों से आपातकाल की तैयारी करवा ले रहे हैं ।