बालको, स्वभावदोष-निर्मूलन प्रक्रिया कार्यान्वित कर आनंदित जीवन की प्रतीति लें !
स्वभावदोष-निर्मूलन प्रक्रिया के कारण दोषों पर नियंत्रण पाकर गुणों का विकास होता है । इसलिए जीवन सुखी एवं आदर्श बन जाता है ।
स्वभावदोष-निर्मूलन प्रक्रिया के कारण दोषों पर नियंत्रण पाकर गुणों का विकास होता है । इसलिए जीवन सुखी एवं आदर्श बन जाता है ।
साधक आनंदप्राप्ति हेतु साधना कर रहे हैं । जीवन आनंदमय होने हेतु चित्त पर स्थित जन्म-जन्म के संस्कार नष्ट होने चाहिए तथा उसके लिए स्वभावदोष एवं अहं निर्मूलन की प्रक्रिया गंभीरता से अपनाई जानी चाहिए ।
‘विज्ञान स्थूल सूत्रों पर कार्यरत है, जबकि अध्यात्म सूक्ष्म स्तर पर, अर्थात मन-बुद्धि-चित्त इन चरणों पर कार्य करता है । विज्ञान भी धीरे धीरे सूक्ष्म स्तर पर कार्य करने लगा है; परंतु उसी समय अध्यात्म उससे भी आगे जाकर सूक्ष्मतर एवं सूक्ष्मतम स्तर तक कार्य करता है ।
सद्गुरु नीलेश सिंगबाळजी एवं श्री. शंभू गवारे ने क्रमशः ‘हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के कार्य में साधना की आवश्यकता’ तथा ‘हलाल (जो इस्लाम के अनुसार वैध है, वह) अर्थव्यवस्था की भीषणता’ विषयों पर उपस्थित धर्मप्रेमियों को संबोधित किया ।
अब आपातकाल प्रारंभ हो चुका है । तीसरा विश्वयुद्ध अत्यधिक विनाशकारी होनेवाला है । उसके लिए हमें तैयार रहना आवश्यक है । आपातकाल से पार होने के लिए साधना आवश्यक है । उस दृष्टि से शीघ्र आध्यात्मिक उन्नति होने में आनेवाली बाधाएं और उसपर समाधान योजना समझ लेते हैं ।
अष्टांग साधना में स्वभावदोष-निर्मूलन (एवं गुणसंवर्धन), अहं-निर्मूलन, नामजप, भावजागृति, सत्संग, सत्सेवा, त्याग एवं प्रीति यह ८ चरण हैं | यह साधना का क्रम सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी ने विशद किया है, वह विशेषतापूर्ण है
ईश्वर का हमारे प्रत्येक कृत्य की ओर ध्यान रहता है । ‘जो पापी स्वयं का पाप सारे विश्व को चीखकर बताता है, वही महात्मा बनने की योग्यता का होता है’, यह दृष्टिकोण रखकर साधकों द्वारा प्रयास होना अपेक्षित है ।
साधना में स्वभावदोष एवं अहं के निर्मूलन की प्रक्रिया को अनन्यसाधारण महत्त्व है । ‘साधना में हमारे मन की विचारप्रक्रिया उचित दिशा में हो रही है न ?’, इसका अंतर्मुखता से चिंतन करना आवश्यक होता है ।
जीवन के किसी भी कठिन प्रसंग में मानसिक संतुलन खोए बिना, प्रसंग का धैर्यपूर्वक सामना कर पाने तथा सदैव आदर्श कृति होने हेतु व्यक्ति का मनोबल उत्तम एवं व्यक्तित्व आदर्श होना आवश्यक है । स्वभावदोष व्यक्ति का मन दुर्बल करते हैं, जबकि गुण आदर्श व्यक्तित्व विकसित करने में सहायक होते हैं ।
स्वभावदोषों के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, पारिवारिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक दुष्परिणामों को दूर कर, सफल तथा सुखी जीवन जीने हेतु, स्वभावदोषों को दूर कर चित्त पर गुणों का संस्कार निर्माण करने की प्रक्रिया को ‘स्वभावदोष (षड्रिपु)-निर्मूलन प्रक्रिया’ कहते हैं ।