‘ईश्वरप्राप्ति’ ही मनुष्य जन्म का मूलभूत ध्येय है । उसके लिए साधकों को इसी जन्म में लगन से साधना कर आध्यात्मिक उन्नति कर लेना आवश्यक है । यह ध्येय साध्य करने के लिए श्री गुरुदेवजी की कृपा तथा मार्गदर्शन की नितांत आवश्यकता है । श्री गुरुदेवजी के कारण ही हमें जीवन की ओर देखने की योग्य दृष्टि मिलती है तथा स्वबोध होता है । अब आपातकाल प्रारंभ हो चुका है । तीसरा विश्वयुद्ध अत्यधिक विनाशकारी होनेवाला है । उसके लिए हमें तैयार रहना आवश्यक है । आपातकाल से पार होने के लिए साधना आवश्यक है । उस दृष्टि से शीघ्र आध्यात्मिक उन्नति होने में आनेवाली बाधाएं और उसपर समाधान योजना समझ लेते हैं ।
१. साधकों का साधना करने की अपेक्षा कार्य की ओर अधिक झुकाव होना
१ अ. कार्य नहीं, साधना मोक्षप्राप्ति करवाती है : हमें कार्य मोक्ष तक नहीं ले जाता, अपितु कार्य के माध्यम से होनेवाली साधना हमें मोक्षप्राप्ति करवाती है । साधकों ने उस दृष्टि से प्रयत्न करना अपेक्षित है ।
१ आ. कृति करते समय स्वयं में ईश्वरीय गुणों का विकास होना चाहिए ! : कोई भी कृति करते समय उस कृति से हमारी साधना हो रही है न ? इस ओर साधकों का ध्यान होना आवश्यक है । हम जो कार्य कर रहे हैं, उससे हममें ईश्वरीय गुणों का विकास होने के स्थान पर हमारे स्वभावदोष एवं अहं का पोषण हो रहा हो, तो हमारी साधना की हानि हो सकती है । इसके लिए हमें सतर्क रहना चाहिए ।
१ इ. सेवा करते समय स्वभावदोष एवं अहं के निर्मूलन की प्रक्रिया कार्यान्वित करने के लिए मनःपूर्वक प्रयत्न करें ! : ‘साधकों को यह भान रखना चाहिए कि ‘सेवा’ स्वयं को ईश्वर से जोडने का माध्यम है । साधकों को सेवा करते समय स्वयं के स्वभावदोष व अहं निर्मूलन तथा ईश्वरीय गुणों का विकास होने के लिए स्वभावदोष तथा अहं निर्मूलन की प्रक्रिया कार्यान्वित करने के लिए मनःपूर्वक प्रयत्न करने चाहिए ।
१ ई. साधकों को प्रतिदिन मन का ब्यौरा लेना चाहिए । यह देखना चाहिए कि साधना के लिए प्रयत्न हो रहे हैं न ? साधकों के साधना के प्रयत्न न हो रहे हों, तो वे प्रायश्चित करें ।
१ उ. साधक ध्यान रखें कि ‘व्यक्तिगत आध्यात्मिक उन्नति’ ही कार्य का केंद्रबिंदु है ।’
१ ऊ. साधना के संबंध में गंभीरता उत्पन्न करनेवाले प.पू. गुरुदेवजी के बोल ! : प.पू. गुरुदेवजी कहते हैं, ‘शुतुरमुर्ग को जब पता चलता है कि संकट आनेवाला है, तब वह रेत में सिर घुसाकर बैठ जाता है । उसे लगता है कि संकट आएगा और निकल जाएगा; परंतु वैसा नहीं होता । संकट उस शुतुरमुर्ग का ही नाश कर देता है । हम सबकी स्थिति वैसी न हो, इसके लिए साधना के अतिरिक्त विकल्प नहीं है । इसलिए साधना आज से नहीं, अपितु अभी से प्रारंभ करें ।’
२. व्यष्टि साधना का नियोजन न होना
अ. साधक सेवा का नियोजन करते समय चिंतन करें कि ‘उस सेवा से मेरी साधना हो रही है न ? सेवा गुरुदेवजी को अपेक्षित हो रही है न ?
आ. साधक ‘सेवा करते समय भाव कैसा रखें ? सेवा परिपूर्ण होने के लिए संभावित चूकों (कृति एवं मन के स्तर की) का अध्ययन करना, समय-समय पर प्रार्थना एवं कृतज्ञता व्यक्त करना, स्वयं पर आया हुआ आवरण हटाना आदि साधना के सूत्र निश्चित कर उसके अनुसार कृति करें ।
इ. कुछ साधकों में गुरुकार्य साधना के रूप में करने का झुकाव अल्प होता है । उनका व्यष्टि साधना का नियोजन न होने के कारण गंभीरता के अभाव में उनके द्वारा कृति भी नहीं होती । कृति होने के लिए विचार तथा नियोजन आवश्यक है । उसके लिए साधकों के लिए सेवा के नियोजन सहित सेवा के माध्यम से साधना होने के लिए कृति का नियोजन करना भी आवश्यक है ।
३. साधना के प्रयत्नों में निरंतरता न होना
अ. कलियुग में साधना करना अत्यधिक कठिन है । साधना करने का साधकों का दृढ निश्चय होना चाहिए । साधकों को साधना के प्रयत्नों में निरंतरता बनाए रखने के लिए प्रारंभिक चरण में लगन से, निग्रह से सतर्क रहकर प्रयत्न करने चाहिए ।
आ. साधना के प्रयत्न निरंतर होने के लिए साधकों को ईश्वर की सहायता लेनी चाहिए । उसके लिए शरणागत भाव से निरंतर प्रार्थना करना तथा अपने क्रियमाण का १०० प्रतिशत उपयोग करना आवश्यक है ।
इ. साधना अर्थात ईश्वरप्राप्ति हेतु निरंतर किए जानेवाले प्रयास । ईश्वरप्राप्ति के लिए कभी-कभी प्रयास करना कोई शौक पालने के समान है ।
ई. साधक ‘पूछना, सुनना, स्वीकारना, सीखना एवं कृति करना’, ये पंचसूत्र आचरण में लाकर सेवा परिपूर्ण करने का प्रयत्न करें : साधक सेवा स्वयं की प्रकृति के अनुसार न करें, अपितु पूछना, सुनना, स्वीकारना, सीखना एवं कृति करना’ इन पंचसूत्रों पर आचरण कर सेवा परिपूर्ण कैसे कर सकते हैं ? इसके लिए प्रयत्न करें । साधकों द्वारा अनेक बार सेवा बहिर्मुखता से की जाती है । परिणामस्वरूप वह कार्य होता है तथा उससे साधकों को आनंद भी नहीं मिलता ।
उ. साधक सेवा साधना स्वरूप परिपूर्ण एवं भावपूर्ण करें तो उन्हें आनंद मिलता है । सेवा से आनंद मिलने पर साधना के प्रयत्नों में निरंतरता बनी रहती है ।
४. साधना की लगन अल्प होना
अ. ‘ईश्वरप्राप्ति के लिए कुछ भी करने की तैयारी रहना ही वास्तविक लगन है ।
आ. लगन को साधना में ८० प्रतिशत महत्त्व है । साधना की जितनी अधिक लगन होगी उतना हमारे कार्य में ईश्वर का सहभाग अधिक होता है, अपनी सेवा परिपूर्ण होती है । उस सेवा से हमें आनंद मिलता है एवं हमारी साधना भी होती है ।
इ. साधक निरंतर प्रार्थना करें, ‘मेरी ईश्वरप्राप्ति की लगन बढने दें ।’ साधना होने के लिए लगनपूर्वक प्रयत्न करने से ईश्वर हमें सहायता करते हैं, ऐसी अनुभूतियां होती है तथा हमारी लगन बढती है ।
५. साधना के प्रयत्नों में अल्पसंतुष्टि न हो !
अ. सेवा के माध्यम से साधना होने के लिए प्रत्येक के थोडे-बहुत प्रयत्न होते रहते हैं; परंतु सेवा परिपूर्ण होने के लिए एवं ध्येयपूर्ति के लिए वे प्रयत्न पर्याप्त नहीं होते । जो प्रयत्न होते हैं, उन पर ही साधक संतुष्ट रहते हैं । इसलिए साधकों से अपेक्षित प्रयत्न नहीं होते ।
आ. हमें सर्वशक्तिमान एवं सर्वगुणसंपन्न ईश्वर से एकरूप होना है । उसके लिए हम कितने भी प्रयत्न करें, अल्प ही है । साधना में अल्पसंतुष्टि बडी बाधा होती है । साधकों को अल्पसंतुष्ट न रहकर सेवा परिपूर्ण एवं भावपूर्ण करने के लिए निरंतर परिश्रम करने चाहिए ।
६. भाव के स्तर पर प्रयत्न अल्प होना
अ. साधकों को प्रत्येक कृति भक्तिभाव से करनी चाहिए । हमारा ईश्वर के प्रति भाव हो, तो ईश्वर हमें प्रत्येक परिस्थिति में सिखाते हैं, मार्गदर्शन करते हैं, सहायता करते हैं एवं स्थिर रखते हैं ।
आ. हम निरंतर भाव के स्तर पर साधना के प्रयत्न करें, तो हमारा आध्यात्मिक स्तर बढता है । इसलिए साधकों को प्रत्येक प्रसंग में ईश्वर को अनुभव करने का प्रयत्न करना चाहिए ।
इ. किन कारणों से हमारी भावस्थिति डगमगाती है, इसका साधकों को अध्ययन करना चाहिए । भावस्थिति बनी रहने के लिए क्या उपाय करने चाहिए, इसका साधकों को चिंतन करना चाहिए ।
ई. ‘भगवान को भाव प्रिय है’, ऐसा एक सुवचन है । इसलिए साधकों को सेवा शुष्कता से नहीं, अपितु भाव के स्तर पर करनी चाहिए । साधक में भाव हो, तो वह किसी भी स्थिति में सकारात्मक एवं स्थिर रह पाता है ।
७. स्वभावदोष एवं अहं निर्मूलन की प्रक्रिया तथा गुणसंवर्धन प्रक्रिया उचित ढंग से कार्यान्वित न करना
वर्तमान काल में शीघ्र आध्यात्मिक उन्नति हेतु स्वभावदोष एवं अहं निर्मूलन की प्रक्रिया गंभीरता से कार्यान्वित करना आवश्यक है ।
अ. इस प्रक्रिया में ‘स्वयं की चूकें ढूंढना, सारणी में लिखना, चूकें बताना, स्वसूचना लेना, क्षमायाचना करना, प्रायश्चित लेना, ये सूत्र अंतर्भूत हैं ।
आ. हमारी प्रत्येक चूक हमें ईश्वर से दूर ले जाती है । साधकों को यह विचार निरंतर रखना चाहिए कि ‘मेरी चूकें मुझे ढूंढनी हैं ।’ साधकों को इस प्रक्रिया का महत्त्व निरंतर मन पर अंकित करना चाहिए ।
इ. साधकों को बैठक में अपनी चूकें बतानी चाहिए । चूकें बताने से चूकों के प्रति गंभीरता तथा उससे संबंधित खेद हमारे मन में अनेक गुना उत्पन्न होता है । हमारा अहंभाव घटता है एवं हमारी चूक से अन्य साधकों को सीखने के लिए मिलता है । चूकें बताने से हमारी व्यष्टि और समष्टि साधना होती है ।
ई. साधक इस प्रक्रिया में स्वसूचना देते हैं । स्वसूचना के साथ कृति के स्तर पर प्रयत्न करना भी महत्त्वपूर्ण है ।
उ. साधकों को चिंतन करना चाहिए कि सेवा के माध्यम से तथा सहसाधकों से समन्वय स्थापित करते समय हमारे व्यवहार में कहीं अहं के लक्षण प्रतीत होते हैं क्या ?
ऊ. साधकों को मन के छोटे-छोटे विचार भी पकडना आना चाहिए । इससे साधकों को उनके स्वभावदोष एवं अहं की तीव्रता ध्यान में आती है ।
ए. स्वभावदोष एवं अहं निर्मूलन की प्रक्रिया गुरुदेवजी को अपेक्षित होने के लिए साधकों को निरंतर अंतर्मुख रहना चाहिए । मुझे साधना की दृष्टि से क्या करना चाहिए ?, ऐसा विचार करना ही अंतर्मुखता है एवं अन्यों ने साधना स्वरूप क्या करना चाहिए ?, यह निरंतर देखना बहिर्मुखता है ।
८. ‘अपेक्षा करना’, इस अहं के पहलू पर विजय प्राप्त करने के लिए अल्प प्रयत्न होना
हमारी अपेक्षा अथवा मनानुसार न होने पर हमारे मन में तुरंत प्रतिक्रिया आती है । इ लिए हमारे मन की शांति एवं स्थिरता नष्ट होती है ।
अ. ‘प्रतिक्रिया आना’ दुर्बल मन का लक्षण है ।
आ. ईश्वर प्रीतिस्वरूप हैं । हमें देवत्व की दिशा में जाना हो, तो हममें भी प्रेमभाव एवं प्रीति के गुण बढाने चाहिए । साधकों से आत्मीयता बनानी चाहिए ।
इ. ‘निरपेक्षता’ स्थिति है । ‘समझदारी एवं परिस्थिति स्वीकारने के गुण बढने पर निरपेक्षता से व्यवहार कर पाते हैं ।
९. परिस्थिति न स्वीकारना
अ. साधक पारिवारिक एवं आर्थिक अडचनें तथा प्रकृति अस्वास्थ्य (शारीरिक बीमारी) में अटकते हैं । साधकों को उस पर उपाययोजना बनाकर साधना पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए तथा ईश्वर प्राप्ति कैसे कर सकते हैं, यह देखना आवश्यक है । इसे ईश्वर में अटकना अर्थात ईश्वर के आंतरिक सान्निध्य में रहना कह सकते हैं ।
आ. सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी कहते हैं, ‘परिस्थिति स्वीकारना’ सर्वोत्तम साधना है !’
इ. ईश्वरेच्छा से ही प्रत्येक प्रसंग घटता है । इसलिए उसे आनंद से स्वीकारना आवश्यक है । उससे प्रारब्ध घटता है, ऐसा दृष्टिकोण साधकों को रखना चाहिए ।
१०. पारिवारिक तथा माया के विचारों की मात्रा बढना
अ. अनेक साधकों के मन में आजकल माया के विचार आ रहे हैं । कुछ जनों को गृहस्थी की चिंता लगती है । कुछ लोगों को लगता है व्यवहार की ओर अधिक ध्यान देना चाहिए । कुछ लोग अनिष्ट शक्तियों की पीडा के कारण तथा कुछ लोग स्वभावदोषों के कारण माया की ओर खिंच रहे हैं, ऐसा ध्यान में आया है । साधक गुरुचरणों पर श्रद्धा रखकर इन विचारों पर विजय प्राप्त करें ।
आ. माया के विचार मायावी ही होते हैं । उनसे हमें शाश्वत आनंद कभी नहीं मिलेगा । साधना में टिके रहना आज के काल में अत्यंत आवश्यक है ।
इ. मन में आनेवाले विचार उत्तरदायी साधक अथवा संतों को मन खोलकर बताते समय साधकों की केवल बताने की भूमिका न हो, अपितु ऐसे विचारों पर विजय प्राप्त करने के लिए साधना के स्तरपर विचार कर कैसे प्रयत्न करने चाहिए ? यह जानने की भूमिका होनी चाहिए ।
ई. ‘साधकों का जन्म ईश्वरप्राप्ति के लिए है । माया में रमकर जीवन व्यर्थ करने के लिए नहीं’, यह ध्यान में रखकर ईश्वरप्राप्ति के लिए अधिक परिश्रम करें ।
११. स्वयं में परिवर्तन करने की तैयारी कम होना
अ. स्वयं को परिवर्तित करने के लिए ‘संघर्ष करना’, साधना का एक महत्त्वपूर्ण अंग है ।
आ. अपने क्रियमाण पर अर्थात प्रयत्नों पर तथा हममें ईश्वर के प्रति जो शरणागत भाव है, उसपर परिस्थिति अनूकूल अथवा प्रतिकूल निश्चित होती है । इसलिए साधकों को अपना क्रियमाण योग्य एवं साधना के लिए पूरक रखने के लिए प्रयत्न करने चाहिए ।
इ. जो कर सकते हैं, वह कोई भी कर सकता है । इसमें मन का संघर्ष नहीं होता; परंतु जो नहीं कर सकते, वह करने का प्रयत्न करना ही खरी साधना है । क्योंकि इसमें मन का संघर्ष होता है । इस संघर्ष से ही मन घडता है एवं आगे उसका मनोलय होकर साधना में प्रगति होती है ।
ई. वर्तमान काल प्रतिकूल है । अनुकूल परिस्थिति में साधना करने की अपेक्षा प्रतिकूल परिस्थिति में साधना करना यद्यपि कठिन होता है, तथापि इस काल में साधना करने का फल अधिक एवं शीघ्र मिलता है ।
उ. ‘संघर्ष किए बिना हमें कुछ नहीं मिलता’, इस सत्य का अनुभव हम व्यवहारिक जीवन में सदैव करते रहते हैं । इससे हम अनुमान लगा सकते हैं कि ईश्वरप्राप्ति के लिए हमें कितनी मात्रा में संघर्ष करना आवश्यक है ।
१२. सेवा एवं साधना का ब्यौरा मन खोलकर न देना
अ. साधक उनके मन के विचार उत्तरदायी साधक अथवा संतों को मन खोलकर बताएं । उनसे साधकों को साधना की दिशा मिलती है एवं साधक उसके अनुसार प्रयत्न करें तो उनकी साधना होती है ।
आ. जो उत्तरदायी साधक आध्यात्मिक दृष्टिकोण अच्छे से दे सकते हैं तथा साधना में सहायता करते हैं, उनके साथ साधकों को मन खोलकर तथा सीखने की स्थिति में रहकर बोलना चाहिए ।
इ. मन खोलकर बोलना अर्थात मन में जो विचार आते हैं, उन्हें बिना कुछ छिपाए बताना । ऐसा हमारा आत्मनिवेदन होना चाहिए ।
ई. साधकों को स्वयं की साधना के प्रति सदैव सतर्क रहना चाहिए । सेवा से साधना होने के लिए साधकों को उत्तरदायी साधक एवं धर्मप्रचारक संतों का मार्गदर्शन लेना, उन्हें समय समय पर साधना का ब्यौरा देना आदि प्रयत्न करने चाहिए । ‘उत्तरदायी साधक एवं संतों के माध्यम से गुरुदेव ही हमें बता रहे हैं, ऐसी साधकों की श्रद्धा होनी चाहिए ।’
– (सद्गुरु) सत्यवान कदम, सिंधुदुर्ग (१२.७.२०२३)