१. सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी द्वारा विशद अभिनव ‘अष्टांग साधना’!
‘सनातन संस्था के संस्थापक सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी ने व्यष्टि साधना के लिए (स्वयं की आध्यात्मिक उन्नति के लिए) अभिनव ‘अष्टांग साधना’ सनातन के साधकों को, साथ ही साधना विषय के ग्रंथों के माध्यम से समाज को भी बताई । इसके अनुसार यदि साधना करें, तो आध्यात्मिक उन्नति होती ही है । इस प्रकार साधना कर गत २० – २५ वर्षाें में सनातन के १२३ साधक संतपद पर विराजमान हुए एवं १,०८७ साधकों ने ६० प्रतिशत से अधिक आध्यात्मिक स्तर प्राप्त किया और वे भी संतत्व की दिशा में अग्रसर हो रहे हैं । (२५ मार्च २०२३ तक के आंकडे)
२. अष्टांग साधना का क्रम विशेषतापूर्ण होना
इस अष्टांग साधना में ८ चरण हैं – स्वभावदोष-निर्मूलन (एवं गुणसंवर्धन), अहं-निर्मूलन, नामजप, भावजागृति, सत्संग, सत्सेवा, त्याग एवं प्रीति । इसलिए उसे ‘अष्टांग साधना’ कहते है । ये चरण अर्थात ‘साधना में प्राथमिकता किसको दें एवं एकेक चरण पार करते हुए साधना में आगे कैसे जाएं ?’, इस क्रम से हैं । यह साधना का क्रम सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी ने विशद किया है, वह विशेषतापूर्ण है तथा वह पृथ्वी, आप, तेज, वायु एवं आकाश ये पंचमहाभूतों से संबंधित है ।
३. देह के पंचतत्त्वों में से एकेक तत्त्व चैतन्य के स्तर पर कार्यरत होकर वह प्रक्षेपित होने के लिए पूरक सिद्ध हुई अष्टांग साधना के चरण
जैसे-जैसे हम साधना में आगे-आगे उन्नति करते जाते हैं, वैसे-वैसे हममें स्थित पंचतत्त्वों में से एकेक तत्त्व चैतन्य के स्तर पर कार्यरत होकर वह प्रक्षेपित होने लगता है । इस प्रक्रिया के लिए अष्टांग साधना का कौनसा चरण कौनसे पंचतत्त्व के लिए पूरक है, यह निम्नांकित सारणी में दिया है ।
४. अष्टांग साधना का पंचतत्त्व जागृति का कार्य
४ अ. पृथ्वीतत्त्व की जागृति : मानव में जन्म-जन्म के संस्कार, साथ ही स्वभावदोष एवं अहं के पहलू होते हैं । स्वभावदोष-निर्मूलन (एवं गुणसंवर्धन) तथा अहं-निर्मूलन की प्रक्रिया क्रियान्वित करने से, साथ ही नामजप करने से शनैः-शनैः स्वभावदोष एवं अहं दूर होने लगते हैं । इस कारण देह की शुद्धि होने लगती है । अर्थात देह में विद्यमान पृथ्वीतत्त्व का जडत्व दूर होने लगता है तथा वह चैतन्य के स्तर पर कार्यरत होने लगता है । तब आध्यात्मिक स्तर ५० प्रतिशत से आगे जाने लगता है ।
४ आ. आपतत्त्व की जागृति : साधना के दूसरे स्तर में भावजागृति के लिए प्रयास करने से मानव में विद्यमान आपतत्त्व जागृत होने लगता है । कहा गया है कि ‘जहां भाव वहां
भगवान ।’ यदि भगवान को अनुभूत करना है, उनसे आंतरिक सान्निध्य बनाए रखना है, तो हममें भावनिर्मिति होनी चाहिए । भाव की नमी आपतत्त्व से संबंधित है । भाव जागृत होने लगे, तब आध्यात्मिक स्तर ६० प्रतिशत से आगे बढने लगता है ।
४ इ. तेजतत्त्व की जागृति : साधना के तीसरे स्तर पर सत्संग एवं सत्सेवा महत्त्वपूर्ण हैं । निरंतर सत् में रहने से माया का विस्मरण होने लगता है । इसलिए देह को निरंतर चैतन्य मिलता रहता है । चैतन्य अर्थात तेजतत्त्व । चैतन्य प्राप्त करने का अभ्यास होने पर, आध्यात्मिक स्तर ७० प्रतिशत से अधिक बढने लगता है, अर्थात ‘संतपद’ प्राप्त होता है ।
४ ई. वायुतत्त्व की जागृति : साधना के चौथे स्तर में त्याग महत्त्वपूर्ण है । जीवन में त्याग किए बिना कुछ भी नहीं मिलता । साधना में तन, मन एवं धन का त्याग करना पडता है । राष्ट्र एवं धर्म कार्य के लिए स्वयं को अर्पित करना, वह भी त्याग ही है । त्याग के कारण देहभान का विस्मरण होता है । इस कारण हलकापन आता है । हममें मृदुता आती है । यही स्वयं में विद्यमान वायुतत्त्व की हुई जागृति है ! यह होने लगे, तो आध्यात्मिक स्तर ८० प्रतिशत से आगे बढने लगता है, अर्थात ‘सद्गुरुपद’ मिलता है ।
४ उ. आकाशतत्त्व की जागृति : साधना में पांचवें एवं अंतिम स्तर पर प्रीति आत्मसात करनी पडती है । प्रीति अर्थात निरपेक्ष प्रेम । इस कारण सभी लोग अपने लगने लगते हैं । प्रीति के कारण आकाश के समान व्यापक दृष्टि आती है । हम सर्वांग से विचार करना सीखते हैं । ईश्वर अखिल ब्रह्मांड का कारोबार संभालते हैं । यही उनकी प्रीति है । यही है आकाशतत्त्व ! हममें प्रीति आने लगे, तो आध्याित्मक स्तर ९० प्रतिशत से आगे बढने लगता है, अर्थात ‘परात्पर गुरुपद’ आता है ।
इस प्रकार सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी द्वारा विशद अष्टांग साधना से सहजता से आध्यात्मिक उन्नति होकर ‘ईश्वरप्राप्ति’ का ध्येय प्राप्त कर सकते हैं ।’
– (सद्गुरु) डॉ. मुकुल गाडगीळ, पीएच.डी., महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय, गोवा.