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१. व्याख्या : ‘स्वभावदोष-निर्मूलन प्रक्रिया’ अर्थात स्वभावदोष दूर करने के लिए उचित पद्धति से एवं नियमित कार्यान्वित करने की प्रक्रिया.
२. महत्त्व
२ अ. सुखी एवं आदर्श जीवन जी पाना : स्वभावदोषों के कारण जीवन की असीमित हानि होती है । जीवन दुःखी एवं निराशाजनक बन जाता है । स्वभावदोष-निर्मूलन प्रक्रिया के कारण दोषों पर नियंत्रण पाकर गुणों का विकास होता है । इसलिए जीवन सुखी एवं आदर्श बन जाता है ।
२ आ. अनेक स्वभावदोषवाला व्यक्तित्व किसी को अच्छा लगेगा क्या ? : डरपोक होना, कम बोलना, अन्यों का विचार न करना आदि स्वभावदोष दूर करने से व्यक्तित्व का खरा विकास होता है । ऐसा दोषरहित व्यक्तित्व ही सामनेवाले व्यक्ति अथवा समाज में अपनी छाप छोड सकता है ।
२ इ. जीवन में कठिन प्रसंगों का सहजता से सामना कर पाना : अनेक बच्चों का कठिन प्रसंग में मानसिक संतुलन बिगड जाता है । प्रक्रिया के कारण मन एकाग्र एवं धैर्यवान बनने सहित विवेकबुद्धि भी जागृत होती है । अतः कठिन प्रसंग में भी स्थिर रह पाते हैं ।
२ ई. वर्तमान प्रतियोगिता के युग में आगे रह पाना : प्रक्रिया कार्यान्वित करने से मन की शक्ति का व्यय नहीं होता । व्यक्ति की कार्यक्षमता का पूर्ण उपयोग होकर प्रतियोगिता के युग में आगे रह पाते हैं ।
३. दोषों पर विजय प्राप्त करने के लिए प्रक्रिया कार्यान्वित करें !
३ अ. स्वयं के स्वभावदोषों की सूची बनाना
३ अ १. उद्दंडता, हठवादिता, सनकी होना, समय का पालन न करना, दूसरों को दोष देना, अव्यवस्थितता, आलस्य, एकाग्रता न होना, अपनी वस्तुएं दूसरों को न देना, झूठ बोलना, डरपोक होना, चिडचिडापन, क्रोधित होना आदि दोष बच्चों में हो सकते हैं । उनकी सूची बनाकर तीव्र दोषों का चयन करें ।
३ अ २. अपनी चूकें ढूंढें ! : दिनभर अपने से हुई चूकें स्वभावदोष-निर्मूलन सारणी में लिखें । दैनिक व्यवहार करते समय मेरी चूकें ढूंढनी हैं, ऐसा निश्चय कर सतर्र्कता रखने से अपनी अनेक चूकें ध्यान में आती हैं । कुछ चूकें अपने ध्यान में नहीं आती । इसलिए माता-पिता, भाई-बहन, मित्रों की सहायता लें ।
३ आ. ‘स्वसूचना’ क्या है ? : अपने से हुई अनुचित कृति, मन में आया अनुचित विचार एवं व्यक्त हुई अथवा मन में उभरी हुई अनुचित प्रतिक्रिया में परिवर्तन होकर वहां उचित कृति होने अथवा उचित प्रतिक्रिया उत्पन्न होने के लिए अपने अंतर्मन को उचित सूचना देनी पडती है । उसे ‘स्वसूचना’ कहते हैं । १ सूचना मन में ५ बार बोलनी चाहिए । इस प्रकार दिनभर में ५ सत्र करें ।
(संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘स्वभावदोष दूर कर आनंदी बनें !’)