‘सुखी जीवन एवं उत्तम साधना हेतु स्वभावदोष-निर्मूलन एवं गुणसंवर्धन’ प्रक्रिया महत्त्वपूर्ण !

सुखी जीवनयापन में ‘स्वभावदोष’ बडी बाधा

‘मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः ।’ इस वचन के अनुसार ‘मन ही मनुष्य के बंधन का (जन्म-मृत्यु के चक्र में उलझने का) एवं मोक्ष का (जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर सुख-दुःख के परे के आनन्द एवं शान्ति की नित्य अनुभूति प्राप्त होने का) कारण है ।’ व्यक्तित्व के स्वभावदोष, व्यक्ति के दुःख का; जबकि गुण, व्यक्ति के सुख का कारण होते हैं । दैनिक जीवन के विविध प्रसंगों में हमसे होनेवाले आचरण से हमारे गुण-दोष ज्ञात होते हैं । स्वभावदोषों के कारण जीवन में पग-पग पर संघर्ष एवं तनाव की स्थिति उत्पन्न होती है । अनेक बार जीवन में तनाव निर्माण होने पर उसके लिए आसपास के वातावरण, परिस्थिति तथा अन्य व्यक्तियों के स्वभावदोषों को उत्तरदायी माना जाता है; किन्तु उसका मूल कारण, अर्थात स्वयं के स्वभावदोषों को ढूंढने का प्रयास ही नहीं किया जाता, जिसके कारण स्वभावदोष वैसे ही बने रहते हैं । परिणामत: मनको शांति नहीं मिलती । अतएव जीवन सुखी होने के लिए स्वभावदोषों की बाधा दूर करना अनिवार्य है ।

आदर्श व्यक्तित्व विकसित करने की आवश्यकता

जीवन के किसी भी कठिन प्रसंग में मानसिक संतुलन खोए बिना, प्रसंग का धैर्यपूर्वक सामना कर पाने तथा सदैव आदर्श कृति होने हेतु व्यक्ति का मनोबल उत्तम एवं व्यक्तित्व आदर्श होना आवश्यक है । स्वभावदोष व्यक्ति का मन दुर्बल करते हैं, जबकि गुण आदर्श व्यक्तित्व विकसित करने में सहायक होते हैं । इसीलिए आदर्श व्यक्तित्व विकसित करने हेतु, व्यक्तित्व के स्वभावदोषों का निर्मूलन कर गुणसंवर्धन करना आवश्यक है ।

स्वभावदोष आध्यात्मिक उन्नति में भी बाधक

ईश्वरप्राप्ति के प्रयासों में, अर्थात साधना में भी स्वभावदोष (षड्रिपु) प्रमुख बाधा है । काम-क्रोधादि षड्रिपुओं के प्रभाव से अनेक महान तपस्वी मुनिश्रेष्ठों का एवं पुण्यवान राजाओं का परमार्थपथ से पतन हुआ, ऐसे अनेक उदाहरण पुराणों की कथाओं में पाए जाते हैं । स्वभावदोषों के माध्यम से षड्रिपुओं का प्रकटीकरण होता है । साधना से प्राप्त ऊर्जा, स्वभावदोषों के कारण होनेवाली चूकों से खर्च हो जाती है । स्वभावदोष जितने अधिक होंगे, उतनी ही व्यष्टि एवं समष्टि साधना में होनेवाली चूकें अधिक होंगी और जितनी चूकें अधिक, उतना ही हम ईश्वर से दूर जाते हैं । जिस प्रकार जल पर काई की सतह जमने पर सूर्य की प्रकाशकिरण जल की तली तक नहीं पहुंच पाती, उसी प्रकार स्वभावदोषों से, ईश्वरीय चैतन्य ग्रहण न कर पाने के कारण, साधक ईश्वरीय कृपा से वंचित रहता है । सच्चिदानन्दमय ईश्वर से एकरूप होना, किसी भी योगमार्ग के अनुसार साधना करनेवाले साधक का ध्येय होता है । जिस प्रकार तेल की एक बूंद, अपने गुणधर्म की भिन्नता के कारण जल से एकरूप नहीं हो सकती; उसी प्रकार स्वभावदोषों का निर्मूलन एवं गुणोंका संवर्धन किए बिना, साधक दोष रहित एवं सर्वगुण संपन्न ईश्वर से एकरूप नहीं हो सकता ।

साधना के साथ स्वभावदोष-निर्मूलन के प्रयास करना आवश्यक

साधना का उद्देश्य ही षड्रिपुओं का निर्मूलन करना है, अर्थात ‘सर्व प्रकार की क्रिया-प्रतिक्रियाओं पर नियंत्रण प्राप्त करना है ।’ तब भी स्वभावदोष अर्थात चित्त में विद्यमान जन्म-जन्म के संस्कार इतनी गहराई तक पहुंच चुके होते हैं कि साधना द्वारा उनका शीघ्र निर्मूलन सहज सम्भव नहीं होता । साधना द्वारा आध्यात्मिक उन्नति कर मनोलय एवं बुद्धिलय होने तक, अर्थात चित्त के सभी संस्कार समाप्त होने तक मन एवं बुद्धि कार्यरत रहती है । अत: स्वभावदोष भी जागृत रहते हैं । मन में आनेवाले नकारात्मक विचार एवं विकल्पों के कारण साधना से आनन्दप्राप्ति नहीं होती, अत: ‘साधना द्वारा स्वभावदोष अपनेआप नष्ट होंगे’, ऐसा विचार न कर स्वभावदोष-निर्मूलन के लिए सोच-समझकर प्रयास करना अपरिहार्य है ।

संदर्भ – सनातन का ग्रंथ ‘स्वभावदोष (षड्रिपु)-निर्मूलनका महत्त्व एवं गुणसंवर्धन प्रक्रिया’