‘स्वयं को महत्त्व मिलना चाहिए’, ऐसा लगना’, इस अहं के पहलू के कारण ‘सहसाधक मेरा नहीं सुनते अथवा उत्तरदायी साधक मेरे मत के संदर्भ में विचार नहीं करते’, कुछ साधकों को ऐसा लगता है एवं उनकी नकारात्मकता में वृद्धि होती है । अहं के इन विचारों के कारण साधकों पर ‘सेवा करते समय स्वयं पर मर्यादा रखना, सेवा में मनःपूर्वक सहभागी न होना, दायित्व लेकर सेवा करने की इच्छा न होना’, ऐसे परिणाम होते हैं, ऐसा ध्यान में आता है ।
साधना में स्वभावदोष एवं अहं के निर्मूलन की प्रक्रिया को अनन्यसाधारण महत्त्व है । ‘साधना में हमारे मन की विचारप्रक्रिया उचित दिशा में हो रही है न ?’, इसका अंतर्मुखता से चिंतन करना आवश्यक होता है ।
१. मन की शंकाएं उत्तरदायी साधकों से पूछना
२. उनके द्वारा बताई गई व्यष्टि एवं समष्टि साधना के प्रयास सुनना
३. उनके द्वारा दिया हुआ निर्णय मनःपूर्वक स्वीकारना
४. ‘गुरु हमें किस प्रकार अंतर्मुख कर रहे हैं ?’, यह सीखना
५. प्रयासों का ब्योरा देना
इस पंचसूत्री के अनुसार श्रद्धापूर्वक साधना के प्रयास करने से अंतर्मुखता निर्माण होकर साधक की आध्यात्मिक प्रगति होती है ।
साधकों द्वारा स्वभावदोष एवं अहं के निर्मूलन के लिए व्यष्टि साधना के प्रयत्न नियमित तथा गांभीर्यपूर्वक कर समय रहते ही अनुचित विचारों पर जीत मिले, साथ ही अंतर्मुखता निर्माण होने के लिए उत्तरदायी साधकों से संवाद साध्य कर स्वसूचना दें ।
साधको, स्वभावदोष एवं अहं के निर्मूलन के लिए सतर्कता से एवं लगन से प्रयास कर आध्यात्मिक प्रगति की ओर अग्रसर हों !’
– श्रीसत्शक्ति (श्रीमती) बिंदा सिंगबाळ, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (२६.२.२०२३)