परिजनों में अनबन होना अथवा न होना; उनके स्वभावदोष, अहं, पूर्वजों के कष्ट आदि प्रारब्ध पर निर्भर होना
परिजनों में अनबन होना अथवा न होना, उनके स्वभावदोष, अहं, पूर्वजों के कष्ट आदि प्रारब्ध पर निर्भर होने के कारण साधकों को स्थिर रहकर साधना करना आवश्यक
परिजनों में अनबन होना अथवा न होना, उनके स्वभावदोष, अहं, पूर्वजों के कष्ट आदि प्रारब्ध पर निर्भर होने के कारण साधकों को स्थिर रहकर साधना करना आवश्यक
‘भारतीय संस्कृति संस्कारों पर आधारित है; परंतु आज के कलियुग में नैतिक मूल्यों का पतन होने से संस्कार-मूल्य भी समाप्त हो चुके हैं । इसका परिणाम युवा पीढी पर दिखाई देता है । उसके कारण ‘उनका भविष्य संकट में है’, ऐसा कहना अनुचित नहीं है ।
बंगाल की दैवी युवा साधिका तथा डॉ. (कु.) श्रिया साहा ने एक ही समय पर चिकित्सकीय अध्ययन एवं साधना के प्रयास किए । उन्होंने चर्मरोग विशेषज्ञ की (एम.डी. डर्मेटोलॉजी) शिक्षा ली है, साथ ही साधना में प्रगति कर ६२ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर प्राप्त किया है ।
‘मनुष्य के जीवन में आनेवाली ८० प्रतिशत समस्याओं के पीछे प्रारब्ध, अतृप्त पूर्वजों के लिंगदेह से कष्ट, अनिष्ट शक्तियों के कष्ट इत्यादि आध्यात्मिक कारण होते हैं ।’
हमारे द्वारा की हुई प्रत्येक कृति एवं उसके पीछे की विचारप्रक्रिया ईश्वर को अपेक्षित होने हेतु व्यष्टि साधना के ब्योरे होते हैं और हमारी आनंदयात्रा आरंभ होती है ।
‘आश्रम में रहकर पूर्णकालीन साधना करनेवाले एक साधक ने उसे हो रहे आध्यात्मिक कष्टों के कारण घर जाने का विचार किया । श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली मुकुल गाडगीळजी को उसने यह बताया ।
‘प.पू. डॉक्टरजी ने एक साधिका को बताया था कि आध्यात्मिक उन्नति २० वर्ष उपरांत होगी । उसके उपरांत उत्तरदायी साधकों ने उसकी सहायता करने के लिए न जाने कितने प्रयास किए; परंतु तब भी उसमें साधना के संदर्भ में किसी प्रकार का भान उत्पन्न नहीं हो रहा था ।
‘गुरुकृपायोगानुसार साधना में ‘स्वभावदोष-निर्मूलन, अहं-निर्मूलन, नामजप, सत्संग, सत्सेवा, भक्तिभाव, सत् के लिए त्याग एवं अन्यों के प्रति प्रीति (निरपेक्ष प्रेम)’ इस अष्टांग साधना के अनुसार साधना करते समय साधकों की शीघ्र आध्यात्मिक उन्नति होती है ।
‘साधना में मन के स्तर पर होनेवाली अनुचित विचार-प्रक्रिया अधिक बाधक होती है । अंतर्मुखता के अभाव के कारण साधक को अपनी चूकें समझ में नहीं आतीं तथा वे चूकें मन के स्तर की चूकें होने के कारण अन्यों के ध्यान में भी नहीं आतीं ।
संगणकीय सेवा करनेवाले कुछ साधकों को स्वच्छता सेवा अथवा रसोईघर से संबंधित सेवाएं कनिष्ठ स्तर की लगती हैं । उसके कारण वे शूद्र वर्ण की इन सेवाओं को करने में टालमटोल करते हैं ।