‘भारतीय संस्कृति संस्कारों पर आधारित है; परंतु आज के कलियुग में नैतिक मूल्यों का पतन होने से संस्कार-मूल्य भी समाप्त हो चुके हैं । इसका परिणाम युवा पीढी पर दिखाई देता है । उसके कारण ‘उनका भविष्य संकट में है’, ऐसा कहना अनुचित नहीं है । अब ‘ये जीवन-मूल्य एवं संस्कार मिलें भी तो कहां ? उस दृष्टि से इस युवा वर्ग को दिशा कौन देगा ?’, इसका उत्तर है सनातन संस्था के आश्रम ! सनातन संस्था के आश्रमों में तथा धर्मप्रसार के कार्य में अनेक युवक-युवतियां दायित्व लेकर सेवारत हैं । सनातन संस्था के आश्रम तो साधक युवक-युवतियों को तैयार करनेवाला विद्यालय ही है । आश्रमों में युवा पीढी को दिए जानेवाले संस्कारों तथा उनके द्वारा किए जानेवाले कार्याें के कारण वे सभी स्तरों पर सक्षम बन रहे हैं । ‘सनातन के आश्रमों में युवा पीढी किस प्रकार तैयार होती है ?’, यहां इसका शब्द-चित्रण किया गया है, जिससे सभी को दिशा मिलेगी ।
१. युवा साधकों द्वारा वयोवृद्ध एवं बीमार साधकों की प्रेमपूर्वक तथा अपनेपन से सेवा करना
सनातन के आश्रमों में सभी आयुवर्ग के साधक रहते हैं । युवा साधक वयोवृद्ध अथवा बीमार साधकों के अधिकांश कार्याें में सहायता करते हैं, उदा. उनके वस्त्र धोना एवं उन वस्त्रों को इस्त्री करना, उन्हें प्रसाद-महाप्रसाद परोसना, संबंधित वयस्क साधकों का कक्ष स्वच्छ करना इत्यादि । बिछौने पर लेटकर रहनेवाले वयोवृद्ध साधकों की सभी प्रकार की सेवा करने में युवा साधक आगे होते हैं । वास्तव में देखा जाए, तो इन वयोवृद्ध अथवा बीमार साधकों का युवा साधकों के साथ किसी प्रकार का व्यावहारिक संबंध नहीं होता; परंतु तब भी केवल साधना के रूप में तथा ‘साधक’ होने के कारण वे उनकी सभी सेवाएं संतोष एवं आनंद के साथ करते हैं । इससे आश्रम के युवा साधकों को ‘आयु में बडे, साथ ही वृद्ध साधकों के साथ किस प्रकार व्यवहार करना चाहिए ?’, इसके संस्कार अपनेआप ही मिलते हैं । साधना से अंतर्भूत संस्कारों से ही इस सेवाभाव की प्रतीति होती है ।
१ अ. आज के समय में समाज में घर के वयोवृद्ध व्यक्तियों अथवा बीमार संबंधियों की ओर आत्मीयता एवं प्रेमपूर्वक ध्यान न दिया जाना : आज के समय में देखा जाए, तो समाज में कोई भी व्यक्ति घर के वयोवृद्ध अथवा बीमार संबंधी की ओर आत्मीयता से अथवा प्रेमपूर्वक ध्यान नहीं देते । इसके लिए उन्हें वृद्धाश्रम भेजने का शीर्ष का तथा प्रेम को समाप्त करनेवाला विकल्प चुना जाता है अथवा घर में कोई नौकर अथवा कामवाली महिला रखकर बीमार अथवा वृद्ध व्यक्ति की सेवा करवाई जाती है । इसमें प्रेम की नमी एवं उष्णता कहां से आएगी ? उसके कारण दिखाई देती है केवल तात्कालिकता ! ऐसा करने पर भी उनके साथ होनेवाला विवाद तो एक अलग ही विषय है । समाज के संबंधों में दिखाई न देनेवाला यह ममत्व केवल सनातन के आश्रमों में ही दिखाई देता है, जो साधना का परिणाम है ।
२. आश्रम में आनंद के साथ शारीरिक सेवा करने से घर जाने पर भी युवा साधकों को उसका लाभ मिलना
आश्रम में शारीरिक सेवाएं भी उपलब्ध होती हैं । युवा साधकों का उनमें भी विशेष सहभाग होता है । प्रत्येक साधक को वह जहां सेवा करता है, उस स्थान की प्रतिदिन की स्वच्छता की सेवा निर्धारित की हुई होती है । उसके साथ ही ये युवा साधक आश्रम के अन्य स्थानों की स्वच्छता की भी सेवा करते हैं । सेवाओं में रुचि-अरुचि का विचार किए बिना कचरा निकालने से लेकर रसोई बनाने तक की सभी सेवाएं युवा साधक करते हैं । ‘सनातन का प्रत्येक साधक आत्मनिर्भर होना चाहिए’, परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का यह दृष्टिकोण होने से साधक उनकी आज्ञा का पालन करते हैं । छोटे-छोटे कृत्य करने की आदत होने से अन्य स्थानों पर अथवा कुछ अवधि के लिए घर जाने पर भी किसी को उसमें समस्या न आकर लाभ ही होता है । घर गए कुछ युवा साधक अपने परिजनों को आश्रम की भांति कुछ खाद्य पदार्थ बनाकर खिलाते हैं ।
३. वर्तमान समय में जहां समाज के अधिकांश युवक-युवतियां मनोरंजन में अपना समय व्यर्थ गंवा रहे हैं । ऐसे में आश्रम के युवकों के समय का सदुपयोग होने के लिए उनके द्वारा पूरे दिन की सेवाओं एवं साधना का नियोजन किया जाना
आश्रम में पूर्णकालीन सेवारत होने से प्रतिदिन के व्यक्तिगत कार्य, सेवाएं एवं व्यष्टि साधना निर्धारित समय में पूर्ण हों तथा उससे साधकों के समय का सदुपयोग हो; इस उद्देश्य से पूरे दिन के समय का नियोजन किया जाता है । दायित्व लेनेवाले साधक उस नियोजन की पडताल कर उसमें आवश्यक परिवर्तन बताते हैं । इससे ‘समय का अचूक उपयोग कैसे करना चाहिए ?’, साधक यह सीखता है । आज के समय में समाज में विचरण करनेवाले अधिकांश युवक-युवतियां चल दूरभाष, फिल्म, मनोरंजन, घूमने जाना आदि में समय गंवाते हैं । राष्ट्र एवं धर्म के लिए कार्य करना तो दूर ही रहा; अपितु स्वयं का भी सुनियोजन न कर पाने के कारण आज की युवा पीढी व्यर्थ जा रही है । इसके विपरीत आश्रम में युवा साधकों को सेवा एवं साधना करने में २४ घंटे भी अपर्याप्त हो रहे हैं । उनके समय का सदुपयोग होकर समय सार्थक भी हो रहा है । इसका अर्थ यही है कि इससे ‘उनका जीवन भी सार्थक हो रहा है’, ऐसा कहा जा सकता है ।
४. खाद्यपदार्थाें के संदर्भ में युवा साधक
मोह अथवा अपेक्षा रखे बिना खाद्यपदार्थ ग्रहण करने से त्याग में समाहित आनंद अनुभव कर पाना आश्रम में त्योहारों के दिन अथवा किसी कारणवश विशेष पदार्थ अथवा मीठा पदार्थ बनाया जाता है । साधकों की संख्या अधिक होने से सभी को उसकी आपूर्ति करना आवश्यक होता है । इसके लिए कभी-कभी पदार्थ के सामने ‘एक चम्मच लेना’ इस प्रकार की सूचना लगाई जाती है । युवा साधक उस पदार्थ के प्रति किसी प्रकार का मोह अथवा अपेक्षा न रखकर उसे बताई गई मात्रा में ही ग्रहण करते हैं । आवश्यकता पडने पर कोई पदार्थ सहसाधक को प्रिय हो, तो कोई साधक उसे स्वयं न खाकर (त्याग कर) उसे खाने के लिए दे देते हैं । युवकों के लिए प्रिय खाद्य पदार्थ का त्याग करना वास्तव में बहुत कठिन होता है; परंतु वे ऐसा कर उसमें समाहित आनंद प्राप्त कर रहे हैं, यह विशेष बात है । बाहर के युवकों को देखा जाए, तो ‘यह जीवन खाने के लिए ही है’, यह उनकी मानसिकता दिखाई देती है । ‘आज कौन सा पदार्थ खाऊं ?’, ‘कल किस होटल में जाकर किस पदार्थ का आनंद लूं ?’, यही विचार अनेक लोग करते हैं ।
५. निर्मलता से चूकें बताना
‘हमें यदि ईश्वर तक पहुंचना है, तो हमें उनके जैसा परिपूर्ण बनना पडेगा’, इसके लिए सनातन संस्था में स्वभावदोष एवं अहं निर्मूलन प्रक्रिया बताई जाती है । उसके अंतर्गत युवा साधक सेवा एवं व्यष्टि साधना करते समय उनसे जो चूकें होती हैं, उन्हें वे निर्मलता से बताते हैं । बताते समय वे उसके पीछे की विचार प्रक्रिया तथा उस समय ‘स्वभावदोष एवं अहं का कौन सा भाग प्रकट हुआ था ?’ इसका भी विश्लेषण करके बताते हैं ।
उस समय उनकी बातों में विनम्रता एवं मृदुलता झलकती है । व्यावहारिक जगत में उद्दंडतापूर्ण आचरण करनेवाले, बडों का सम्मान न करनेवाले तथा झूठ बोलनेवाले युवक ही अधिक संख्या में दिखाई देते हैं । न तो वे सुसंस्कृत होते हैं, न ही उनमें किसी के प्रति आदर होता है तथा न वे किसी को महत्त्व देते हैं; परंतु उनकी तुलना में सनातन के आश्रमों में रहनेवाले तथा धर्मप्रसार का कार्य करनेवाले युवा साधकों का आचरण निश्चित ही आदर्श है ।
६. राष्ट्र-धर्म कार्य में युवाओं का बडा योगदान !
आज के युवक नौकरी-व्यवसाय एवं अर्थार्जन के लिए देश-विदेश जाते हैं अथवा कुछ लोग दूर के राज्यों में जाते हैं । इसके विपरीत सनातन संस्था में कार्यरत युवक राष्ट्र एवं धर्म के कार्य की तडप से प्रेरित होकर देश के दूर के राज्यों में जाते हैं तथा वहां की परिस्थिति को स्वीकार कर समर्पित होकर कार्य करते हैं । इसमें किसी प्रकार का स्वार्थ छिपा नहीं होता । सनातन संस्था का प्रत्येक युवा साधक निस्वार्थ है ।
७. केवल साधना के लिए चल दूरभाष का उपयोग करना
युवा साधक अच्छे कार्यों के लिए चल दूरभाष का उपयोग करते हैं । उनमें अपनी-अपनी सेवाओं का नियोजन करना, ऑनलाइन सत्संग सुनना, सत्संगों की लिंक अन्यों को ‘शेयर’ करना, व्यष्टि ब्योरा देना-लेना अथवा कोई महत्त्वपूर्ण सेवा अथवा साधना के सूत्र ध्यान में आने के लिए गजर (अलार्म) लगाना इत्यादि । आश्रम के साधक फिल्म अथवा वीडियो चलाने में अनावश्यक समय व्यर्थ नहीं गंवाते । समाज के युवाओं में ये बातें दिखाई नहीं देंगी । इसीलिए बाहर सर्वत्र मोहमाया का प्रचुर प्रभाव होते हुए भी उसकी ओर आकर्षित न होकर ‘साधना’ को सर्वस्व माननेवाली सनातन की युवा पीढी सद्गुरुओं, संतों, हिन्दुत्वनिष्ठों तथा समाज के मान्यवरों की प्रशंसा की पात्र होती है ।
८. सेवाओं के माध्यम से व्यावहारिक दृष्टि से तैयार होना
युवा साधक स्वयं की विभिन्न सेवाओं में कौशल प्राप्त करते हैं । मुद्रित-शोधन, पृष्ठों की संरचना (फॉरमेटिंग) करना, ग्रंथ-संकलन, ध्वनि-चित्रीकरण, जालस्थल विकसित करना इत्यादि सेवाओं में ये साधक अल्पावधि में ही निपुणता प्राप्त कर लेते हैं । यह सब करते हुए वे केवल साधना की दृष्टि से ही नहीं, अपितु व्यावहारिक दृष्टि से भी तैयार होते हैं । पूर्णकालीन सेवा करनेवाले कुछ युवा साधकों की आर्थिक स्थिति दुर्बल होने से उन्हें अकस्मात नौकरी करनी पडे, तब भी वे यहां आत्मसात गुणों के बल पर अपने कौशल का परिचय देते हैं ।
९. अभिभावकों का आदर्श आचरण
आश्रम के किशोर आयुवाले एवं बालसाधकों से कुछ चूकें हुईं, तो उनके अभिभावक उन्हें साधकों के पास ले जाकर उन्हें कान पकडकर क्षमायाचना करने के लिए कहते हैं । उसके कारण चूक होने पर अज्ञानवश ही वे क्षमा मांगने का संस्कार विकसित कर लेते हैं ।
प्रार्थना : युवा साधकों की दृष्टि से उनकी साधनारूपी यात्रा में आश्रमजीवन का अमूल्य योगदान है । आश्रम में रहकर प्रतिदिन मिलनेवाली साधना की सीख व्यक्तित्व के विकास में भी उतनी ही लाभकारी सिद्ध होती है । ‘इस लेख द्वारा जनमानस में बसी आश्रम के प्रति अनुचित धारणा दूर होकर उन्हें साधना का महत्त्व समझ में आए तथा अधिकाधिक युवक साधना पथ पर अग्रसर होकर अपने जीवन का उद्धार करें’, यह ईश्वर के चरणों में प्रार्थना है !’
– श्री. यज्ञेश सावंत, सनातन आश्रम, देवद, पनवेल, महाराष्ट्र. (१३.६.२०२२)