चिकित्सकीय अध्ययन एवं साधना, इन दोनों में सफलता प्राप्त करनेवाली सनातन की युवा साधिका डॉ. (कु.) श्रिया साहा !

बंगाल की दैवी युवा साधिका तथा डॉ. (कु.) श्रिया साहा ने एक ही समय पर चिकित्सकीय अध्ययन एवं साधना के प्रयास किए । उन्होंने चर्मरोग विशेषज्ञ की (एम.डी. डर्मेटोलॉजी) शिक्षा ली है, साथ ही साधना में प्रगति कर ६२ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर प्राप्त किया है । उन्होंने ‘स्पिरिच्युअल साइंस रिसर्च फाउंडेशन’ के एक वीडियो में अपनी साधनायात्रा बताई है । यह उस वीडियो के संपादित अंश का लेख है । इससे दैवी बालकों की बचपन से चलनेवाली साधना की यात्रा, उनका आचरण, साधना एवं अध्ययन के मेलजोल आदि से उनके परिपक्व विचार ध्यान में आते हैं ।

डॉ. (कु.) श्रिया साहा

१. बचपन से ही शांत प्रकृति

मैं बचपन से ही सभी से मिल-जुलकर रहती थी । कभी किसी के साथ मेरा झगडा अथवा चिडचिड नहीं हुई । केवल विद्यालयीन अध्ययन न कर शिक्षा के साथ मैंने विभिन्न रुचियां भी विकसित कीं । मैं घर के कार्य में माता-पिता की सहायता करती थी । पिता की सरकारी नौकरी होने से बार-बार उनका स्थानांतरण (ट्रांस्फर) होता रहता था । नए स्थान पर नई सहेलियां होने पर भी मुझे उनसे मेल रखने में कभी कोई समस्या नहीं आई । बचपन से ही अनावश्यक बोलना, साथ ही अन्यों की आलोचना करना, ऐसा नहीं किया ।

२. माता-पिता से अनुशासन के संस्कार मिलना

पहले से ही बाहर खाना, अधिक मात्रा में दूरदर्शन (टीवी) के कार्यकम देखना, घूमने के लिए जाना आदि टालती थी । मांसाहार करने पर मुझे सिर एवं शरीर भारी होने जैसे कष्ट होते थे । उसके कारण मांसाहार का सेवन बंद हो गया ।

३. परीक्षाओं का तनाव न लेना

चिकित्सकीय पाठ्यक्रम की परीक्षाओं के समय घर का वातावरण सामान्य होने से तथा मुझसे माता-पिता की विशेष अपेक्षाएं न होने से मुझे किसी भी परीक्षा का तनाव नहीं आया । मेरी परीक्षा कब होती थी और कब मैं पेपर लिखकर उत्तीर्ण होती थी, घर में यह पता भी नहीं चलता था । चिकित्सकीय स्नातक परीक्षा (एम.बी.बी.एस.) के अंतिम वर्ष में मेरे वर्ग में मुझे पहला स्थान मिला, साथ ही नीट (एनआइआइटी) जैसी स्पर्धात्मक परीक्षा में भी अच्छे अंक प्राप्त होकर मुझे स्नातकोत्तर अध्ययन के लिए प्रवेश मिला, यह सब प.पू. गुरुदेवजी की (सच्चिदानंद परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की) कृपा है ।

४. ‘भगवान से कुछ मांगना नहीं चाहिए’, ऐसा लगना

मंदिर जाने पर अथवा भगवान से प्रार्थना करते समय ‘परीक्षा में मुझे अधिक अंक मिलें’, ‘मैं अच्छे अंकों के साथ उत्तीर्ण हो जाऊं’, ऐसी प्रार्थना करनी चाहिए, ऐसा कभी नहीं लगा । भगवान जो भी देंगे, वह मेरे हित में ही होगा । भगवान से कुछ मांगकर मैं भगवान के नियोजन में बाधा उत्पन्न कर रही हूं’, ऐसा मुझे लगता था । जो कुछ भी मुझे मिलेगा, उससे संतुष्ट होने की वृत्ति मुझमे आरंभ से थी ।

५. स्वयं पर महाविद्यालयीन वातावरण का परिणाम न होने देना

महाविद्यालय में भी मैं शांत प्रकृति की थी । महाविद्यालय में मित्र एवं सहेलियों के साथ रहते समय वे मुझसे बातें करना टालते थे अथवा मुझे उनमें सम्मिलित नहीं करते थे, उस समय मैं श्रीकृष्ण से प्रार्थना करती थी । तब मेरे ध्यान में आता था कि मेरे लिए ‘श्रीकृष्ण एवं प.पू. गुरुदेवजी के अतिरिक्त अन्य कोई आधार नहीं है । उसके कारण धीरे-धीरे माया का आकर्षण अल्प होकर भगवान की ओर मेरा झुकाव बढा । मेरे महाविद्यालयीन जीवन के सभी दिन अच्छे ही थे, ऐसा नहीं था । मेरे उस जीवन में अनेक उतार-चढाव आए; परंतु भगवान की कृपा से मैं उनसे बाहर निकल पाई ।

६. अनावश्यक वस्त्र अथवा सामग्री क्रय न करना

मेरे माता-पिता जब भी मुझे हाट (बाजार) ले जाते थे, उस समय मैंने कभी भी उनसे मेरे लिए वस्त्र एवं अन्य सामग्री लेने का हठ नहीं किया । वे मुझसे पूछते थे कि ‘क्या तुम्हें यह चाहिए ?’; परंतु मुझे लगता था कि वे वस्तुएं, वस्त्र एवं अन्य सामग्री मेरे पास पहले से ही हैं, तथा मैं उन वस्तुओं को लेना टाल देती थी । मेरे पास हस्तकला की जो सामग्री थी, उसे मैं संभालकर रखती थी तथा किसी को कोई उपहार देना हो, तो उन उपलब्ध वस्तुओं से ही कोई कलाकृति बनाकर उन्हें उपहार के रूप में देती थी । मितव्ययता से रहने की आदत मुझमें आरंभ से ही थी ।

७. प्रत्येक काम से आनंद प्राप्त करना

मैं जो कुछ भी काम करूं, वह अच्छे ढंग से करूं; मेरा ऐसा प्रयास रहता था । उसमें लेखन करते समय दो शब्दों में उचित दूरी रखना, पंक्तियां तैयार करते समय उन्हें ठीक से तैयार करना, सब्जी काटते समय एक ही आकार के टुकडे करना, सात्त्विक वस्त्र धारण करना जैसे कार्य मुझे बडी सहजता से संभव होते थे । मुझे संगणकीय प्रणाली का उपयोग कर कलाकृति बनाने जैसे नए कौशलपूर्ण कार्य करने में रुचि थी ।

८. साधना एवं सेवा के प्रयास बढाने पर

आनंद में वृद्धि होना तथा आध्यात्मिक प्रगति होना मेरे माता-पिता से साधना ज्ञात होने पर जब मैंने नामजप सहित सेवा में अपना सहभाग बढाया, उससे मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि ‘मेरे आनंद में वृद्धि हो रही है ।’ मैंने जब सेवा के लिए अधिक समय देना आरंभ किया, तब आनंद में भी अधिक वृद्धि हुई तथा उसी अवधि में मेरा आध्यात्मिक स्तर ६१ प्रतिशत होने की घोषणा की गई ।

– डॉ. (कु.) श्रिया साहा (एम.डी.), बंगाल