‘साधना में टिके रहना’ ही साधना की परीक्षा है !
‘साधना में टिके रहना ही साधका की परीक्षा है’, इसे गंभीरतापूर्वक समझकर साधकों को ऐसे विचारों पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है । इस संदर्भ में निम्नांकित कुछ दृष्टिकोण उपयोगाी सिद्ध होंगे ।
‘साधना में टिके रहना ही साधका की परीक्षा है’, इसे गंभीरतापूर्वक समझकर साधकों को ऐसे विचारों पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है । इस संदर्भ में निम्नांकित कुछ दृष्टिकोण उपयोगाी सिद्ध होंगे ।
‘कुछ साधकों को जागृतावस्था में विभिन्न दृश्य दिखाई देते हैं तथा पूर्वसूचनाएं मिलती हैं । उनमें कुछ दृश्य अच्छे, तो कुछ अनिष्ट गतिविधियों से संबंधित होते हैं । इसमें साधक ‘अनिष्ट शक्तियां ऐसे दृश्य दिखा रही हैं अथवा पूर्वसूचनाएं दे रही हैं’, यह विचार कर उसकी अनदेखी न करें ।
‘ईश्वर सर्वज्ञानी हैं । हमें उनके साथ एकरूप होना है । इसलिए हमारा निरंतर सीखने की स्थिति में रहना आवश्यक है । किसी भी क्षेत्र में ज्ञान अर्जित करना, यह कभी भी समाप्त न होनेवाली प्रक्रिया है । अध्यात्म तो अनंत का शास्त्र है ।
‘तुलसी के पौधे अनेक स्थानों पर पाए जाते हैं । इन पौधों की ओर देखने के पश्चात हम प्रसन्न होते है; किंतु तुलसी के पौधे से निरंतर प्राणवायु तथा विष्णुतत्त्वमय चैतन्य की लहरें प्रक्षेपित होती हैं । इस प्रकार रामनाथी सनातन आश्रम में रहनेवाले संत पू. भगवंत कुमार मेनराय के निवास कक्ष में एक गमले में यह पौधा अच्छी तरह से फला फूला दिखाई दिया ।
हनुमानजी ने व्यष्टि साधना के अर्थात रामभक्ति के बल पर रामराज्य की स्थापना करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई । यह ध्यान में रखकर हिन्दू राष्ट्र की स्थापना हेतु प्रयास करनेवालों को व्यष्टि साधना भी मन लगाकर करनी चाहिए ।’
परिजनों में अनबन होना अथवा न होना, उनके स्वभावदोष, अहं, पूर्वजों के कष्ट आदि प्रारब्ध पर निर्भर होने के कारण साधकों को स्थिर रहकर साधना करना आवश्यक
‘भारतीय संस्कृति संस्कारों पर आधारित है; परंतु आज के कलियुग में नैतिक मूल्यों का पतन होने से संस्कार-मूल्य भी समाप्त हो चुके हैं । इसका परिणाम युवा पीढी पर दिखाई देता है । उसके कारण ‘उनका भविष्य संकट में है’, ऐसा कहना अनुचित नहीं है ।
बंगाल की दैवी युवा साधिका तथा डॉ. (कु.) श्रिया साहा ने एक ही समय पर चिकित्सकीय अध्ययन एवं साधना के प्रयास किए । उन्होंने चर्मरोग विशेषज्ञ की (एम.डी. डर्मेटोलॉजी) शिक्षा ली है, साथ ही साधना में प्रगति कर ६२ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर प्राप्त किया है ।
‘मनुष्य के जीवन में आनेवाली ८० प्रतिशत समस्याओं के पीछे प्रारब्ध, अतृप्त पूर्वजों के लिंगदेह से कष्ट, अनिष्ट शक्तियों के कष्ट इत्यादि आध्यात्मिक कारण होते हैं ।’
हमारे द्वारा की हुई प्रत्येक कृति एवं उसके पीछे की विचारप्रक्रिया ईश्वर को अपेक्षित होने हेतु व्यष्टि साधना के ब्योरे होते हैं और हमारी आनंदयात्रा आरंभ होती है ।