ईश्वरीय गुण का अर्थ सूक्ष्म के आभूषण !
जीव द्वारा ईश्वर निर्मित धर्म का आचरण और यथार्थ पालन करना, अर्थात जीव द्वारा उसके प्रगति हेतु उपयुक्त साधना कर इस मनुष्यजन्म का सार्थक करना, यही उसके जीवन का बडा अलंकार हो सकता है ।
जीव द्वारा ईश्वर निर्मित धर्म का आचरण और यथार्थ पालन करना, अर्थात जीव द्वारा उसके प्रगति हेतु उपयुक्त साधना कर इस मनुष्यजन्म का सार्थक करना, यही उसके जीवन का बडा अलंकार हो सकता है ।
अनेक लोगों को ‘पैतृक संपत्ति’ अर्थात घर, पैसे इत्यादि मिलते हैं । हम पांचों भाईयों के संदर्भ में हमें प्राप्त पैतृक संपत्ति अर्थात ‘माता-पिता ने किए संस्कार और साधना की रुचि ।’ व्यवहारिक वस्तुओं की तुलना में यह संपत्ति अनमोल है ।
प्रारब्ध कितना भी कठिन हो, भगवान से आंतरिक सान्निध्य बनाए रख, उचित क्रियमाण का उपयोग कर कर्म करनेसे उस पर मात की जा सकती है ।
पू. (श्रीमती) योया वालेजी का सम्मान उनके संत भाई पू. देयान ग्लेश्चिचजी ने किया एवं कु. अनास्तासिया वाले का सत्कार उसके मामा, अर्थात पू. देयान ग्लेश्चिचजी ने ही किया ।
समष्टि साधना की तीव्र लगन, साधकों की आध्यात्मिक प्रगति की लगन रख निरंतर साधना में उनकी मां समान सहायता करना एवं श्रीकृष्ण के प्रति गोपीभाव आदि गुण कु. दीपाली मतकर में हैं ।
सनातन संस्था में कुछ दैवी बालक हैं । उनका बोलना आध्यात्मिक स्तर का होता है । आध्यात्मिक विषय पर बोलते हुए उनके बोलने में ‘सगुण-निर्गुण’, ‘आनंद, चैतन्य, शांति’ जैसे शब्द होते हैं । ऐसे शब्द बोलने के पूर्व उन्हें रुककर विचार नहीं करना पडता ।
साधना करनेवाले जीवों की साधना उनका प्रारब्ध और संचित नष्ट करने के लिए उपयोग की जाती है । इसीलिए साधकों की प्रगति की (आध्यात्मिक उन्नति की) गति अल्प होती है ।
१३ वीं शताब्दी में महाराष्ट्र में जन्मे संत ज्ञानेश्वर महाराज स्वयं उच्च स्तर के संत थे और उनके माता-पिता एवं भाई-बहन भी संत थे । वर्तमान कलियुग में ऐसा ही एक उदाहरण है ‘सनातन संस्था’ और ‘महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय’ के संस्थापक परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का !
धर्म और मोक्षमें स्वयंका पराक्रम, प्रयास, कर्तृत्व, अर्थात् पुरुषार्थ मुख्य है और प्रारब्ध गौण है । धर्माचरण तथा मोक्षप्राप्ति दैवसे, प्रारब्धसे नहीं होती; यह पूरे निर्धारसे स्वयं ही करना पडता है ।
‘अनेक संप्रदायों के गुरु अथवा संत समाज को बताते हैं, ‘नामस्मरण करें’; परंतु ‘किस प्रकार नामस्मरण करने पर अधिक लाभ होगा’, यह कोई भी नहीं बताता । इसके विपरीत, परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी साधकों को कालानुसार भावपूर्ण नामस्मरण सिखाते हैं ।