परिजनों की भी साधना में अद्वितीय प्रगति करवानेवाले एकमेवाद्वितीय पू. बाळाजी (दादा) आठवलेजी ! (परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के पिता)

‘अपने बच्चों पर किस प्रकार के संस्कार करें ?’, यह सभी पाठकों को समझाने के लिए उपयुक्त लेखमाला !

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी
प.पू. दादा आठवलेजी

     ‘सनातन प्रभात’ में संतों की साधनायात्रा, उनकी सीख के विषय में नियमित लेख प्रकाशित किए जाते हैं । १९ सितंबर २०२१ से आरंभ लेखमाला द्वारा ‘सनातन प्रभात’ के संस्थापक-संपादक परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के पिता प.पू. बाळाजी (प.पू. दादा) आठवलेजी के विषय में लेख प्रकाशित किए जा रहे हैं ।

     १० अक्टूबर २०२१ को हमने प.पू. बाळाजी (प.पू. दादा) आठवलेजी और उनकेसंत परिजनों के छायाचित्रों से अत्यधिक मात्रा में चैतन्य प्रक्षेपित होता है । यह यूएएस (युनिवर्सल ऑरा स्कैनर) उपकरण द्वारा किए गए निरीक्षण में देखा । इस लेख में आगामी जानकारी देखेंगे । (भाग ४)

४. प.पू. दादा के लेखन की विशेषताएं

४ अ. ‘कोई पुस्तक अथवा ग्रंथ पढते हुए अच्छा लगे, तो नए सीखने के लिए मिले सूत्रों को वे बही में लिखकर रखते और बीच-बीच में उसे स्वयं पढते ।

४ आ. डॉ. जयंत आठवलेजी द्वारा अपने मामा को लिखे विशेषतापूर्ण पत्र की प्रति प.पू. दादा ने लिखकर संग्रहित रखना

४ आ १. वर्ष १९७५ (आयु के ३३ वर्ष) के विचार : दादा के कागजपत्र जांचते हुए मुझे आज निम्न पत्र मिला ।

४ इ. प.पू. दादा द्वारा दैनिक कृति भाव के स्तर पर कर, ईश्वरीय कृपा अनुभव करने का मार्ग दिखाना : ‘प.पू. दादा ने भक्तियोग पर आधारित अनेक सुवचन और सूत्र लिखे । साथ ही उन्होंने दैनिक कृति भाव के स्तर पर कर, ईश्वरीय कृपा अनुभव करने का मार्ग दिखाया । सनातन के ग्रंथ अध्यात्मशास्त्र पर वैज्ञानिक पद्धति में और आधुनिक भाषा में लिखे गए हैं । प.पू. दादा के लेखन के कारण उनमें रही भक्तियोग की कमी पूर्ण हुई ।

     ‘हे गुरुदेव, आपकी कृपा से प.पू. दादा के लेखन का अमूल्य संग्रह हमें मिला । इसलिए हम आपके चरणों में कृतज्ञ हैं ।’

– श्रीमती मंजिरी आगवेकर, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा (१५.७.२०१३) (खंड ३)

४ ई. प.पू. दादा के लेखन में सामान्य व्यक्ति को भी साधक बनाने की क्षमता होना और उनके द्वारा ‘ दैनिक जीवन में घटित होनेवाली छोटी-छोटी कृतियों में किस प्रकार ईश्वर का स्मरण करें ?’, यह अपने लेखन द्वारा सुस्पष्टता से दर्शाना : ‘मुझे प.पू. दादा के अंग्रेजी लेख का अनुवाद करने की सेवा प्राप्त हुई । उनका अंग्रेजी अथवा मराठी लेखन हो, उसमें सात्त्विकता अनुभव होती है । सामान्य व्यक्ति को समझ में आए, इसलिए उन्होंने सरल भाषाशैली का उपयोग किया है । ‘दैनिक जीवन में घटित होनेवाली छोटी-छोटी कृतियों में ईश्वर का स्मरण कैसे करें ?’, यह उन्होंने अपने लेखन द्वारा सुस्पष्टता से दिखाया है । जीवन की अनेक महत्त्वपूर्ण घटनाओं में उनका उल्लेख होने से ‘जीवन में अध्यात्म कैसे जीएं ?’, इसका गुरुमंत्र ही उन्होंने हमें दिया है ।’

– पशु चिकित्सक अजय जोशी (अनुवादक), सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (२२.१.२०१४) (खंड ३)

४ उ. ‘प्रत्येक कृति का अध्यात्मीकरण करना’, इस परात्पर गुरु डॉक्टरजी के सूत्र का बीज प.पू. दादा के लेखन में अनुभव होना और कृतज्ञभाव जागृत होना : ‘प.पू. दादा द्वारा लिखा गया ‘सुगम अध्यात्मशास्त्र’ ग्रंथ अत्यंत सरल और प्रभावी भाषा में सामान्य व्यक्ति का विचार कर लिखा गया है, ऐसा मुझे लगा । ‘जीवन का प्रत्येक अंग अध्यात्मशास्त्र से संबंधित है । यह शास्त्र सीखना और आत्मसात करना, यही जीवन का खरा सार है’, यह पहलू उन्होंने इस ग्रंथ में अत्यंत सुंदरता से स्पष्ट किया है । परात्पर गुरु डॉक्टरजी के ‘प्रत्येक कृति का अध्यात्मीकरण करना’, इस सूत्र का बीज प.पू. दादा के लेखन में ही है, ऐसा लगा और प.पू. दादा के विषय में कृतज्ञभाव जागृत हुआ ।’

– श्री. रोहित साळुंके, सनातन आश्रम,रामनाथी, गोवा. (१८.८.२०१४) (१ से ३) (खंड ३)

४ ऊ. लेखन का विषय

४ ऊ १. ‘प.पू. दादा की कहानियां, कविता, लेख इत्यादि सभी लेखन का केंद्रबिंदु ‘अध्यात्म’ है ।

४ ऊ २. सैद्धांतिक जानकारी की तुलना में प्रत्यक्ष कृति करने के संदर्भ में लेखन : लेखन में सैद्धांतिक जानकारी की तुलना में प्रत्यक्ष कृति करने के संदर्भ में अधिक जानकारी है; क्योंकि अध्यात्म केवल पठन का नहीं, अपितु कृति का विषय है ।

४ ए. प.पू. दादा द्वारा अपने लेखन के संदर्भ में व्यक्त किए विचार

     ‘फोडिलें भांडार धन्याचा हा माल ।
मी तंव हामाल भारवाही ।।

– तुकाराम गाथा, अभंग ६९०, ओवी ३

अर्थ : मुझे ईश्वर का ज्ञानभंडार मिला है । यह सभी ज्ञान उनका ही है । मैं केवल उस ज्ञान का भारवाहक (हमाल) हूं ।
संत तुकाराम महाराजजी के उपरोक्त कथन के अनुसार मेरे लेखन से मेरा इतना ही संबंध है ! यह भंडार संतों का है । मैं निमित्तमात्र हूं । कर्त्ता करावनहार कोई और ही है !’ – (प.पू.) बाळाजी वासुदेव आठवले (वर्ष १९९०)’ (खंड १)

– (परात्पर गुरु) डॉ. जयंत आठवले                                                                                                                                      (क्रमशः)

परात्पर गुरु डॉ. जयंत आठवलेजी को प्राप्त पैतृक संपत्ति, अर्थात प.पू. दादा का लेखन !

लेखन करते हुए प.पू. बाळाजी (दादा) आठवले

१. संस्कार

     अनेक लोगों को ‘पैतृक संपत्ति’ अर्थात घर, पैसे इत्यादि मिलते हैं । हम पांचों भाईयों के संदर्भ में हमें प्राप्त पैतृक संपत्ति अर्थात ‘माता-पिता ने किए संस्कार और साधना की रुचि ।’ व्यवहारिक वस्तुओं की तुलना में यह संपत्ति अनमोल है ।

२. अच्छे लेखन के सूत्र बनाना और ग्रंथलेखन

     पिताजी ने सेवानिवृत्त होने से लेकर अंत तक अध्यात्म के विषय में स्वयंस्फूर्ति से लेखन किया अथवा ग्रंथों से सूत्र बनाएं । दादा को अध्यात्म में रुचि होने से वे अनेक ग्रंथों का वाचन करते थे । उनके काल में संगणक की सुविधा न होने से वे महत्त्वपूर्ण सूत्र बही में लिखते थे । उनकी अनेक बहियां आज भी मुझे ग्रंथलेखन में सहायता करती हैं । इतना ही नहीं, तो ग्रंथ छापने के लिए जिस प्रकार अनुक्रमणिका बनाकर लेख क्रमानुसार लगाते हैं, उसी प्रकार लगभग सभी ग्रंथों के हस्तलिखित उन्होंने तैयार किए है । यह हस्तलिखित मराठी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं में है । पैतृक संपत्ति के संदर्भ में दो खोके भरेंगे, इतने हस्तलिखित उन्होंने देने के कारण ग्रंथलेखन में मुझे सहायता हुई । – (परात्पर गुरु) डॉ. जयंत आठवले (खंड १)

ब्रिटेन १२.६.१९७५
तीर्थस्वरूप मामा को,
सा.न.वि.वि.
तीर्थस्वरूप दादा और तीर्थस्वरूप ताई मेरे आदर्श माता-पिता है । उन्होंने मुझे चार अच्छे भाईयों के साथ सब कुछ दिया और सिखाया । उनके जीवन में ज्ञानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग का दुर्लभ सैद्धांतिक और प्रायोगिक एकत्रिकरण है । उनके घर जन्म देने के लिए मैं उनके प्रति अत्यंत कृतज्ञ हूं ।’ (खंड १)

– (परात्पर गुरु) डॉ. जयंत आठवले