सनातन का लघुग्रंथ : आध्यात्मिक कष्टों को दूर करने हेतु उपयुक्त दृष्टिकोण

सनातन का ग्रंथ ‘आध्यात्मिक कष्टों को दूर करने हेतु उपयुक्त दृष्टिकोण’ का कुछ भाग १ से १५ सितंबर इस अंक में पढा । आज आगे के दृष्टिकोण देखेंगे ।

सनातन के लघुग्रंथ का मुखपृष्ठ

६ आ. कष्टों की ओर सकारात्मक दृष्टि से देखना

६ आ १. ‘कष्ट भोगना साधना ही है’, मन पर यह विचार अंकित करना : ईश्वरप्राप्ति हेतु साधना, साथ ही राष्ट्र एवं धर्म का कार्य करते समय साधकों के मन का त्याग जितना महत्त्वपूर्ण है, उतना ही महत्त्वपूर्ण है वर्तमान समय के सूक्ष्म से आपातकाल में अनिष्ट शक्तियों के कष्टों को संयमित पद्धति से सहन करते समय साधकों के मन का होनेवाला त्याग । ऐसा कष्ट भोग रहे साधकों के इस त्याग का फल भगवान उन्हें प्रदान कर ही रहे हैं; परंतु वर्तमान समय में इन कष्टों से लडने में उनकी साधना व्यय होने से वह फल दृष्टिगोचर (प्रत्यक्ष दिखाई देना) नहीं होता । आगे जाकर कष्ट भोगकर समाप्त होने के उपरांत ऐसे साधकों की प्रगति उनकी साधना के अनुरूप गति से होगी, इसके प्रति साधक आश्वस्त रहें । इसके लिए श्री साईबाबा के इस वचन का पुनः पुनः स्मरण करें – ‘श्रद्धा और सबुरी ।’

६ आ २. ‘कष्ट भोगना तो साधना की परीक्षा है’, ऐसा दृष्टिकोण : साधनापथ पर अग्रसर होते समय भगवान साधकों की परीक्षा लेते हैं । हिरण्यकश्यप ने भक्त प्रह्लाद का अत्यंत उत्पीडन किया, तब भी प्रह्लाद डगमगाए नहीं । अपनी भक्ति के बल पर वे प्रत्येक संकट से पार हुए । मानो भगवान ने उनकी परीक्षा ली हो ! अनुकूल स्थिती में कोई भी साधना करेगा; परंतु ‘प्रतिकूल स्थिति में साधना करना’ सच्ची साधना है । वर्तमान समय में हो रहे कष्टों के विषय में साधकों ने, ‘भगवान इसमें भी हमारी परीक्षा ले रहे हैं; क्योंकि भगवान को हमें सुख-दुख से परे ले जाना है’, यह दृष्टिकोण रखा, तो उनके लिए इन कष्टों की ओर सकारात्मक दृष्टि से देखना संभव होगा । इसके लिए साधक प.पू. भक्तराज महाराजजी की इस भजनपंक्ति का पुन:पुनः स्मरण करें –

होई जरी दुःख या जिवा ।
देई परि शक्ति शमनाची ।।

६ आ ३. कष्टों के कारण स्वयं में संघर्ष करने का बल आना : ‘वर्तमान समय में साधकों को आध्यात्मिक कष्टों पर विजय प्राप्त करने हेतु जो संघर्ष करना पड रहा है, उन्होंने यदि यह संघर्ष सीख लिया, तो आगे जाकर जीवन में आनेवाले किसी भी संघर्ष में साधक विजयी हो पाएंगे’, इसके प्रति साधक आश्वस्त रहें । शरणागत भाव से परात्पर गुरु डॉक्टरजी को पुकारा, तो साधकों में संघर्ष करने हेतु बल भी प्राप्त होगा ।’

पू . संदीप आळशी

६ आ ४. ‘साधना करना’ जैसे कर्तव्य है, वैसे ही ‘हिन्दू राष्ट्र की स्थापना हेतु कष्ट भोगना’ भी कर्तव्य है !

अ. वर्तमान समय में सनातन के अनेक साधक सूक्ष्म से समष्टि आध्यात्मिक कष्ट भुगत रहे हैं । यह हिन्दू राष्ट्र की स्थापना हेतु लडाई का एक सर्वांग सुंदर एवं आदर्श भाग है । स्वतंत्रतापूर्व वीर सावरकर एवं अनेक देशभक्तों को कितनी कठिनाइयां सहनी पडीं, बैल की भांति, तेल का सेलु खींचना, घंटों दोनों हाथ हथकडी में लटकाकर खडे रहने जैसे कष्ट सहन करने की तो हम कल्पना भी नहीं कर सकते । उन्होंने यदि स्वतंत्रता हेतु इतना कष्ट भोगा है, तो हम धर्म एवं हिन्दू राष्ट्र की स्थापना हेतु उनके कष्टों की तुलना में साधना के रूप में बहुत ही अल्प कष्ट क्यों नहीं सहन कर सकते ?

६ आ ५. कष्टों के सामने हार न मानकर अपने सामने निरंतर हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का ध्येय रखना : ‘वर्ष २०१५ में एक बार मैं विभिन्न कष्टों के कारण अत्यंत त्रस्त था, उस समय २-३ बार मेरे मन में यह विचार आया, ‘इस शरीर को त्यागना संभव हो, तो अच्छा रहेगा; क्योंकि शरीर त्यागने के उपरांत मैं सूक्ष्म से साधना कर पाऊंगा ।’ एक बार जब मैं परात्पर गुरु डॉक्टरजी के पास गया था, तब वे अकस्मात मुझसे कहने लगे, ‘‘वर्तमान समय में मुझे इतने शारीरिक कष्ट भोगने पड रहे हैं कि वास्तव में देखा जाए, तो मैं कब का ऊपर चला जाता; परंतु यद्यपि ‘हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करना शेष है; इसलिए रुका हूं ।’’ ‘केवल हिन्दू राष्ट्र की स्थापना हेतु परात्पर गुरु डॉक्टर समष्टि आध्यात्मिक कष्टों का इतना दंश झेल रहे हैं तथा उस तुलना में हमारे कष्ट कुछ भी नहीं हैं’, इस विचार से मुझे मेरी अनुचित विचार प्रक्रिया का भान हुआ । उसके उपरांत परात्पर गुरु डॉक्टरजी की कृपा से मेरे मन में कभी वह विचार नहीं आया ।’

६ आ ६. हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का उज्ज्वल भविष्य जब सामने दिखाई दे रहा है, तो कष्टों के प्रति खेद क्यों ? : ‘हिन्दू राष्ट्र’ की स्थापना होगी तथा उसके उपरांत साधकों के आध्यात्मिक कष्ट अल्प होंगे तथा साधकों की आध्यात्मिक प्रगति भी शीघ्र होगी ।’, इसके प्रति परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने हमें आश्वस्त किया है ! इसलिए कष्ट से ग्रस्त साधकों को वर्तमान समय के कष्टों को बिना उबे संतोष के साथ सहन करने चाहिए ।’

६ आ ७. कष्टों के कारण कृतज्ञताभाव बढने में सहायता होना

अ. ‘साधकों में स्थित स्वभावदोष एवं अहं का लाभ उठाकर अनिष्ट शक्तियां साधकों के कष्ट बढाती हैं; परंतु ऐसा होने से साधकों में स्वभावदोष एवं अहं दूर करने के प्रति गंभीरता बढने में सहायता मिलती है ।

आ. साधकों को कष्ट भोगने पडते हैं, उसके कारण उनके जीवन के प्रारब्ध नष्ट हो रहे होते हैं । आगे जाकर आपातकाल की तीव्रता अल्प होने पर ऐसे साधकों के प्रारब्ध का बडा अंश भुगतकर समाप्त हो जाता है, साथ ही दुखों के प्रति आपातकाल के कष्टों के कारण शरीर एवं मन की प्रतिरोधक क्षमता पहले ही बढने से उनके लिए आगे जाकर साधना में उत्पन्न बाधाओं पर विजय प्राप्त करना सुलभ रहेगा । उसके कारण शीघ्र उनकी आध्यात्मिक प्रगति होने में सहायता मिलेगी ।

इ. आरंभ में कष्टों के कारण मन ऊब जाता है, सेवा एवं साधना का उत्साह अल्प हो जाता है, मन दुखी होता है तथा मन को नकारात्मकता अथवा निराशा आती है । पुनःपुनः वही कष्ट होने लगे, तो मन को धीरे-धीरे उन कष्टों की आदत लग जाती है । उसके कारण मन को होनेवाले दुख की संवेदना धीरे-धीरे अल्प अथवा नष्ट होती है । संक्षेप में कहा जाए, तो मन साक्षीभाव से कष्टों की ओर देखना सीख जाता है । साधना में ८० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर के आगे जाने पर ही साक्षीभाव साध्य होता है; परंतु कष्ट से ग्रस्त साधकों में यह स्तर अल्प आध्यात्मिक स्तर पर ही ‘कष्टों को साक्षीभाव से देखने की प्रवृत्ति’ विकसित हो जाती है, जिससे आगे जाकर उन्हें साधना में साक्षीभाव का स्तर शीघ्र प्राप्त करना सुलभ हो जाता है ।

इसके लिए साधकों को कष्टों के सामने असहाय न होकर उसके विपरीत कष्टों के प्रति कृतज्ञता रखनी होगी । साधकों पर परात्पर गुरु डॉक्टरजी की कृपा होने के कारण साधकों को इन कष्टों का उतना दंश झेलना नहीं पडता तथा कष्ट सुसह्य होने में भी सहायता मिलती है । इसके लिए साधकों को परात्पर गुरु डॉक्टरजी के प्रति भी अनन्य कृतज्ञ होना चाहिए ।’

ई. कुंती ने भगवान से कहा, ‘संकट में ही मुझे आपका अधिक स्मरण होता है; इसलिए आप मुझे अधिक से अधिक संकट ही दें ।’ कष्ट से ग्रस्त साधक कुंती की भांति भगवान से दुख न मांगें; परंतु ‘दुखों के कारण भगवान का अधिक स्मरण करने का सौभाग्य मिला’, ऐसा विचार कर भगवान के प्रति कृतज्ञताभाव बढाएं । साधक कष्टों में भी नामजप, भावजागृति के प्रयास अथवा सेवारत रहने का प्रयास करें । इसके कारण दुख भी प्रतीत नहीं होगा तथा साधना भी होगी ।

६ इ. कष्टों के कारण पुनःपुनः चूकें होने पर निराश न होना : कष्ट से ग्रस्त साधकों के मन एवं बुद्धि पर पुनः-पुनः सूक्ष्म कष्टदायक आवरण आता रहता है । उसके कारण अनेक बार साधकों से वहीं चूकें पुनःपुनः होती हैं । उस पर उपाय करने पर भी पुनः-पुनः वही चूकें होने से कुछ साधकों को निराशा आ जाती है । ऐसी चूकें होने का मुख्य कारण होता है ‘मन एवं बुद्धि पर सूक्ष्म कष्टकारी आवरण का आना !’ अब चूकें होती भी हों, तो उनके प्रति सतर्कता रखकर पुनःपुनः उचित उपाय करने से चित्त पर संस्कार होता है । अनेक बार यह संस्कार होने से आगे जाकर कष्टों की तीव्रता अल्प होने पर उस प्रकार की चूकें पुनः नहीं होंगी, इसके प्रति आश्वस्त रहें ।

६ ई. कष्ट से ग्रस्त साधक अति चिंता अथवा अति चिंतन टालें : ‘मध्यम से लेकर तीव्र आध्यात्मिक कष्ट से ग्रस्त साधकों पर इन कष्टों का अल्पाधिक मात्रा में प्रभाव होता है, उसके कारण उनके द्वारा साधना के परिपूर्ण प्रयास होने में कुछ मर्यादाएं आ जाती हैं । आध्यात्मिक कष्ट से ग्रस्त कुछ साधक साधना के प्रयासों के संदर्भ में अति चिंता अथवा चिंतन करते हैं । अति चिंता करने के कारण अनावश्यक विचार अथवा तनाव बढकर आध्यात्मिक कष्टों में वृद्धि होती है । अतः ऐसे साधकों को ‘साधना के प्रयासों में अथवा स्वयं को प्रतिकूल लगनेवाले प्रसंगों के संदर्भ में अति चिंता अथवा अति चिंतन न कर साधना की दृष्टि से आवश्यक चिंतन कर तथा उससे सीखकर साधना करते रहना’ अधिक उचित है । अति चिंता अथवा अति चिंतन टालने हेतु यदि संभव हो, तो उत्तरदायी साधक से मार्गदर्शन लें । उसके परिणामस्वरूप हमारे मन की ऊर्जा बचती है तथा उचित दृष्टिकोण भी मिलता है ।

‘मुझे साधना का सबकुछ परिपूर्ण करना संभव होना ही चाहिए’, यह दुराग्रह न रखें । ‘किसी तीव्र स्वभावदोष अथवा अहं के पहलू पर शीघ्र विजय प्राप्त करना संभव नहीं होता’, इसका अर्थ ‘मेरी साधना ही नहीं होती’, ऐसा नहीं है; क्योंकि वह पूरी साधना का एक छोटा सा अंश होता है । नामजप, सेवा, भावजागृति के प्रयास जैसे अन्य प्रयासों के माध्यम से भी हमारी साधना होती ही रहती है । इसलिए ‘पूर्ण पद्धति से साधना के प्रयास संभव नहीं होते’, इसका बुरा न मानकर ‘उन प्रयासों को पूर्ण पद्धति से करने के प्रयास करते रहना’ भी साधना ही है’, यह दृष्टिकोण रखें । आगे जाकर आध्यात्मिक कष्ट अल्प होने पर साधना के सभी प्रयास पूर्ण पद्धति से करना संभव होगा ।’ (क्रमश:)

– (पू.) श्री. संदीप आळशी (१४.२.२०२१)

 

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