साधकों को सेवा करते समय प्रति १-२ घंटे के उपरांत व्यष्टि साधना के प्रयास करना आवश्यक ! 

‘वर्तमान आपातकाल में अनिष्ट शक्तियों के कष्ट बढते ही जा रहे हैं, उसके कारण अनेक साधकों पर पुनः-पुनः काला आवरण (कष्टदायक शक्ति का आवरण) आता
है । साधकों के द्वारा निरंतर सेवा अथवा व्यक्तिगत कामों को प्रधानता दिए जाने से उनके आध्यात्मिक उपचार तथा व्यष्टि साधना के प्रयास अच्छे ढंग से नहीं होते । इसके परिणामस्वरूप उनके कष्ट बढते हैं, उदा. मन की चिडचिडाहट होना, नकारात्मकता आना, सेवा करते समय कुछ न सूझना इत्यादि । इसे टालने हेतु साधक संभवत: प्रति १-२ घंटे उपरांत चल रही सेवा अथवा व्यक्तिगत काम रोककर निम्न क्रमबद्ध प्रयास करें । २-३ मिनट आवरण निकालना, प्रार्थना करना, आधे मिनट के लिए कोई भावप्रयोग करना, कोई स्वसूचना देना इत्यादि ।

उपरोक्त प्रयास करने से अनेक साधकों को मन से सकारात्मक एवं स्थिर बने रहना संभव होना, ईश्वरीय सान्निध्य में वृद्धि होना, अगली सेवा के लिए ऊर्जा मिलना आदि लाभ हुए । सभी साधक इस प्रकार प्रयास कर सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी को अपेक्षित व्यष्टि एवं समष्टि साधना अच्छे ढंग से करने का प्रयास करें !’

– पू. संदीप आळशी (२.१२.२०२४)

आध्यात्मिक कष्ट : इसका अर्थ है व्यक्ति में नकारात्मक स्पंदन होना । मंद आध्यात्मिक कष्ट का अर्थ है व्यक्ति में नकारात्मक स्पंदन ३० प्रतिशत से अल्प होना । मध्यम आध्यात्मिक कष्ट का अर्थ है नकारात्मक स्पंदन ३० से ४९ प्रतिशत होना; और तीव्र आध्यात्मिक कष्ट का अर्थ है नकारात्मक स्पंदन ५० प्रतिशत अथवा उससे अधिक मात्रा में होना । आध्यात्मिक कष्ट प्रारब्ध, पितृदोष इत्यादि आध्यात्मिक स्तर के कारणों से होता है । किसी व्यक्ति के आध्यात्मिक कष्ट को संत अथवा सूक्ष्म स्पंदन समझनेवाले साधक पहचान सकते हैं ।

बुरी शक्ति : वातावरण में अच्छी तथा बुरी (अनिष्ट) शक्तियां कार्यरत रहती हैं । अच्छे कार्य में अच्छी शक्तियां मानव की सहायता करती हैं, जबकि अनिष्ट शक्तियां मानव को कष्ट देती हैं । प्राचीन काल में ऋषि-मुनियों के यज्ञों में राक्षसों ने विघ्न डाले, ऐसी अनेक कथाएं वेद-पुराणों में हैं । ‘अथर्ववेद में अनेक स्थानों पर अनिष्ट शक्तियां, उदा. असुर, राक्षस, पिशाच को प्रतिबंधित करने हेतु मंत्र दिए हैं ।’ अनिष्ट शक्तियों से हो रही पीडा के निवारणार्थ विविध आध्यात्मिक उपचार वेदादि धर्मग्रंथों में वर्णित हैं ।