सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी की सादगी एवं सरलता !

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवले जी

‘सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी की कृपा और उनके मार्गदर्शनानुसार ‘गुरुकृपायोगानुसार साधना’ कर १५.५.२०२४ तक १२७ साधक संत हुए और १,०५८ साधक संतत्व की दिशा में अग्रसर हो रहे हैं । वर्ष २०१७ में मैंने एक बार सच्चिदानंद परब्रह्म डॉक्टरजी को सुझाया था, ‘‘आपकी कृपा से अनेक साधक ‘संत’ बने । धीरे-धीरे वे ‘सद्गुरु’ बन रहे हैं और आगे ‘परात्पर गुरु’ भी बनेंगे । आजकल आपके नाम से पहले हम ‘परात्पर गुरु’ की उपाधि लगा रहे हैं; परंतु आपका स्थान सभी से भिन्न है । वह अलग ही होना और दिखाई भी देना चाहिए । क्या हम सभी आपके नाम के पहले भिन्न उपाधि लगाएं ?’ इस पर सच्चिदानंद परब्रह्म डॉक्टरजी ने कहा, ‘‘अभी उसका विचार नहीं करना है ।’’

पू. संदीप आळशी

वर्ष २०२२ में जीवनाडी-पट्टिका वाचन के माध्यम से महर्षिजी ने परात्पर गुरु डॉक्टरजी को ‘सच्चिदानंद परब्रह्म’ की उपाधि लगाने के लिए कहा । तब मुझे बहुत आनंद हुआ । मुझे लगा जैसे भगवान ने मेरी प्रार्थना सुन ली हो !’ तदुपरांत परात्पर गुरु डॉक्टरजी वैसी उपाधि लगाने लगे । कुछ मास पश्चात पुन: उन्होंने पहले समान ही ‘परात्पर गुरु’ की उपाधि लगाना आरंभ कर दिया । तब मैंने उनसे कहा, ‘‘महर्षिजी ने ‘सच्चिदानंद परब्रह्म’ की उपाधि लगाने के लिए कहा है । उस अनुसार करना योग्य होगा ।’’ तदुपरांत उन्होंने पुन: महर्षिजी द्वारा दी गई नई उपाधि लगाना आरंभ कर दिया ।

इस प्रसंग से मुझे सच्चिदानंद परब्रह्म डॉक्टरजी की सादगी ध्यान में आई । ‘मैं औरों से भिन्न अथवा श्रेष्ठ हूं’, ऐसी भावना ही उनमें नहीं है । विविध सेवाओं का दायित्व संभालनेवाले कुछ साधकों में अपनी विशेष प्रतिमा संजोने की भावना होती है । उन्हें ऐसा भी लगता है कि ‘अन्य साधकों को मेरी सुननी चाहिए, मुझे मान-सम्मान देना चाहिए !’ ऐसे साधकों को सच्चिदानंद परब्रह्म डॉक्टरजी का यह उदाहरण निश्चित रूप से अंतर्मुख करेगा ।’

– (पू.) संदीप आळशी