सनातन का ग्रंथ ‘आध्यात्मिक कष्टों को दूर करने हेतु उपयुक्त दृष्टिकोण’ का कुछ भाग १६ से ३० सितंबर के अंक में पढा । आज आगे के दृष्टिकोण देखेंगे ।
६. आध्यात्मिक कष्टों पर विजय प्राप्त करने हेतु उपयुक्त सिद्ध होनेवाले दृष्टिकोण
६ उ. कष्टों के अधीन न होकर मनोबल बढाकर कष्टों से लडना : ‘अनेक साधक कष्टों के अधीन दिखाई देते हैं, उदा. कष्ट बढने पर दुखी अथवा नकारात्मक होना कि ‘कष्ट है’; ‘कष्ट है’ इसलिए सेवा में छूट लेना, सोकर रहना तथा ‘आध्यात्मिक उपचार करके भी कष्ट अल्प नहीं होता’, इस विचार से उपचार करने में टालमटोल करना अथवा उन्हें मन से न करना !
अधिकांश क्रांतिकारियों तथा राष्ट्रपुरुषों को साधना ज्ञात नहीं थी, उनके कोई गुरु नहीं थे, साथ ही उन्हें सुरक्षा देनेवाले भी विशेषरूप से कोई नहीं थे; परंतु ऐसी स्थिति में भी वे धीरज के साथ लडे । सनातन के साधक साधना करते हैं; इसलिए भगवान उनके साथ हैं, परात्पर गुरु डॉक्टरजी जैसे साधकों का स्थूल तथा सूक्ष्म से ध्यान रखनेवाले महान गुरु हैं तथा साधकों ने भगवान की अनुभूतियां भी ली हैं; किंतु साधक कष्टों के सामने इतने हतप्रभ क्यों हो जाते हैं ? इसका उत्तर है कि अनिष्ट शक्तियां अपना कार्य अचूकता से करती हैं; परंतु साधक अपना कार्य अर्थात साधना अचूकता से नहीं करते !
परात्पर गुरु डॉक्टरजी समष्टि आध्यात्मिक कष्टों के आघात स्वयं झेलते हैं; इसलिए साधकों को उन कष्टों का विशेष दंश नहीं झेलना पडता । साधकों को इसका विचार करना चाहिए कि ‘हमने नामजपादि आध्यात्मिक उपचार परिणामकारक किए, तो उससे परात्पर गुरु डॉक्टरजी पर होनेवाले समष्टि आध्यात्मिक कष्टों के आघात अल्प होंगे । मन:पूर्वक तथा भावपूर्ण आध्यात्मिक उपचार करना साधकों की साधना ही है !’ – (पू.) श्री. संदीप आळशी (२३.३.२०१५)
६ ऊ. छोटे-छोटे शारीरिक एवं मानसिक कष्टों की अनदेखी न करना : ‘शारीरिक तथा मानसिक कष्ट बढने से साधना ठीक से नहीं होती’, इसे ध्यान में रखकर शारीरिक तथा मानसिक कष्टों के प्रति सतर्क रहकर जब वे आरंभ हों, उसी समय उनपर प्रभावकारी उपचार करें ।
६ ए. कष्ट अल्प न होने के कारणों का चिंतन करना : ‘आध्यात्मिक कष्ट से ग्रस्त अनेक साधक, ‘कष्ट है’; इस कारण केवल आध्यात्मिक उपचारों पर ही बल देते हैं; परंतु ‘क्या उनके ये उपचार गुणवत्तापूर्ण होते हैं ? कष्ट बढने के पीछे के स्वभावदोष दूर करने के लिए क्या लगन के साथ प्रयास होते हैं ? (छोटे से स्वभावदोष के कारण भी कष्ट बढ सकता है)’ इत्यादि बातों पर अधिक विचार नहीं करते । उसके कारण उनके कष्ट शीघ्र अल्प नहीं होते । कष्ट से ग्रस्त साधकों ने उक्त चिंतन किया, तो कष्ट दूर होने के लिए उनके प्रयासों को उचित दिशा मिलने में सहायता मिलेगी । साधकों को आवश्यकता हो, तो यह चिंतन करने के लिए वे अपने परिजनों अथवा सेवा का दायित्व देखनेवाले साधकों से सहायता ले सकते हैं ।’
७. आध्यात्मिक उपचारों के संदर्भ में उपयुक्त सिद्ध होनेवाले दृष्टिकोण
७ अ. कष्टों के लक्षणों के प्रति सतर्क रहकर आध्यात्मिक उपचार करना : नियमितरूप से बैठकर आध्यात्मिक उपचार करनेवाले साधकों में से कुछ साधक ‘सेवा बहुत है’, यह कारण देकर अथवा ‘सेवा से ही उपचार होते हैं’, ऐसा मानकर अचानक उपचार अल्प अथवा बंद कर देते हैं । ‘सेवा से उपचार हो सकते हैं’, भले ही यह उचित हो, तब भी कष्ट से ग्रस्त सभी साधकों के संदर्भ में ऐसा नहीं होता; क्योंकि यह बात साधक के कष्ट की तीव्रता, कष्ट का स्वरूप, कष्ट से लडने की क्षमता, साधक का आध्यात्मिक स्तर जैसे विभिन्न घटकों पर निर्भर होता है । अधिकतर साधकों द्वारा अचानक उपचार अल्प अथवा बंद कर देने से उनके कष्टों में वृद्धि होकर उसका परिणाम उनकी देह, मन, बुद्धि अथवा अहं पर होता है । उससे उनकी सेवा ठीक से नहीं होती तथा वे सेवा से उतना चैतन्य ग्रहण नहीं कर पाते ।
इसके लिए उपचार अल्प अथवा बंद करने के ३-४ दिन पश्चात ‘कष्ट के लक्षण बढ तो नहीं रहे हैं न ?’, साधक सतर्कता से इसका निरीक्षण करें । कष्ट के लक्षण बढ रहे हों, तो पहले के उपचार करते रहें ।
‘सेवा से ही उपचार होंगे; इसलिए अलग बैठकर उपचार करने की आवश्यकता नहीं है’, ऐसा संतों ने बताया हो, तो साधक बिना शंका के उनके बताए अनुसार श्रद्धापूर्वक वैसा करें; परंतु ऐसा करने के उपरांत कष्ट के लक्षण बढ जाएं, तो उस विषय में विनम्रतापूर्वक उन्हें बताएं । – (पू.) श्री. संदीप आळशी (२५.९.२०२०)
७ आ. आध्यात्मिक उपचारों की तथा सेवा की भी फलोत्पत्ति बढाना
१. ‘हमें उपचार को एक ‘कर्मकांड’ मानकर उन्हें निपटाना नहीं है, अपितु ‘नामजप के माध्यम से भक्तिभाव बढाकर भगवान के चरणों में जाना’ साध्य करना है’, इसे ध्यान में रखना होगा ।
२. उपचारों के समय नामजप करते समय रिक्त गत्ते के बक्सों से भी उपचार किए, तो उससे उपचारों की फलोत्पत्ति बढती है । सेवा करते समय तथा सोते समय भी अपने चारों ओर बक्सा रखकर उपचार किए जा सकते हैं । सेवा करते समय आसंदी में (कुर्सी पर) दो पैरों के मध्य एक पर एक, इस प्रकार से दो बक्से सहजता से रखे जा सकते हैं । उसके कारण स्वाधिष्ठान एवं मणिपुर, इन दो महत्त्वपूर्ण कुंडलिनीचक्रों पर उपाय होते रहते हैं । अनेक साधकों को स्वाधिष्ठान एवं मणिपुर चक्रों से संबंधित कष्ट अधिक होते हैं । ऐसे उपचार करने से उन्हें बहुत लाभ मिलेगा । (रिक्त गत्ते के बक्सों से उपचारों के विषय में सनातन के ग्रंथ ‘रिक्त गत्ते के बक्सों से उपचार [२ खंड]’ में इसकी व्याख्या दी गई है ।)
३. शारीरिक कष्टों का परिणाम मन पर भी होता है । शारीरिक कष्टों के कारण मन अस्थिर हुआ हो, तो उस समय प्रधानता से सेवा करें । सेवा में मन व्यस्त रहने के कारण शारीरिक कष्टों की ओर अल्प ध्यान जाता है तथा उससे मन पर होनेवाला शारीरिक कष्टों का परिमाण अल्प होता है । ग्रंथ संकलन जैसी सेवा में मन की एकाग्रता आवश्यक होती है । ऐसी सेवा में मन एकाग्र न होता हो, तो उस समय प्रधानता से जिस सेवा में अल्प एकाग्रता की आवश्यकता हो, ऐसी सेवा (उदा. संगणक की अनावश्यक धारिकाओं को हटाना) करें । कष्ट के कारण जब मन अस्थिर होता है अथवा नींद आते समय हठपूर्वक एकाग्रतावाली सेवा करने से उस सेवा की फलोत्पत्ति को स्वयं ही अल्प करने के समान है ।
मानसिक कारणों से (उदा. स्वभावदोषों के कारण) मन अस्थिर हो, तो उस समय प्रधानता से आध्यात्मिक उपचार करें ।उपचारों के कारण मन पर आए सूक्ष्म कष्टदायक आवरण शीघ्र अल्प होने से मन की अस्थिरता शीघ्र अल्प होती है । उसके उपरांत सेवा करें ।
७ इ. उपचारों के समय नामजप करते समय हाथों की मुद्राएं एवं न्यास करना : अनेक साधक उपचारों के समय नामजप करते समय हाथ की मुद्राएं तथा न्यास नहीं करते । इस विषय में साधक निम्न दृष्टिकोण ध्यान में रखेंं –
१. जैसे नामजप एक उपचार-पद्धति है, वैसे ही ‘मुद्रा एवं न्यास करना’ दूसरी उपचार-पद्धति है । एक ही समय दोनों उपचार-पद्धतियों का लाभ उठाने का अवसर होते हुए उसे हम क्यों गंवाएं ?
२. कभी-कभी कष्ट के कारण साधकों को मुद्रा एवं न्यास करने का ध्यान नहीं रहता । ऐसे साधक उस विषय में अन्य साधकों को स्मरण दिलाने के लिए कहें अथवा चल-दूरभाष पर वैसे स्मरण करानेवाला गजर लगाएं ।
३. एक हाथ से न्यास तथा दूसरे हाथ से मुद्रा कर कुछ समय पश्चात हाथ अथवा उंगलियों में तनाव आए अथवा उनमें पीडा होने लगे, तो हाथों को बदलें । न्यास करना संभव ही न हो, तो न्यूनतम मुद्रा तो करें ।
७ ई. ‘प्राणशक्तिवहन उपाय पद्धति’ से उपाय खोजना : ‘एक बार उपाय के समय मैं दो-तीन दिनों से ‘ॐ’ का नामजप कर रहा था । लंबे समय तक नामजप करने पर भी उपाय का कोई परिणाम नहीं हो रहा था । उसके उपरांत मैं ‘प्राणशक्तिवहन उपाय पद्धति’ से उपाय खोजकर श्री अग्निदेव का नामजप करने लगा । यह नामजप आरंभ करने के अगले ही क्षण मुझे इसका परिणाम प्रतीत होने लगा । परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने ‘प्राणशक्तिवहन उपाय पद्धति’ जैसी सरल उपाय पद्धति का शोध कर साधकों पर कितनी बडी कृपा की है ! ‘प्राणशक्तिवहन उपाय पद्धति’ से जप खोजकर उसे करने के महत्त्व हैं –
१. व्यक्ति को कष्ट पहुंचानेवली अनिष्ट शक्तियां व्यक्ति में स्थित विकार अथवा कष्ट के मूल स्थान को बार-बार परिवर्तित करती रहती हैं । ‘प्राणशक्तिवहन उपाय पद्धति’ से न्यास का स्थान स्वयं में ही खोजना होता है; इसलिए प्रत्येक बार विकार अथवा कष्ट का स्थान खोजा जाता है । उसके कारण प्रामाणिकता से उपाय करना संभव हो पाता है ।
– (पू.) श्री. संदीप आळशी (२८.१०.२०१६) (पढें : सनातन का लघुग्रंथ ‘आध्यात्मिक कष्टों को दूर करने हेतु उपयुक्त दृष्टिकोण’)
२. अनिष्ट शक्तियां पंचमहाभूतों के स्तर पर व्यक्ति पर आक्रमण करती रहती हैं । अधिकांश समय, भले ही व्यक्ति का विकार अथवा कष्ट एक ही हो, तब भी अनिष्ट शक्तियां जिस महाभूत के स्तर पर आक्रमण करती हैं, वह महाभूत भिन्न हो सकता है । इसलिए उस महाभूत से संबंधित मुद्राओं तथा मंत्रों को तोड डालने हेतु संबंधित मुद्रा एवं नामजप खोजकर उपाय करना महत्त्वपूर्ण सिद्ध होता है ।
उक्त दो कारणों से ‘प्राणशक्तिवहन उपाय पद्धति’ से उपाय खोजने का महत्त्व ध्यान में आता है । भले ही ऐसा हो; परंतु अनेक साधक इस पद्धति से उपाय खोजने हेतु कदम ही नहीं उठाते; क्योंकि उनमें सीखने की लगन का अभाव होता है । कुछ साधक आत्मविश्वास के अभाव से उपाय नहीं खोजते । कुछ साधक इस पद्धति की गंभीरता से अनभिज्ञ होते हैं; इसलिए वे प्रयास नहीं करते । गुरुदेवजी के प्रति श्रद्धा रखकर प्रयास करने से थोडा-थोडा संभव होने लगता है, तब आत्मविश्वास बढता है । उस आत्मविश्वास के बल पर आगे जाकर और अच्छा होने लगता है । इस उपाय पद्धति के संबंध में परात्पर गुरु डॉक्टरजी का संकल्प होने से साधक इस पद्धति से उपाय खोज पाएंगे तथा उसके अनुसार उपाय करने से साधकों को परात्पर गुरु डॉक्टरजी के संकल्प का फल मिलने से उनके कष्ट भी शीघ्र अल्प होंगे ।
(खाली बक्सों के उपायों के संदर्भ में सनातन का ग्रंथ ‘खाली बक्सों के उपाय [२ खंड]’ में इसका विवेचन दिया गया है ।)’
– (पू.) श्री. संदीप आळशी (२८.१०.२०१६) (क्रमशः)
आध्यात्मिक कष्ट : इसका अर्थ है व्यक्ति में नकारात्मक स्पंदन होना । मंद आध्यात्मिक कष्ट का अर्थ है व्यक्ति में नकारात्मक स्पंदन ३० प्रतिशत से अल्प होना । मध्यम आध्यात्मिक कष्ट का अर्थ है नकारात्मक स्पंदन ३० से ४९ प्रतिशत होना; और तीव्र आध्यात्मिक कष्ट का अर्थ है नकारात्मक स्पंदन ५० प्रतिशत अथवा उससे अधिक मात्रा में होना । आध्यात्मिक कष्ट प्रारब्ध, पितृदोष इत्यादि आध्यात्मिक स्तर के कारणों से होता है । किसी व्यक्ति के आध्यात्मिक कष्ट को संत अथवा सूक्ष्म स्पंदन समझनेवाले साधक पहचान सकते हैं । |