सनातन संस्था के विषय में मान्यवरों के अभिमत

सनातन संस्था के संस्थापक परात्पर गुरु डॉ. जयंत आठवलेजी तथा मेरा परिचय बहुत पुराना है । बहुत पहले वे एक बार मेरे साथ बद्री-केदारनाथ यात्रा में भी आए थे । उस समय मेरा यात्रा करानेवाला प्रतिष्ठान था तथा इस माध्यम से हमारा एक सुंदर संयोग घटित हुआ था ।

‘सनातन संस्था के माध्यम से सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी हैं सर्वत्र सदा !

इस पृथ्वी पर भटके हुए जीवों में से हम भी एक थे । हम इस माया के जगत में आनंद ढूंढ रहे थे । प्रत्येक व्यक्ति आनंद की खोज में रहता है; परंतु ‘मूल आनंद किसमें है ?’, इसका भान गुरुदेव सच्चिदानंद परब्रह्म डॉक्टरजी, आपने हमें सनातन संस्था के माध्यम से करवाया ।

इस संसार में कोई भी ऐसी वस्तु नहीं, जिसका कोई उपयोग नहीं !

‘अंधकार के कारण प्रकाश का, दुर्गंध के कारण सुगंध का, और मूर्ख के कारण बुद्धिमान का महत्त्व समझ में आता है !’

ईश्वरीय राज्य में शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य !

‘संसार के किसी भी देश के शासनकर्ता ‘जनता सात्त्विक बने’, इस उद्देश्य से उसे साधना नहीं सिखाते । ईश्वरीय राज्य में शिक्षा का यही प्रमुख उद्देश्य होगा ।’

अध्यात्म का अध्ययन करने की अपेक्षा साधना करें !

‘अध्यात्म शास्त्र अनंत है । अनंत ग्रंथों में इसे अनंत प्रकार से प्रस्तुत किया गया है । इस कारण बुद्धि से उसका अध्ययन करने की अपेक्षा साधना करें और स्वयं अनंत की (परमेश्वर की) अनुभूति लें ।

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी के ओजस्वी विचार

‘संसार के अन्य सभी विषयों का ज्ञान अहंकार बढाता है, जबकि अध्यात्म एकमात्र ऐसा विषय है, जो अहंकार अल्प करने में सहायता करता है ।’

प्रत्येक सेवा परिपूर्ण पद्धति से करनेवाली तथा परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के प्रति दृढ श्रद्धा रखनेवालीं सनातन की ८४ वीं (समष्टि) संत पू. (श्रीमती) सुनीता खेमकाजी !

सनातन संस्था से संपर्क होने पर मन में बिना कोई शंका लिए उन्होंने किस प्रकार सभी सेवाएं परिपूर्ण पद्धति से की, गुरुदेवजी से उनका पहली बार मिलना, उस समय उनके द्वारा अनुभव किए गए भावक्षणों, गुरुदेवजी की प्रति उनकी दृढ श्रद्धा तथा साधना करते समय उन्हें प्राप्त अनुभूतियां देखनेवाले हैं ।

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी द्वारा संकलित ग्रंथों में समाहित लेखन के प्रकार ‘मेरे द्वारा संकलित ग्रंथों में निम्न ३ प्रकार का लेखन है –

साधना आरंभ करने पर ‘ध्यान से उत्तर मिल सकते हैं’, यह ज्ञात होने पर मैं मेरी अधिकतर शंकाओं के उत्तर ध्यान से प्राप्त करता था । उसके कारण सूक्ष्म स्तर का वह ज्ञान पृथ्वी पर उपलब्ध किसी भी ग्रंथ में नहीं है ।

बुद्धिप्रमाणवादियों एवं विज्ञान निष्ठों का ज्ञान अति सीमित होने के कारण

‘बुद्धिप्रमाणवादियों एवं विज्ञान निष्ठों में यह अहंकार होता है कि ‘मुझे जो पता है, वही सत्य है’ और नया कुछ समझने की उनमें जिज्ञासा नहीं होती । इसके विपरीत ऋषियों में अहंकार न होने के कारण तथा जिज्ञासा होने के कारण उनके ज्ञान की श्रेणी बढती जाती है और वे अनंत कोटि ब्रह्मांड के असीमित ज्ञान की भी जानकारी दे सकते हैं !’

वर्तमान पीढी की कृतघ्नता !

‘धर्मशिक्षा एवं साधना के अभाववश कृतघ्न बनी वर्तमान पीढी को माता-पिता की सम्पत्ति चाहिए; परन्तु वृद्ध माता-पिता की सेवा नहीं करनी ।’