प्रत्येक सेवा परिपूर्ण पद्धति से करनेवाली तथा परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के प्रति दृढ श्रद्धा रखनेवालीं सनातन की ८४ वीं (समष्टि) संत पू. (श्रीमती) सुनीता खेमकाजी !

पिछली कडी में हमने पू. (श्रीमती) सुनीता खेमकाजी (आयु ६३ वर्ष) का बचपन, उनमें विद्यमान दैवीय गुण तथा सनातन संस्था के मार्गदर्शन में साधना आरंभ करने से पूर्व भी उनके द्वारा अनुभव की गई भगवान की अपार कृपा देखी । अब इस कडी में हम सनातन संस्था से संपर्क होने पर मन में बिना कोई शंका लिए उन्होंने किस प्रकार सभी सेवाएं परिपूर्ण पद्धति से की, गुरुदेवजी से उनका पहली बार मिलना, उस समय उनके द्वारा अनुभव किए गए भावक्षणों, गुरुदेवजी की प्रति उनकी दृढ श्रद्धा तथा साधना करते समय उन्हें प्राप्त अनुभूतियां देखनेवाले हैं । (भाग २)

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८. सनातन संस्था से संपर्क

८ अ. सनातन के साधक श्री. संजीव कुमार (आजके पू. संजीव कुमारजी) के द्वारा नामजप करने हेतु कहा जाना; परंतु उसकी अनदेखी करना, उसके उपरांत श्री. अरविंद ठक्कर के द्वारा सत्संग में नामजप का महत्त्व बताए जाने के उपरांत नामजप अपनेआप आरंभ हो जाना : ‘श्री. संजीव कुमार (आज के सनातन के ११५ वें (समष्टि) संत पू. संजीव कुमारजी (आयु ७३ वर्ष) मेरे पति के मित्र हैं । संजीवभैया सनातन संस्था के मार्गदर्शन में साधना कर रहे थे । उन्होंने हमें भी ‘कुलदेवता’ का एवं ‘श्री गुरुदेव दत्त’ नामजप करने हतेु कहा था; परंतु ‘हम तो पहले से पूजा-पाठ, व्रत इत्यादि कर ही रहे हैं, तो नामजप से अलग क्या होगा ?’, ऐसा हमें लग रहा था । जब संजीव भैया का दूरभाष आता था, उस समय पति के घर में न होने पर मैं वह दूरभाष उठाती थी । उस समय भी वे मुझे नामजप के विषय में पूछते थे; परंतु मैं उस विषय को टाल देती थी । वर्ष २००० में धनबाद में श्री. अरविंद भैया का (सनातन के साधक श्री. अरविंद ठक्कर का) सत्संग था । हम दोनों पहली बार ही सत्संग में गए थे । संजीव भैया ने हमें पहले ही ‘कुलदेवता’का तथा ‘श्री गुरुदेव दत्त’ नामजप करने के लिए कहा था; परंतु इस सत्संग के उपरांत हमसे ‘ये नामजप कब और कैसे आरंभ हुए ?’, यह हमें भी समझ नहीं आया ।

८ आ. नामजप का आरंभ करने के उपरांत प्राप्त अनुभूतियां !

८ आ १. परिवार के सभी सदस्यों का जयपुर में स्थानांतरित होने के कारण घर में अकेलापन प्रतीत होकर रोना आना; परंतु नामजप आरंभ करने पर अकेलेपन की भावना क्षीण होना : इसी अवधि में हमारे परिवार के सभी लोग जयपुर में स्थानांतरित हुए थे; परंतु हम दोनों (पति, मैं तथा बच्चे) यही रह गए थे, उसके कारण मुझे सदैव ही अकेलापन प्रतीत होता था तथा उससे मुझे रोना आता था । नामजप करना आरंभ करने के उपरांत मुझे प्रतीत होनेवाला अकेलापन धीरे-धीरे न्यून होता गया । उस समय ‘नामजप करने के कारण मुझे प्रतीत अकेलापन न्यून हुआ है’, यह मेरे ध्यान में आया । उसके कारण मुझ में नामजप के प्रति श्रद्धा बढी ।’

८ आ २. ‘कर्ता-धर्ता तो भगवान ही हैं’, इसका भान ! : हमारे परिवार के सभी सदस्यों के जयपुर चले जाने पर मेरे पति मुझे कहने लगे, ‘‘अब तुम भी उधर जाओ, मैं अकेला यहां रहूंगा ।’’ तब मेरे मन में आया, ‘आप यहां रहेंगे तथा मैं वहां !’, ऐसा कभी हो नहीं सकता । उसके उपरांत कुछ प्रसंग ऐसे घटित हुए कि मुझे मेरे बच्चों के साथ जयपुर आना पडा तथा २ वर्ष तक मैं वहीं रही । ‘मैं यह कभी नहीं कर पाऊंगी’, ऐसा मुझे लगता था, मुझे वही करना पडता था । मेरे जीवन में ऐसे और २ – ३ प्रसंग घटित हुए । अब उसका स्मरण होने पर मुझे लगता है, ‘मैं ऐसा कर ही नहीं सकती’, ऐसा मैं कहती थी, उस समय भगवान मेरी ओर देखकर हंस रहे होंगे । उन प्रसंगों से मुझे इसका भान हुआ कि वास्तव में देखा जाए, तो हमारे हाथ में कुछ नहीं होता । कर्ता-धर्ता तो भगवान ही हैं ।’

९. साधना में आने पर की गई विभिन्न सेवाएं !

९ अ. गुरुकृपा के कारण किसी भी सेवा के प्रति मन में शंका न आकर उस सेवा को अच्छे ढंग से करने का प्रयास करना : सेवा के प्रति मेरे मन में सदैव आज्ञापालन करने का विचार रहता है। मुझे जो सेवा मिली है, उसे मन से करने का मेरा संपूर्ण प्रयास होता था । वर्ष २००१ कर मेरी प्रथम गुरुपूर्णिमा के समय मुझे मिली हुई पहली सेवा ‘‘चप्पल व्यवस्था’ करने की थी; परंतु मुझ पर इतनी गुरुकृपा थी कि ‘मैं यह सेवा कैसे कर पाऊंगी ? मुझे गुरुपूर्णिमा में आए लोगों के चप्पल उठाकर उन्हें ठीक से रखने पडेंगे’, इस प्रकार का अहं से प्रेरित विचार मेरे मन में एक बार भी नहीं आया, उल्टे ‘यह सेवा मैं अच्छे ढंग से कैसे करूं ?’, यह एकमात्र विचार मेरे मन में था ।

९ आ. मिली हुई प्रत्येक सेवा परिपूर्ण एवं तत्परता के साथ करना : कभी भी किसी ने भी सेवा बताई, तो मैं तुरंत ही वह सेवा करने का प्रयास करती थी । मैं किसी भी सेवा को बहुत मन से स्वीकार कर पा रही थी । चाहे वह शिविर के समय रसोईघर में मिली सेवा हो अथवा सभा के लिए व्यासपीठ की तैयारी की सेवा हो अथवा ग्रंथों की गणना की सेवा हो ! कोई भी सेवा मिली, तो उस सेवा को मैं परिपूर्ण एवं तत्परता के साथ करने का प्रयास करती थी ।

१०. गोवा स्थित सनातन के रामनाथी आश्रम जाने पर अनुभव हुए सूत्र !

१० अ. ‘परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी सवेरे घूमने जाते हैं’, यह ज्ञात होने पर रामनाथी आश्रम से घर वापस जाने के दिन ‘उनके दर्शन हों’, इस उद्देश्य से उनके घूमने के समय बाहर रुककर भी उनके दर्शन न होना : हमारे विवाह की २५ वीं वर्षगांठ के निमित्त हम रामनाथी आश्रम गए हुए थे । मैं प्रतिदिन सवेरे बाहर रुकती थी, उसी समय प.पू. गुरुदेवजी घूमने के लिए जाते थे । हम ३-४ दिन आश्रम में थे । उन सभी दिनों में मुझे उनके दर्शन का लाभ मिला । आश्रम में हमारे निवास के अंतिम दिन उनके दर्शन करने हेतु (मैं तथा मेरी पुत्री मेघा पटेसरिया) उनके घूमने के लिए जाने के समय बाहर रुके । अकस्मात ही कुछ लेने हेतु पुनः मेरे कक्ष में चली गईं, उतने समय में ही गुरुदेवजी घूमने के लिए चले गए । उस समय ‘हमारे द्वारा निर्धारित किए अनुसार कुछ नहीं होता । उससे पूर्व प्रतिदिन उनके दर्शन होते थे’, वह केवल ईश्वर की कृपा थी’, ऐसा मुझे लगा ।

१० आ. विवाह की वर्षगांठ के उपलक्ष्य में खींचे गए छायाचित्र देखकर परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के द्वारा ‘ये छायाचित्र आगे जाकर सहस्रों वर्षाें तक रहेंगे’, ऐसा कहा जाना : विवाह की वर्षगांठ के उपलक्ष्य में परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने हमें भेंटवस्तु दी तथा हमारे छायाचित्र खींचने के लिए कहा । हमारे छायाचित्र देखकर गुरुदेवजी कहने लगे, ‘‘ये छायाचित्र सहस्रों वर्षाें तक चलेंगे’’ उस समय हमें उनकी बातों का भावार्थ समझ में नहीं आया था; परंतु कुछ समय उपरांत जब हमने ग्रंथों एवं फ्लेक्स फलकों पर हम दोनों के छायाचित्र देखें, उस समय उनकी बातों का भावार्थ मेरी समझ में आया ।

११. परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के प्रति श्रद्धा बढानेवाले प्रसंग !

११ अ. बाहर के वातावरण के कारण बच्चों को बुरी आदतें लगीं, तो उन्हें उससे परावृत्त करने की क्षमता श्रीमती खेमकाजी में नहीं होना तथा ‘केवल गुरुकृपा के कारण ही बच्चे उचित पथ पर हैं’, इसका भान होना : ‘प्रत्येक बच्चों के माता-पिता अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा एवं अच्छे संस्कार देने का प्रयास करते हैं; परंतु तब भी कभी-कभी बच्चे भटक जाते हैं तथा व्यसनाधीन होकर अनुचित पथ पर चले जाते हैं । बच्चों को बुरी आदतों से दूर रखने की क्षमता मुझमें निश्चित ही नहीं है; परंतु ‘हमारे पास सबकुछ होते हुए भी बच्चे बुरे सान्निध्य में नहीं गए । वे उचित पथ पर हैं’, यह हम पर गुरुकृपा ही है ।

११ आ. लडकी का विवाह सुनिश्चित करते समय ‘जमाई निर्व्यसनी हो’, ऐसा अंतरमन से लगता तथा परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की कृपा से ‘अच्छा जमाई ही मिलेगा’, यह दृढ श्रद्धा होना : हमारी लडकी मेघा का विवाह सुनिश्चित करते समय ‘उसका पति निर्व्यसनी हो’, ऐसा लग रहा था । किसी ने मुझसे कहा, ‘यदि लडकी की मंगनी के उपरांत ‘लडका मदिरापान करता है’, ऐसा आपको ज्ञात हुआ, तो आप क्या करेंगी ?’ तब मैंने उन्हें कहा, ‘मुझमें मेरे श्री गुरुदेवजी के प्रति इतनी श्रद्धा है कि वे मेघा के लिए वैसा लडका ढूंढेंगे ही नहीं’ तथा वास्तव में भी ऐसा ही हुआ । मेघा के पति को कोई व्यसन नहीं है । ईश्वर की कृपा से प्रतिदिन मुझे एक नई अनुभूति होती है । उस विषय में कितना भी बताया जाए, अल्प ही है ।

११ इ. एक कठिन प्रसंग में फंस जाने पर भी साधना एवं सेवा नियमितरूप से चलती रहना : वर्ष २०११ के अप्रैल के महिने में (मेरी एवं मेरे पति का) ६१ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर घोषित होने के उपरांत मई के महिने से वर्ष २०१४ तक हम एक कठिन प्रसंग में फंसे थे; परंतु गुरुकृपा से इतने कठिन समय में भी हमारे मन में साधना अथवा सेवा के विषय में किसी प्रकार की शंका नहीं आई ।

मेरे मन में गुरुदेवजी के प्रति दृढ श्रद्धा है, ‘गुरुदेवजी हैं, तो सबकुछ अच्छा ही होनेवाला है । परिस्थिति चाहे कैसी भी हो तथा चाहे कितना भी कठिन प्रसंग क्यों न आए, तब भी ‘गुरुदेवजी सबकुछ अच्छा ही करनेवाले हैं ।’

१२. साधना में प्राप्त विशेषतापूर्ण अनुभूति !

१२ अ. वर्ष २०११ में एक शिविर के समय ‘भगवान को नमस्कार करते समय उनका हाथ मेरे मस्तक पर है’, ऐसा प्रतीत होना तथा उसी दिन सायंकाल हम दोनों का ६१ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर घोषित किया जाना : वर्ष २०११ में अनुदीदी (आज की सद्गुरु अनुराधा वाडेकरजी) एवं कु. प्रियांका जोशी (आज की श्रीमती प्रियांका राजहंस – वर्ष २०२३ का आध्यात्मिक स्तर ६८ प्रतिशत) धनबाद में एक शिविर के लिए आए थे ।

वर्ष २०११ में अनुदीदी का आध्यात्मिक स्तर ६९ प्रतिशत था । (२८.१०.२०११ को अनुदीदी का आध्यात्मिक स्तर ७१ प्रतिशत होकर वे समष्टि संत बन गईं तथा ३०.७.२०१५ को वे सद्गुरु बन गईं ।) शिविर की अवधि में ‘भगवान को नमस्कार करते समय मेरे मस्तक पर भगवान का हाथ है’, ऐसा मुझे प्रतीत होता था । एक दिन जब मैं अनुदीदी की चोटी बना रही थी, उस समय वे कहने लगीं, ‘‘जब आप ध्यान मंदिर में भगवान को नमस्कार कर रही थीं, उस समय ‘आपके मस्तक पर भगवान का हाथ है’, ऐसा मुझे प्रतीत हुआ । यह सुनकर मैं इतनी आनंदित हुई कि मैं उसका शब्दों में वर्णन नहीं कर सकती । मुझे भी ऐसी ही अनुभूति हो रही थी तथा अनुदीदी ने भी अक्षरशः वही बताया । उसी दिन सायंकाल के एक कार्यक्रम में पहले पति का तथा उनके उपरांत मेरा आध्यात्मिक स्तर ६१ प्रतिशत घोषित किया गया ।

१२ आ. सेवा करते समय अधिकांश बार मेरा मन निर्विचार एवं शांत होता है ।’

(क्रमश:)

– (पू.) श्रीमती सुनीता खेमकाजी, कतरास, झारखंड (२.१.२०२०)