मनोलय हुए संतों की कृति का मानसिक स्तर पर अर्थ न निकालें !
‘अनेक बार कुछ संतों का आचरण देखकर कुछ लोगों को लगता है, ‘क्या वे मनोविकार से पीडित हैं ?’, ऐसे समय में यह ध्यान रखना चाहिए कि संतों का मनोलय हो चुका होता है । इसलिए उन्हें कभी भी मनोविकार नहीं होते । उनका आचरण उस परिस्थिति के लिए आवश्यक अथवा उनकी प्रकृतिनुसार होता है । सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि संत ईश्वर के सगुण रूप होते हैं, इसलिए उनके आचरण का कार्यकारणभाव सामान्य व्यक्ति द्वारा समझ पाना कठिन होता है ।’
– (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले (१८.११.२०२१)
सिखानेवाले और निरंतर सीखने की स्थिति में रहनेवाले सनातन के संत !
‘अधिकांश संत उन्हें ‘संत’ की उपाधि प्राप्त होने के उपरांत सिखाने की स्थिति में रहते हैं । इसलिए उनसे ‘अगले स्तर की साधना सीखना, साधना के विविध पहलू और उनकी सूक्ष्मता पूछकर आत्मसात करना’, ऐसी कृतियां नहीं होतीं । इसके विपरीत, सनातन के संतों को ‘अध्यात्म अनंत का शास्त्र है’, यह ज्ञात होने से वे निरंतर सीखने की स्थिति में रहते हैं ।’
– (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले (३.११.२०२१)
अध्यात्म में स्त्रियां पुरुषों की तुलना में एक स्तर आगे होने का कारण
‘अधिकांश पुरुष कार्य के निमित्त रज-तमप्रधान समाज में रहते हैं । इसका उनपर परिणाम होने से वे भी रज-तमयुक्त होते हैं । इसके विपरीत, अधिकांश स्त्रियां घर में रहती हैं । उनका समाज के रज-तम से संपर्क नहीं होता । इसलिए वे साधना में शीघ्र प्रगति करती हैं ।’
– (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले (१४.११.२०२१)