महाकुम्भ मेला : क्या है इसका विज्ञान ?

भारतीय संस्कृति इस धरती पर सबसे जटिल और रंगबिरंगी संस्कृति है । यदि आप ध्यान से देखें, तो पाएंगे कि प्रत्येक पचास से सौ किलोमीटर पर लोगों के जीने की पद्धति ही बदल जाती है । एक स्थान ऐसा है जहां इस जटिल संस्कृति को आप बहुत निकट से देख सकते हैं, वह है – कुम्भ मेला ।

यहां देश के भिन्न-भिन्न भागों से आए नाना प्रकार के लोग चारों ओर बैठे मिलते हैं । उनके पास सोने की कोई जगह नहीं होती, इसलिए वे अलग-अलग जगहों पर आग जलाकर उसके चारों ओर बैठकर, अपनी भाषा व बोली में अपनी-अपनी संस्कृति और परंपरा के गीत गाते हुए नृत्य करते हैं । मानव जाति के सबसे अधम व्यक्ति से लेकर उत्तम व्यक्ति, सभी वहां उपस्थित होते हैं । हजारों वर्षों से लोग इसी प्रकार यहां एकत्रित होते आ रहे हैं । इसका एक अपना सामाजिक आधार होने के साथ-साथ विशेष आध्यात्मिक शक्ति भी है ।

पृथ्वी और चंद्रमा अपने कालचक्रों में घूमते रहते हैं, जिसका प्रभाव प्रत्येक व्यक्ति पर भी पडताहै । परंतु ये कालचक्र, जीवन के एक चक्र से दूसरे चक्र की यात्रा के समय या तो आपके लिए बंधनकारी हो सकते हैं अथवा अपनी सीमाओं के पार जाने के माध्यम बन सकते हैं । ये कालचक्र कई प्रकार के होते हैं तथा इनमें सबसे लंबा है १४४ वर्ष का । १४४ वर्ष में एक बार ऐसा होता है जब सौरमंडल में कुछ विशिष्ट घटनाएं होती हैं, जो आध्यात्मिक दृष्टि से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होती हैं और इन्हीं अवसरों पर महाकुम्भ मेले का आयोजन होता है । पिछला महाकुम्भ मेला वर्ष २००१ में हुआ था ।

कुम्भ मेले देश के उन कुछ विशेष क्षेत्रों में आयोजित किए जाते हैं, जहां एक संपूर्ण ऊर्जामंडल तैयार होता है । चूंकि हमारी पृथ्वी अपनी धुरी पर घूम रही है, इसलिए यह एक ‘अपकेंद्रिय बल’ यानी केंद्र से बाहर की ओर फैलनेवाली ऊर्जा उत्पन्न करती है । पृथ्वी के ० से ३३ डिग्री अक्षांश में यह ऊर्जा हमारे तंत्र पर मुख्य रूप से लंबवत व ऊर्ध्व दिशा में कार्य करती है । विशेषकर ११ डिग्री अक्षांश पर तो ऊर्जाएं बिल्कुल सीधे ऊपर की ओर जातीं हैं । इसलिए हमारे प्राचीन गुरुओं और योगियों ने गुणा-भाग कर पृथ्वी पर ऐसे स्थानों को निश्चित किया, जहां व्यक्ति पर किसी विशेष घटना का अत्यधिक प्रभाव पडता है । इनमें से अनेक स्थानों पर नदियों का समागम है और इन स्थानों पर स्नान का विशेष लाभ भी होता है । यदि किसी विशेष दिन कोई व्यक्ति वहां रहता है, तो उसके लिए दुर्लभ संभावनाओं के द्वार खुल जाते हैं । इसलिए इन अवसरों का लाभ उठाने के लिए लोग वहां पहुंचते हैं ।

हमारे देश में सदा मोक्ष ही परम लक्ष्य रहा है । हमारी संस्कृति में आंतरिक विज्ञान को जितनी गहराई से समझा गया है, ऐसी समझ पृथ्वी पर किसी दूसरी संस्कृति में नहीं मिलती । यही कारण है कि इस देश को सदा विश्व की ‘आध्यात्मिक राजधानी’ के रूप में भी जाना जाता रहा है !

(साभार : नवभारत टाइम्स)

‘कुम्भमेले में सिद्धपुरुष, एवं शस्त्रधारी अखाडों के सन्त-महन्तों के दर्शन होते हैं । उनसे बातचीत करने पर समझ में आता है कि वे ज्ञान तथा अनुभवों के साक्षात हिमालय हैं । ऐसा होते हुए भी उनकी नम्रता, प्रीति से भरी दृष्टि, सभी को अपने में समा लेनेवाले सागर के समान विशाल होती है ।’ (पाक्षिक ‘सांस्कृतिक वार्तापत्र’, ‘महाकुम्भ विशेषांक’,१५.८.२००३)
त्रेतायुग में श्रीराम, सीता एवं लक्ष्मण इस त्रिवेणी संगम पर आए थे । उन्होंने यहां स्नान किया और त्रिवेणी संगम की पूजा की । (‘श्रीराम सीता और लक्ष्मण के साथ प्रयाग गए थे’, ऐसा उल्लेख वाल्मिकी रामायण में अयोध्या कांड, सर्ग ५४, श्लोक क्र. २ से ८, इन श्लोकों में पाया जाता है ।’ – संकलनकर्ता)