हिन्दू राष्ट्र की स्थापना केवल हिन्दुओं के लिए ही नहीं, अपितु अखिल मानवजाति के लिए आवश्यक है । हिन्दू राष्ट्र संपूर्ण मानवजाति एवं सृष्टि को बचा सकता है । ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि से हिन्दू राष्ट्र के लिए ग्रहों की स्थिति अनुकूल है । आगामी समय आपातकाल होने से हमारी रक्षा के लिए सभी को साधना बढाकर सतर्कता रखना आवश्यक है ।
१. भगवान श्रीकृष्णजी ने अपनी कनिष्ठिका (छोटी उंगली) पर गोवर्धन पर्वत उठाया था । तब सभी गोपियों ने उसे अपनी लकडियां भी लगाइ थी । तब उन्हें लगा, ‘श्रीकृष्णजी यह सब माया कर रहे हैं ।’ तब भगवानने अपनी कनिष्ठिका जरासी बाजु पर हटाई । तब पर्वत नीचे आया तथा भगवानने पुनः उसे कनिष्ठिका पर उठाया ।
२. तदनंतर गोपियों को लगा, ‘भगवानने पर्वत को उठाया है, तो हम लकडियां क्यों लगाएं ?’ इसलिए उन्होंने लकडियां नीकाल दीं । तब भी पर्वत नीचे आया । इस पर से यदि हम कर्तव्य कर्म करते हैं, तो ही भगवान की कृपा होगी, यह बात स्पष्ट होती है ।
३. ठीक उसी प्रकार हिन्दू राष्ट्र की स्थापना भगवान करनेवाले ही हैं; परंतु उसके लिए हमें भी हमारा कर्तव्य करना ही पडेगा ।
अ. आचार्य मिश्र में शिष्यत्व अर्थात निरंतर सिखने की वृत्ति है । वे सिखने के माध्यम से आनंद का अनुभव करते हैं तथा उससे उनकी साधना भी होती है । आ. साधना के कारण आचार्य मिश्र में सूक्ष्म से जानने की अच्छी क्षमता विकसित हुई है; उसके कारण उन्हें वैश्विक स्तर की गतिविधियों का बडी सहजता से आंकलन होता है । इस प्रक्रिया में कुछ जीव उन्हें सूक्ष्म विचार देकर उनकी सहायता करते हैं, साथ ही उन पर एक संत की विशेष कृपा है । वे आचार्य मिश्र की सूक्ष्म से सहायता करते हैं । इ. आचार्य मिश्र ज्ञानी, विनम्र एवं प्रतिभाशाली हैं तथा उनमें धर्म एवं देवताओं के प्रति बहुत भाव है । उनमें विद्यमान भाव के कारण उन्हें संतों की निरंतर कृपा एवं ईश्वरी आशीर्वाद मिलता रहता है । उसके कारण उन्हें शक्ति के बल पर कार्य करना संभव होता है । ई. आचार्य मिश्र नियमितरूप से व्यष्टि साधना करते हैं, उसके कारण उनके इर्द-गिर्द सूक्ष्म से पीले रंग का प्रभामंडल सतत कार्यरत होता है । उ. उन्हें ज्योतिषविद्या का बहुत ज्ञान है; परंतु उनमें उसका अहं नहीं है । ऊ. गणेशजी की कृपा के कारण कभी-कभी उन्हें सूक्ष्म से ज्ञान प्राप्त होता है । उसके कारण उनकी भविष्यवाणी में अचूकता अधिक मात्रा में होती है ।’ – श्री. राम होनप, कु. मधुरा भोसले (आध्यात्मिक स्तर ६४ प्रतिशत) एवं श्री. निषाद देशमुख (आध्यात्मिक स्तर ६२ प्रतिशत) (सूक्ष्म से प्राप्त ज्ञान), सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (१६.६.२०२३) |
इस अंक में प्रकाशित अनुभूतियां, ‘जहां भाव, वहां भगवान’ इस उक्ति अनुसार साधकों की व्यक्तिगत अनुभूतियां हैं । वैसी अनूभूतियां सभी को हों, यह आवश्यक नहीं है । – संपादक सूक्ष्म : व्यक्ति के स्थूल अर्थात प्रत्यक्ष दिखनेवाले अवयव नाक, कान, नेत्र, जीभ एवं त्वचा, ये पंचज्ञानेंद्रिय हैैं । जो स्थूल पंचज्ञानेंद्रिय, मन एवं बुद्धि के परे है, वह ‘सूक्ष्म’ है । इसके अस्तित्व का ज्ञान साधना करनेवाले को होता है । इस ‘सूक्ष्म’ ज्ञान के विषय में विविध धर्मग्रंथों में उल्लेख है । आध्यात्मिक कष्ट : इसका अर्थ है व्यक्ति में नकारात्मक स्पंदन होना । यदि व्यक्ति में नकारात्मक स्पंदन ५० प्रतिशत अथवा उससे अधिक मात्रा में है, तो उसे तीव्र कष्ट कहा जाता है; नकारात्मक स्पंदन ३० से ४९ प्रतिशत होना अर्थात मध्यम कष्ट; तथा नकारात्मक स्पंदन ३० प्रतिशत से अल्प होना, अर्थात मंद आध्यात्मिक कष्ट । आध्यात्मिक कष्ट प्रारब्ध, पितृदोष इत्यादि आध्यात्मिक स्तर के कारणों से होता है । किसी व्यक्ति के आध्यात्मिक कष्ट को संत अथवा सूक्ष्म स्पंदन समझनेवाले साधक पहचान सकते हैं । |