हमें श्री गुरु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करनी चाहिए । गुरु अर्थात केवल देहधारी व्यक्ति नहीं, अपितु वह एक तत्त्व है । गुरुतत्त्व को हमसे क्या अपेक्षित है, यह जानकर लेंगे और उसके अनुसार प्रयास करेंगे ।
भारत की विशेषता गुरु-शिष्य परंपरा है । इस गुरु-शिष्य परंपरा से केवल आत्मोन्नति का व्यष्टि ध्येय ही साकार नहीं किया है, अपितु समष्टि स्तर पर राष्ट्र और धर्म के संरक्षण के लिए, तथा जनसामान्य में धर्म-अध्यात्म-भक्ति का भी प्रसार कार्य किया है । भगवान श्रीकृष्ण-अर्जुन, आर्य चाणक्य-चंद्रगुप्त, विद्यारण्यस्वामी-हरिहरराय, समर्थ रामदास-छत्रपति शिवाजी महाराज ऐसे कितने ही उदाहरण हैं । आज का काल युगपरिवर्तन का अर्थात धर्मस्थापना का काल है । पिछले कुछ वर्षाें में समाज में धर्मियों के विरुद्ध अधर्मियों का, राष्ट्रभक्त के विरुद्ध राष्ट्रविरोधियों का ध्रुवीकरण हो रहा है । ध्रुवीकरण के इस काल में तटस्थ भूमिका लेकर नहीं चलेगा, अपितु धर्म की ओर से चट्टान के समान अटल खडे रहना चाहिए । इसके लिए हमें सर्वप्रथम धर्म क्या है, यह समझना होगा ।
१. धर्म क्या है ?
धर्म अर्थात पंथ नहीं है, सनातन हिन्दू वैदिक धर्म यही एकमेव धर्म है । धर्म का अर्थ केवल पूजाअर्चना अथवा ग्रंथ पठन नहीं है, व्यक्ति के आचार-विचार के साथ जीवन के प्रत्येक अंग के साथ धर्म जुडा है । श्री शंकाराचार्यजी ने धर्म की व्याख्या इस प्रकार की है, ‘जिससे समाजव्यवस्था उत्तम रहे, प्रत्येक प्राणीमात्र की ऐहिक और पारमार्थिक प्रगति हो, यह जिससे साध्य होता है वह धर्म है’, धर्मशास्त्रकारों के मत के अनुसार ‘धर्म’ शब्द में प्रत्येक व्यक्ति द्वारा स्वयं का तथा समाज का विकास करने के लिए करने योग्य कृत्य तथा पालन करने योग्य आचार-नियमों का समावेश होता है । धर्म शब्द का अर्थ ‘वर्णाश्रमानुसार व्यक्ति के जीवन में आए अथवा व्यक्ति ने धारण किए कर्तव्य’ ऐसे भी है । कोई पुरुष गृहस्थ आश्रम में है, तो अपने माता-पिता की सेवा उसका ‘पुत्रधर्म’ है । पत्नी की रक्षा करना ‘पतिधर्म’, तथा बच्चों का पालन करना और उनपर सुसंस्कार करना ‘पिताधर्म’ होगा ।
२. धर्म का विलोप
आज सभी ओर धर्म लोप होता हुआ दिखाई दे रहा है । पति द्वारा पत्नी पर अत्याचार हो रहे हैं, पति अथवा पत्नी विवाहबाह्य संबंध रखते हैं, माता-पिता को वृद्धाश्रम का रास्ता दिखाया जाता है, इस स्वरूप की घटनाएं समाज में आए दिन हो रही हैं । इसका कारण है परिवार के सदस्य उनके कर्तव्य का पालन नहीं करते अथवा दायित्व नहीं निभाते । धर्म जैसे व्यक्तिगत-पारिवारिक जीवन में लुप्त होता जा रहा है । वैसे ही वह सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन से भी लुप्त होता दिख रहा है । प्रजा का पालन-पोषण और रक्षा करना, राजा का अर्थात राजनेताओं का धर्म है; पर आज लोकतंत्र की व्यवस्था में जनता में धर्म का स्थान ही न होने के कारण प्रजा को सुख-समृद्धि और सुरक्षा अनुभव नहीं होती ।
समाज के विविध घटकों द्वारा कर्तव्यरूपी धर्म लुप्त होने के कारण हमें मानसिक तनाव होने लगता है । उदाहरणार्थ, प्रतिदिन हमें मिलनेवाले दूध में मिलावट होती है, पेट्रोल भरते समय माप में धोखा होता है, सरकारी काम करने के लिए कितना अधिक समय लगता है, पुलिस के द्वारा परिवाद प्रविष्ट नहीं किया जाता, ऐसा प्रत्येक क्षेत्र में हमें अनुभव होता है । इसलिए इसे ‘लोकतंत्र’ कहें, ऐसा कुछ भी होते हुए दिखाई नहीं दे रहा है ।
समाज और राष्ट्र व्यवस्थित चलाने के लिए धर्म के अधिष्ठान की सभी क्षेत्रों में आवश्यकता है । व्यक्तिगत अथवा सामाजिक जीवन में धर्म का अधिष्ठान आने से व्यक्ति नीतिवान बनता है और कुछ भी अनुचित करने से बचता है । इसलिए धर्म का अधिष्ठान हुआ, तो ही आदर्श समाज की निर्मिति हो सकती है, यह हमें ध्यान में रखना चाहिए और उस दृष्टि से प्रयत्न करना चाहिए ।
३. धर्मनिष्ठ समाज के उदाहरण
हिन्दवी स्वराज्य स्थापना के काल में एक किले पर स्वर्ण मुद्राओं से भरा मिला हंडा किले के मावळों ने छत्रपति शिवाजी महाराज को सौंप दिया था । राजा और प्रजा दोनों ही नीतिवान हों ! ‘यथा राजा तथा प्रजा’ इस न्याय के अुनसार पहले के राजा धर्मनिष्ठ होने के कारण प्रजा भी धर्मनिष्ठ अर्थात नीतिवान होती थी । ऐसे हजारों उदाहरण हमें हमारे इतिहास में मिलते हैं ।
४. धर्म का विलोप होने के कारण, परिणाम और समाधान योजना
सौ-डेढ सौ वर्ष पूर्व तक समाज में ऐसी श्रद्धा थी कि कोई चूक हुई तो पाप लागता है और पुण्य करने से मृत्यु के उपरांत सद्गति मिलती है । इसलिए अपराधों का प्रमाण अल्प था । आज केवल पाप-पुण्य की संकल्पना को झूठा समझा जाता है । धर्म क्या है, धर्म क्या बताता है, इसकी शिक्षा न तो विद्यालयों-महाविद्यालयों में मिलती है, न मंदिरों में, न हमारे घरों में ! विद्यालय में नीतिवान होने के लिए क्या करें, अच्छा नागरिक बनने के लिए क्या करें, यह नहीं सिखाया जाता । इसके फलस्वरूप आज देश और धर्म की दुःस्थिति हुई है । सभी ओर रज-तमप्रधान वातावरण निर्माण हुआ है ।
५. हिन्दू राष्ट्र की आवश्यकता
धर्मनिष्ठ समाज की निर्मिति के लिए समाज में धर्माचरण, उपासना, नैतिकता आदि का प्रसार कर समाज से उस दिशा में प्रयत्न करवाने होंगे । इसके लिए राष्ट्र की व्यवस्था भी धर्माधिष्ठित होनी चाहिए । पहले के समय में राजा धर्मगुरुओं के मार्गदर्शनानुसार राष्ट्र का कार्यभार संभालते थे । राजा अधर्म से व्यवहार करे, तो राजा को भी दंडित किया जाता था । आज भारत की ‘सेक्युलर’ व्यवस्था में सनातन धर्म को प्रतिष्ठा और राजाश्रय नहीं है ।
धर्म के अधिष्ठान के लिए मंदिर संस्कृति को पुनर्जीवित करना चाहिए । पहले मंदिरों के लिए राजा-महाराजा दान करते थे; आज मंदिरों का सरकारीकरण कर मंदिरों की देवताओं की निधि लूटी जाती है । आज हमें एक-एक धर्मस्थल की मुक्ति के लिए लंबा संघर्ष करना पडता है । ५०० वर्षाें के लंबे संघर्ष के उपरांत अयोध्या में राममंदिर की निर्मिति हो रही है । आज काशी-विश्वेश्वर की मुक्ति के लिए लडाई आरंभ है और श्रीकृष्ण जन्मभूमि, तेजोमहालय अर्थात ताजमहल, विष्णुस्तंभ अर्थात कुतुब मीनार आदि हिन्दुओं के सैकडों धर्मस्थल इस्लामी अतिक्रमण से मुक्त होने की प्रतिक्षा कर रहे हैं ।
आज अनेक मंदिर ‘सेक्युलर’ सरकार की नियंत्रण में हैं । वहां पूजापाठ, धार्मिक परंपरा मेें सरकार हस्तक्षेप करती है । जब हिन्दुओं के धर्मस्थल ही मुक्त नहीं हैं, वह धर्मशिक्षा के केंद्र नहीं हैं, तो धर्मनिष्ठ समाज की निर्मिति कैसे होगी ? इसके लिए सेक्युलर नहीं, ‘हिन्दू राष्ट्र’ की आवश्यकता है । वर्तमान की धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था में भ्रष्टाचार का प्रथम स्थान है । वर्ष २०२१ के आंकडों के अनुसार भ्रष्टाचार के निर्देशांक में भारत १८० देशों में से ८५ वें स्थान पर था । हमें समाचारपत्र में हत्या, बलात्कार, अग्निकांड, दंगे, भ्रष्टाचार के समाचार पढने को मिलते हैं । आज राजनीतिज्ञों का ही अपराधीकरण हुआ है । गंभीर अपराध प्रविष्ट सांसदों की संख्या इन दस वर्षाें में १०९ प्रतिशत बढ गई है । जब देश का कानून बनानेवाले ही अपराधी वृत्ति के होंगे, तो क्या उनसे न्यायपूर्ण राष्ट्र की अपेक्षा कर सकते हैं ? वास्तव में राजधर्म क्या है ? प्रजा के कर्तव्य कौन से हैं, शासनव्यवस्था कैसी होनी चाहिए, प्रशासन कैसा हो, न्यायप्रणाली कैसी हो, इसका विस्तार से वर्णन हमारे धर्मग्रंथों में किया है; उसका अज्ञान, तथा अनास्था होने के कारण उसके अनुसार राजकाज नहीं किया जाता है । धर्म राष्ट्र के प्राण हैं, धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था में यह प्राण ही निकल गए हैं, ऐसी स्थिति है । इसलिए राष्ट्र का खरे अर्थाें में उत्थान करने के लिए धर्माधिष्ठित हिन्दू राष्ट्र की आवश्यकता है । हिन्दू राष्ट्र में समाज का हित साध्य किया जाता है ।
५ अ. हिन्दूविरोधी घटना :
१. हिन्दू बहुसंख्य भारत में ‘लव जिहाद’, ‘लैंड जिहाद’, ‘थूक जिहाद’ के षड्यंत्र चल रहे हैं । ‘किले जिहाद’ के माध्यम से हिन्दवी स्वराज्य के साक्षीदार किलों-दुर्गाें पर अवैध दरगाहें, मस्जिदें निर्माण की जा रही हैं ।
२. हिन्दुत्वनिष्ठों की हत्याओं का क्रम थमा नहीं है । कुछ महिनों पूर्व कमलेश तिवारी, हर्ष, श्रीनिवासन् आदि हिन्दू नेताओं की दिनदहाडे हत्याएं हुईं । अभी राजस्थान के उदयपुर में नुपूर शर्मा का समर्थन करनेवाली पोस्ट करने से कन्हैयालाल हिन्दू टेलर की दिनदहाडे हत्या की गई । उस दिन महाराष्ट्र के अमरावती में भी इसी कारण से उमेश कोल्हे मेडिकल चालक हिन्दू की हत्या की गई, पर इस समाचार को दबाने का प्रयत्न हुआ । इसलिए वह सब तक नहीं पहुंचा ।
३. आज धर्मांतरण भी बडी मात्रा में जारी है । कुछ दिन पूर्व तमिलनाडु में लावण्या नामक एक निर्धन विद्यार्थी को धर्मांतरण के दबाव के कारण आत्महत्या करनी पडी ।
४. इस वर्ष श्रीराम नवमी और हनुमान जयंती के निमित्त निकाली गई शोभायात्राओं पर आक्रमण कर दंगे किए गए ।
५. कुछ समय पहले ‘जमीयत उलेमा-ए-हिंद’ के प्रमुख मौलाना महमूद मदनी ने ‘समान नागरिक कानून के आधार पर शरीया में हस्तक्षेप नहीं चलेगा । हिन्दुओं को अच्छा नहीं लगता तो हिन्दू भारत छोडकर निकल जाएं’, ऐसे सार्वजनिक रूप से धमकाया था । मुसलमानों ने धमकाकर कश्मीर से हिन्दुओं को बाहर निकाला, अब शेष भारत से निकालने की उनकी यह धमकी है । ऐसी स्थिति में हिन्दू समाज की रक्षा के लिए ‘हिन्दू राष्ट्र’ की ही आवश्यकता है ।
६. नियमित धर्माचरण एवं साधना करें !
हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करनी हो, तो पहले अपने आचरण में हिन्दू राष्ट्र आना चाहिए, तब ही उसे प्रत्यक्ष में ला सकेंगे । आज हमारे आचार-विचाराें का भी पश्चिमीकरण हुआ है । हमारा आहार-विहार, वस्त्र, संभाषण पर अभारतीय संस्कारों का प्रभाव है । उदाहरण के लिए, अपनी भारतीय संस्कृति में शुभ अवसरों पर दीया बुझाने की संस्कृति नहीं है, अपितु दीया प्रज्वलित करना सिखाया गया है । पर हम अपना जन्मदिन पाश्चात्य संस्कृति के अनुसार मोमबत्ती बुझाकर मनाते हैं । भोजन के पूर्व हाथ जोडकर प्रार्थना की जाती है; परंतु आज ऐसा कहीं भी देखने को नहीं मिलता है । आजकल मस्तक पर कुमकुम लगाना भी कठिन हो गया है । परिणामस्वरूप नित्य धर्माचरण करने से मिलनेवाले चैतन्य और तेज से हम वंचित हो गए हैं । पहले के समय में समाज धर्माचरणी था, इसलिए वह तेजस्वी था ।
‘सुखस्य मूलं धर्मः ।’, अर्थात सुख का मूल धर्माचरण में है । दैनंदिन धार्मिक कृति, उदा. पूजा-अर्चना, त्योहार एवं उत्सवों का शास्त्र समझकर उन्हें मनाना, इसके साथ ही कुलाचार एवं कुलपरंपराओं को संजोना, इसे ही ‘धर्माचरण’ कहते हैं । हिन्दू संस्कृति के विविध उपासनामार्ग, त्योहार-उत्सव, आचार-विचार, आहार-विहार की पद्धतियों से ही नहीं; अपितु दैनंदिन जीवन की प्रत्येक कृति से ही सत्त्वगुण बढेगा, अर्थात साधना होगी । ऐसी योजना हिन्दू धर्म में है । यह हिन्दू धर्मसंस्कृति की महत्त्वपूर्ण विशेषता है । आज के काल में धर्माचरण संबंधी कुछ बातें करना, हमारे लिए अनिवार्य है ।
अ. गोल टोपियां पहनकर घूमनेवालों को लाज नहीं आती; परंतु माथे पर तिलक लगाने के लिए हमें लाज आती है । धर्माचरण के रूप में प्रतिदिन महिलाओं को कुमकुम एवं पुरुषों को तिलक लगाना चाहिए ।
आ. हमें दिन में कम से कम ५ बार ‘हे श्रीकृष्ण, राष्ट्र एवं धर्म की रक्षा करें ! शीघ्र से शीघ्र भारत में ‘हिन्दू राष्ट्र’ की स्थापना करें !’, ऐसी प्रार्थना करनी चाहिए ।
इन जैसी अनेक कृतियां हम नियमित करते गए, तो समाज धर्माचरण की ओर मुडेगा ।
७. हिन्दू संस्कृति की रक्षा के लिए धर्माचरण एवं साधना आवश्यक !
धर्माचरण एवं साधना से क्या होता है ? तो छत्रपति शिवाजी महाराज समान चरित्र निर्माण होता है । राजमाता जीजाबाई ने छत्रपति शिवाजी महाराज को रामायण, महाभारत जैसे धर्मग्रंथों की कथाएं सुनाकर उनपर धार्मिक संस्कार किए, गोरक्षा के संस्कार किए, महिलाओं की रक्षा के संस्कार किए, इसके साथ ही कुलोपासना एवं साधना का संस्कार किया । इसलिए महाराज तुळजा भवानी का सतत नामजप करते थे । उन्होंने समर्थ रामदासस्वामी एवं संत तुकाराम महाराजजी की आज्ञा अनुसार राज्य किया । धर्माचरणी महाराज ने राजधर्म का पालन करते हुए प्रजा की रक्षा की । कुलोपासना एवं साधना करने के कारण मां भवानी ने उन्हें तलवार दी । इस भवानी तलवार से महाराज ने इस्लामी पातशाहियों का नाश किया ।
धनुर्धारी अर्जुन भी भगवान श्रीकृष्ण के परमभक्त थे । उसका प्रत्येक बाण लक्ष्यवेध करता था; अर्जुन निरंतर ‘श्रीकृष्ण, श्रीकृष्ण’, नामजप करते थे । अर्जुन ने श्रीकृष्णभक्ति के सामर्थ्य पर पांडवों को महाभारत युद्ध में विजयी बनाया । हमें भी ऐसे धर्माचरण एवं ईश्वर की भक्ति कर धर्मसंस्कृति की रक्षा करनी है । ऐसा करना कालानुसार धर्मपालन ही है ।
साधना अर्थात ईश्वरप्राप्ति के लिए प्रतिदिन किए जानेवाले प्रयत्न । साधना से व्यक्ति तनाव रहित एवं आनंदी जीवन बिता सकता है । साधना के कारण मनुष्य सदाचारी एवं धर्मनिष्ठ होता है । धर्म के प्रति निष्ठा रखनेवाला व्यक्ति हिन्दू धर्म की हानि स्वयं नहीं करता और दूसरों द्वारा की हुई हानि भी उसे सहन नहीं होती; इसीलिए धर्मरक्षा का खरा कार्य साधना करनेवाला व्यक्ति ही कर सकता है । साधना से आत्मबल जागृत होता है । आत्मबल जागृत हुए व्यक्ति से हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का कार्य परिणामकारक हो सकता है, इसके साथ ही इस कार्य को ईश्वर का आशीर्वाद भी मिलता है ।
भगवान का अधिष्ठान भगवान के नामस्मरण से निर्माण होता है । इसके लिए नामसाधना करना आवश्यक है । भगवान के नामस्मरण से, भक्ति से उस देवता की शक्ति हमें मिलती है एवं हमने जो कार्य हाथ में लिया है उसे सफलता मिलती है । हमें हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करनी है, तो हम प्रत्येक को छत्रपति शिवाजी महाराजजी समान साधना कर, ईश्वरीय अधिष्ठान रखकर हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का कार्य करना चाहिए, तब ही हमें सफलता मिलेगी ।
आज प्रत्येक व्यक्ति धर्माचरण करने लगा, उपासना करने लगा, तो ही वह धर्मनिष्ठ होगा । ऐसे धर्मनिष्ठ व्यक्तियों के समूह से धर्मनिष्ठ समाज की निर्मिति हो सकती है । धर्मनिष्ठ होने के लिए धर्म के अनुसार बताई उपासना अर्थात साधना करना अनिवार्य है । संतों ने बताया है कि कलियुग में ‘नामजप’ कालानुसार सर्वाेत्तम साधना है । इस दृष्टि से साधना के आरंभ के चरण में हमें कुलदेवी का नामजप करना चाहिए ।
‘यतो धर्मस्ततो जयः ।’, अर्थात ‘जहां धर्म होता है, वहां विजय होती है’, यह धर्मवचन हमें सार्थक करना है । केवल हिन्दू धर्मसंस्कृति की रक्षा करना, हमारा इतना ही संकीर्ण ध्येय नहीं है । ‘कृण्वन्तो विश्वम् आर्यम् ।’, अर्थात ‘अखिल विश्व सुसंस्कृत करूंगा’, ऐसी हमारे पूर्वजों की घोषणा थी । उसे सार्थक करने का धर्मकर्तव्य हमें संपन्न करना है ।
८. सर्वस्व का योगदान देने का निश्चय करें !
भारत स्वयंभू हिन्दू राष्ट्र है; वर्ष १९७६ मेें आपातकाल के समय जब विरोधी पक्ष कारागार में था, तब कांग्रेस ने संविधान में परिवर्तन कर ‘सेक्युलर’ शब्द संविधान की प्रस्तावना में घुसा दिया । अब पुन: एक बार संविधान में संशोधन कर भारत को ‘हिन्दू राष्ट्र घोषित किया जाए । ऐसी मांग हमें संगठित रूप से करनी चाहिए । यह मांग गुरुपरंपरा को अपेक्षित धर्मस्थापना के कार्य का ही भाग है । इसलिए इस गुरुपूर्णिमा के निमित्त हम धर्मनिष्ठ होने का संकल्प करेंगे ।
संतों के बताए अनुसार वर्ष २०२५ में कालमहिमा के अनुसार भारत में हिन्दू राष्ट्र की स्थापना होने ही वाली है; पर इस कार्य में हम सहभागी हुए, तो श्री गुरु की कृपा हमपर होगी ही । जिस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत करांगुली पर धारण किया, तब गोप-गोपियों ने भी उनकी क्षमता के अनुसार लाठियां लगाई थीं, उसी प्रकार हमें कार्य करना है । कालमहिमा के अनुसार अभी आपातकाल आरंभ हुआ है । अभी हमने कोरोना महामारीरूपी आपातकाल अनुभव किया । कोरोना की तीव्रता अभी कम हुई है । तो भी यह संकट अभी भी पूर्ण रूप से गया नहीं है । हजारों वर्ष पूर्व लिखी गईं जीवनाडी पट्टियों में बताया है कि आनेवाले काल में ‘कोरोना से भी महाभयंकर महामारी आएगी, प्राकृतिक आपत्तियों के माध्यम से हजारों लोग मृत्यु को प्राप्त होंगे, तथा महाभयंकर तीसरा विश्वयुद्ध होकर विनाश होगा’, ऐसा । आज रशिया-यूक्रेन युद्ध के निमित्त से विश्व २ गुटों में बंट गया है । चीन-ताइवान में भी संघर्ष आरंभ है । आज की वैश्विक स्थिति इतनी अस्थिर है कि तीसरा विश्वयुद्ध कब आरंभ हो जाएगा, वह कह नहीं सकते । यह पूरा आपातकाल ही है । यह आपातकाल बीत जाने पर हिन्दू राष्ट्र की सुनहरी सुबह होनेवाली है; पर इस आपातकाल को पार करने के लिए, हमारे पास साधना का अर्थात धर्म का बल होना आवश्यक है । इसलिए हम काल के अनुसार साधना करेंगे, धर्मनिष्ठ समाज की निर्मिति के लिए प्रयत्न करेंगे, तथा हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए अपना समय, अपने कौशल का योगदान देने का निश्चय करेंगे । उसके लिए समर्पित होने की प्रेरणा, बुद्धि, शक्ति और भक्ति हम सब को मिले । कालानुसार यही हमारी गुरुदक्षिणा है ।
– (सद्गुरु) नंदकुमार जाधव, धर्मप्रचारक, सनातन संस्था