
‘मैंने जब साधना आरंभ की, उस समय मैं सूक्ष्म से मिलनेवाले ज्ञान पर अधिक बल देता था । उस ज्ञान के आधार पर मेरे कुछ ग्रंथ भी प्रकाशित हुए । अब मैं अध्यात्मशास्त्र के संदर्भ में अन्यों द्वारा लिखे ग्रंथों का लेखन चुनने को प्रधानता दे रहा हूं; क्योंकि उसमें स्वयं को मिलनेवाले ज्ञान की तुलना में अधिक मात्रा में ज्ञान मिल रहा है । ईश्वर से मिलनेवाले ज्ञान का माध्यम भले ही बदला हो, तब भी दोनों माध्यमों से ज्ञान ही मिलता है; इसलिए उसमें किसी प्रकार की हीनता की भावना प्रतीत नहीं होती, अपितु उसके विपरीत कुछ नया सीखने का आनंद अधिक मिल रहा है ।’
– सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी
‘साधना में होकर आप हंसमुख नहीं हैं, तो ‘आपकी साधना उचित ढंग से नहीं हो रही है’, ऐसा मान लें तथा प्रयास बढाएं ! – सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी |