साधको, स्वभावदोष एवं अहं निर्मूलन की प्रक्रिया लगन से कर मानव जीवन का ध्येय ‘आनंदप्राप्ति’ साध्य कर लें !

साधक आनंदप्राप्ति हेतु साधना कर रहे हैं । जीवन आनंदमय होने हेतु चित्त पर स्थित जन्म-जन्म के संस्कार नष्ट होने चाहिए तथा उसके लिए स्वभावदोष एवं अहं निर्मूलन की प्रक्रिया गंभीरता से अपनाई जानी चाहिए ।

विविध विषयों के विशेषज्ञ एवं संत

व्यवहारिक जीवन में आंखों के विशेषज्ञ को आंखों का रोग होता है । हृदय- विशेषज्ञ को हृदय का विकार होता है। परंतु अध्यात्म में संतों को अन्यों के आध्यात्मिक कष्ट दूर करने पर आध्यात्मिक कष्ट नहीं होते । कुछ संतों को शारीरिक कष्ट हो रहे हों, तब भी वे देह-प्रारब्ध के अनुसार होते हैं । उसका परिणाम संतों पर नहीं होता !

बच्चे असंस्कारी होने का परिणाम !

‘मातृदेवो भव । पितृदेवो भव ।’ (तैत्तिरीयोपनिषद्, शीक्षा, अनुवाक ११, वाक्य २ ) अर्थात ‘माता और पिता को ईश्वर मानें’, माता पिता द्वारा बालकों पर बाल्यावस्था से ही ऐसा संस्कार न करने के कारण बडे होने पर माता-पिता के संदर्भ में मतलब निकल गया, तो पहचानते नहीं ’, ऐसी उनकी वृत्ति हो जाती है तथा वे माता पिता को वृद्धाश्रम में रखते हैं, इसमें आश्‍चर्य की क्या बात है ?’

कहां लगभग ३५०० वर्ष पूर्व ही निर्मित हुए विविध धर्म (पंथ) तथा कहां अनादि अनंत सनातन धर्म !

१४०० वर्ष पूर्व इस संसार में एक भी मुसलमान नहीं था, २१०० वर्ष पूर्व इस संसार में एक भी ईसाई नहीं था, २८०० वर्ष पूर्व एक भी बौद्ध अथवा जैन नहीं था तथा ३५०० वर्ष पूर्व इस संसार में एक भी पारसी नहीं था; फिर इसके पूर्व इस संसार में कौन था ? केवल हिन्दू थे । सनातन हिन्दू धर्म अनादि तथा अनंत है और सबका मूल धर्म हिन्दू ही है ।’

राष्ट्रविरोधी व्यक्ति स्वतंत्रता वाले !

‘व्यक्ति की अपेक्षा समाज एवं समाज की अपेक्षा राष्ट्र महत्त्वपूर्ण है, यह न समझनेवाले व्यक्ति स्वतंत्रता के पक्षधर देश को विनाश की ओर ले जा रहे हैं !’

संपूर्ण सृष्टि के कर्ता-करावनहार भगवान का ही अस्तित्व नकारने वाले बुद्धिवादी !

‘कर्ता द्वारा बनाई गई वस्तु कभी भी कर्ता से श्रेष्ठ नहीं हो सकती, उदा. बढई द्वारा बनाई गई कुर्सी कभी भी बढई से श्रेष्ठ नहीं हो सकती । ऐसा होते हुए भी भगवान द्वारा निर्मित कुछ मनुष्य संपूर्ण सृष्टि के कर्ता-करावनहार भगवान को ही तुच्छ समझते हैं !’

हास्यास्पद बुद्धिवादी !

‘जिस प्रकार जन्म से दृष्टिहीन कोई व्यक्ति कहे, ‘देखना, दृष्टि, ऐसा कुछ होता है’, यह मानना अंधश्रद्धा है’; उसी प्रकार बुद्धिवादी कहते हैं, ‘सूक्ष्म दृष्टि जैसा कुछ है’, यह मानना अंधश्रद्धा है !’

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी के ओजस्वी विचार

‘अपनी इच्छा के अनुसार न हो, तो मानसिक तनाव बढता है और आगे अनेक मनोविकार होते हैं । इसके लिए आजकल के मनोविकार विशेषज्ञ विविध उपाय सुझाते हैं; परंतु कोई भी यह नहीं सिखाता कि स्वेच्छा नहीं रखनी चाहिए ।

हिन्दू नववर्षारंभ (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा) से व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में रामराज्य स्थापित करने का संकल्प करें !

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी का नववर्ष के अवसर पर संदेश

सूक्ष्म आयाम को समझने की क्षमता रखना – सनातन संस्था के साधकों की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता !

‘सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी ने अपने गुरु प.पू. भक्तराज महाराजजी के आशीर्वाद से १.८.१९९१ को ‘सनातन भारतीय संस्कृति संस्था’ की स्थापना की । उसके उपरांत उन्होंने संस्था का नाम सरल करने हेतु २३.३.१९९९ को ‘सनातन संस्था’ की स्थापना की । अब मार्च २०२४ में सनातन संस्था के २५ वर्ष पूर्ण हो रहे हैं । इस … Read more