सूक्ष्म आयाम को समझने की क्षमता रखना – सनातन संस्था के साधकों की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता !

‘सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी ने अपने गुरु प.पू. भक्तराज महाराजजी के आशीर्वाद से १.८.१९९१ को ‘सनातन भारतीय संस्कृति संस्था’ की स्थापना की । उसके उपरांत उन्होंने संस्था का नाम सरल करने हेतु २३.३.१९९९ को ‘सनातन संस्था’ की स्थापना की । अब मार्च २०२४ में सनातन संस्था के २५ वर्ष पूर्ण हो रहे हैं । इस रजत जयंती महोत्सव के उपलक्ष्य में सनातन संस्था के साधकों की विशेषता सूक्ष्म आयाम को समझना, वह किस प्रकार उजागर होकर विकसित होती गई, इसकी जानकारी देने का मैं प्रयास कर रहा हूं ।

संकलनकर्ता – सद्गुरु डॉ. मुकुल गाडगीळजी, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा.

‘पैकेट की ओर देखकर कष्ट होता है अथवा अच्छा लगता है ?’, ऐसा पूछते सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी (वर्ष १९९८)

१. अध्यात्मशास्त्र सूक्ष्म से कैसे संबंधित है तथा सूक्ष्म संबंधी अनुभूतियां कैसे होती हैं, यह सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी द्वारा (गुरुदेवजी द्वारा) विभिन्न प्रयोगों के माध्यम से साधकों को सिखाना

अध्यात्मशास्त्र कृति एवं अनुभूतियों का शास्त्र है । अनुभूतियां पंचज्ञानेंद्रिय, मन एवं बुद्धि से परे होती हैं । सामान्य व्यक्ति को अनुभूतियों का ज्ञान नहीं होता । उन्हें पंजज्ञानेंद्रियों द्वारा पंचतत्त्व के अनुभव होते हैं । वे स्थूल स्तर के होते हैं । इसके विपरीत अनुभूति सूक्ष्म होती है । अध्यात्मशास्त्र देवता, ‘सत्त्व, रज एवं तम’ (त्रिगुण), प्रारब्ध, आध्यात्मिक कष्ट जैसे सूक्ष्म आयाम संबंधी घटकों का परिणाम तथा साधना के कारण उनमें होनेवाले परिवर्तनों का शास्त्र समझाता है । इसे स्थूल से बताने की अपनी एक सीमा है । उसके लिए एक तो उनकी अनुभूति होनी चाहिए अथवा ईश्वरकृपा होनी चाहिए । अनुभूतियां पंचसूक्ष्मज्ञानेंद्रियों से होती हैं । साधना से साधकों की पंचसूक्ष्मज्ञानेंद्रियां अनुभूति ग्रहण करने में सक्षम बन जाती हैं । सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी (गुरुदेवजी) ने यह शास्त्र समझाया तथा विभिन्न प्रयोगों द्वारा ‘सूक्ष्म स्पंदन कैसे होते हैं ?’, यह अनुभव करना सिखाया ।

२. सूक्ष्म परिणाम के चार स्तर – सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम एवं सूक्ष्मातीत !

सूक्ष्म आयाम को समझने के ४ स्तर होते हैं, वे हैं सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम एवं सूक्ष्मातीत ! इसका एक उदाहरण देना हो, तो अयोध्या में श्री रामलला की प्राणप्रतिष्ठा संपन्न हुई ।

सद्गुरु डॉ. मुकुल गाडगीळजी

१. सूक्ष्म परिणाम : लोगों के मन में श्रीराम के प्रति भाव उत्पन्न होना

२. सूक्ष्मतर परिणाम : लोगों के मन में भक्ति का बीज बोया जाना

३. सूक्ष्मतम परिणाम : भक्ति के कारण लोगों की सात्त्विकता बढना

४. सूक्ष्मातीत परिणाम : सात्त्विक लोगों के कारण भारत में ईश्वरीय राज्य की स्थापना होना

इससे ध्यान में आता है कि अधिकाधिक सूक्ष्म स्तर की ओर जाने का अर्थ है ईश्वर का कार्यकारणभाव समझ पाना । सूक्ष्म से सूक्ष्मातीत की यह जो यात्रा है, उसमें व्यक्ति अधिकाधिक सूक्ष्म स्तर की ओर जाता है, अर्थात उसकी सूक्ष्म आयाम को समझने की क्षमता अधिकाधिक बढती है । इसे एक उदाहरण के माध्यम से देखेंगे –

१. कोई सूक्ष्म संबंधी घटना ध्यान में आना (उदा. कक्ष में अच्छे स्पंदन प्रतीत हो रहे हैं) इसका अर्थ है, सूक्ष्म आयाम संबंधी समझ में आना

२. उस सूक्ष्म संबंधी घटना का स्थल समझ में आना (अच्छे स्पंदन कहां से आ रहे हैं) अर्थात सूक्ष्मतर आयाम समझ में आना

३. उस सूक्ष्म संबंधी घटना का काल समझ में आना (उस कक्ष में अच्छे स्पंदन आने की प्रक्रिया कब आरंभ हुई ?), अर्थात सूक्ष्मतम आयाम समझ में आना

४. अंत में सूक्ष्म संबंधी घटना का कार्यकारणभाव समझ में आना (कक्ष में अच्छे स्पंदन क्यों आने लगे ?), अर्थात सूक्ष्मातीत आयाम समझ में आना ! ईश्वर सूक्ष्मातीत हैं तथा साधकों को साधना कर वहां तक पहुंचना होता है ।

३. ‘अच्छी वस्तु तथा कष्टदायक वस्तु को कैसे पहचानें ?’, यह गुरुदेवजी द्वारा सिखाना

गुरुदेवजी ने (सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी ने) साधकों को साधना के आरंभ में ‘सात्त्विक वस्तु एवं असात्त्विक वस्तु’ में अंतर समझाने के लिए उन दोनों वस्तुओं के प्रयोग करवाए।

अ. इस प्रयोग में उन्होंने उन वस्तुओं को साधकों के सामने रखकर उन्हें सात्त्विक वस्तुओं तथा असात्त्विक वस्तुओं को पहचानना सिखाया अर्थात गुरुदेवजी ने साधकों को ‘अच्छी वस्तु एवं कष्टदायक वस्तु’ को पहचानना सिखाया ।

आ. उससे अगला चरण था, साधकों को प्रत्यक्ष वस्तु न दिखाकर उन्हें भिन्न-भिन्न लिफाफों में रखना तथा उन दोनों लिफाफों की ओर देखकर अथवा हाथ में लेकर किस लिफाफे से अच्छे स्पंदन आ रहे हैं, यह पहचानना सिखाना । अच्छे स्पंदनों के कारण देह को हल्कापन प्रतीत होना, ठंडक प्रतीत होता, मन को अच्छा लगना, प्रकाश प्रतीत होना आदि अनुभूतियां होती हैं । इसके विपरीत, कष्टदायक स्पंदनों के कारण देह पर दबाव प्रतीत होना, मितली आना, अंधेरा प्रतीत होना जैसी अनुभूतियां होती हैं । साधकों को यह सीखने का अवसर मिला एवं अच्छे एवं कष्टदायक स्पंदन पहचानना संभव होने लगा ।

इ. पंचतत्त्वों के स्पंदनों से परिचित करवाना : इससे आगे सूक्ष्म आयाम संबंधी समझने का स्तर है, जो स्पंदन प्रतीत होते हैं, उनमें पृथ्वी, आप, तेज, वायु एवं आकाश; इन पंचतत्त्वों में से प्रमुखता से कौन से स्पंदन प्रतीत होते हैं, इसे पहचानना ! इन पंचतत्त्वों में सूक्ष्म स्पंदन क्रमशः शक्ति, भाव, चैतन्य, आनंद एवं शांति के स्पंदन होते हैं तथा उन्हें पहचानना थोडा-बहुत सरल होता है । सामान्यतः इन स्पंदनों से संबंधित अनुभूतियां कौन सी होती हैं, यह आगे सारणी में दिया है –

गुरुदेव द्वारा दी इस जानकारी से साधक पंचतत्त्वों के स्पंदन समझने में सक्षम बने । साधक साधना करते हैं; इसलिए उन्हें ऐसी अनुभूतियां होती हैं । सामान्य व्यक्ति को इसकी जानकारी देने पर भी उसे ऐसी अनुभूतियां नहीं हो सकती; क्योंकि उसकी साधना नहीं होती ।

४. गुरुदेवजी द्वारा साधकों को अनिष्ट शक्तियों द्वारा किए जा रहे आक्रमणों से भी सिखाना

गुरुदेवजी के मार्गदर्शन में साधक व्यष्टि (स्वयं की आध्यात्मिक उन्नति हेतु) साधना, साथ ही समष्टि (समाज की आध्यात्मिक उन्नति हेतु) साधना कर रहे हैं । इसलिए समाज की सात्त्विकता बढ रही है । वह सह न पाने के कारण वर्ष २००२ से सूक्ष्म स्तरीय अनिष्ट शक्तियों ने साधक, साधकों की वस्तुओं, साधकों के निवास-स्थल, आश्रमों पर आक्रमण करना प्रारंभ किया । इतना ही नहीं, उन्होंने गुरुदेवजी पर भी आक्रमण करना प्रारंभ किया । साधकों के लिए ये आक्रमण नए ही थे । गुरुदेवजी ने साधकों को इन आक्रमणों से भी सिखाया । अनिष्ट शक्तियां पृथ्वी, आप, तेज, वायु एवं आकाश जैसे अगले-अगले पंचतत्त्वों के स्तरों पर कैसे आक्रमण कर रही हैं, यह उन्होंने बताया ।

अनिष्ट शक्तियां भले ही साधकों पर विभिन्न पंचतत्त्वों के स्तर पर आक्रमण करती हों; परंतु तब भी ईश्वर साधकों को उन संबंधित पंचतत्त्वों की अच्छी अनुभूतियां देकर उन्हें होनेवाले कष्ट दूर करते रहते हैं । इसका एक उदाहरण बताना हो, तो अनिष्ट शक्तियों ने यदि दुर्गंध उत्पन्न की हो, तो ईश्वर साधकों को सुगंध की अनुभूति देकर उनकी रक्षा करते हैं । साधक साधना करते हैं; इसलिए ईश्वर साधकों की सहायता करते हैं ।

५. गुरुकृपा से कुछ साधकों के लिए सूक्ष्म परीक्षण कर पाना संभव

अ. किसी घटना का सूक्ष्म परीक्षण करने की क्षमता कुछ साधकों में उत्पन्न हुई है । इसमें साधक घटना कहां घटित हुई, कब घटित हुई तथा उसके कार्यकारणभाव को सूक्ष्म से समझकर बताने लगे । नियतकालिक ‘सनातन प्रभात’ में उनका परीक्षण प्रकाशित होने लगा । इससे समाज को उन घटनाओं का अध्यात्मशास्त्र समझ में आना प्रारंभ हुआ ।

आ. घटना सात्त्विक (सकारात्मक ऊर्जा से युक्त अथवा मंगलदायक) हो, तो उस घटना के माध्यम से ईश्वर कार्य कर कैसे सहायता करते हैं ?, उस घटना का सकारात्मक परिणाम आदि बातें सूक्ष्म परीक्षण द्वारा सामान्य लोगों की समझ में आने लगीं ।

इ. वह घटना यदि असात्त्विक (नकारात्मक ऊर्जा से युक्त अर्थात कष्टदायक) हो, तो अनिष्ट शक्तियां उस घटना के माध्यम से कैसे कष्ट पहुंचाती हैं, उस घटना का अनिष्ट परिणाम तथा उस परिणाम को दूर करने हेतु आवश्यक आध्यात्मिक उपचार आदि बातों से समाज को अवगत कराना सूक्ष्म परीक्षण से संभव होने लगा । इसलिए जिज्ञासुओं में सूक्ष्म आयाम को समझने की उत्सुकता उत्पन्न हुई, साथ ही ऐसी कष्टदायक घटना टालने हेतु साधना करना कितना आवश्यक है, यह भी बताना संभव हुआ ।

ई. कोई संत अथवा साधक जब समाज में जाकर अध्यात्म का प्रवचन लेने जैसी सत्सेवा कर रहे होते थे, उस समय सूक्ष्म से क्या-क्या गतिविधियां हुईं, इसका भी साधकों ने सूक्ष्म परीक्षण किया ।

उ. कोई घटना होते समय भी साधक सूक्ष्म परीक्षण करते थे । उसके कारण सूक्ष्म आयाम में घटनाक्रम क्या था, यह समझ में आना संभव हुआ । वह घटना प्रत्यक्ष सामने नहीं, दूर कहीं घटित हो रही हो, तब भी गुरुकृपा से उसका परीक्षण करने की क्षमता साधकों में उत्पन्न हुई ।

ऊ. किसी साधक में तीव्र स्वभावदोष अथवा अहं हो, तो ‘उसकी किसी कृति का किस प्रकार अनुचित परिणाम होता है ?’, इसका सूक्ष्म परीक्षण कर उसे बताना संभव होने से उस साधक को उसके स्वभावदोष अथवा अहं दूर करने में सहायता मिली ।

ए. कोई संत जब नामजप द्वारा आध्यात्मिक उपचार करते हैं, उस समय सामनेवाले अथवा दूर स्थित व्यक्ति या किसी घटक पर क्या परिणाम होता है, इसका सूक्ष्म परीक्षण करना साधकों को संभव हुआ ।

ऐ. हिन्दू संस्कृति में कोई कृति करने की एक विशिष्ट पद्धति बताई जाती है । वह परंपरागत होती है । आज भारतीयों पर पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव है । इस कारण वे हिन्दू संस्कृति की पद्धतियों से दूर जा रहे हैं । भारतीय पुनः हिन्दू संस्कृति अपनाएं, इस हेतु हिन्दू संस्कृति में बताई गई कृतियों का किस प्रकार सात्त्विक परिणाम होता है, यह सूक्ष्म परीक्षण द्वारा प्रमाणित करना संभव हुआ ।

ओ. सूक्ष्म आयाम को समझने की क्षमता रखनेवाले कुछ साधक किसी सूक्ष्म स्तरीय घटना का चित्र बनाकर उसका वर्णन कर पाते थे । इस माध्यम से वह घटना और अधिक स्पष्ट होती थी ।

इस प्रकार सूक्ष्म परीक्षण के लाभ हुए । साधकों के लिए सूक्ष्म परीक्षण करना संभव होना, यह उनपर हुई गुरुकृपा ही है !

६. साधकों को प्राप्त अध्यात्म से संबंधित सूक्ष्मस्तरीय नवीनतापूर्ण ज्ञान सनातन संस्था द्वारा सामान्य लोगों के लिए ३०० से अधिक ग्रंथों में प्रकाशित करना

कुछ साधकों को सूक्ष्म परीक्षण का अगले चरण था, उन्हें सूक्ष्म स्तरीय ज्ञान मिलने लगा । विश्वमन एवं विश्वबुद्धि से एकरूप होने पर इस प्रकार का ज्ञान मिलता है । जब ऐसे साधकों को अध्यात्म से संबंधित कोई प्रश्न पूछा जाता है अथवा किसी विषय के संदर्भ में जानकारी पूछी जाती है, उस समय उन्हें उस विषय में गहन एवं नवीनतापूर्ण ज्ञान मिलता है । उन्हें मिल रहे ज्ञान का प्रवाह बडा होता है । ऐसे साधक दिनभर में (बडी बही के) कागद के ‘A4’ (ए ४) आकार के १५ से २० पृष्ठ भर जाएं, इतना ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं । वर्ष २००३ से १५-२० साधक इस प्रकार का ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं । इसलिए अध्यात्म की कृतियों के विषय में ‘क्यों एवं कैसे ?’ के शास्त्रीय उत्तर मिलने लगे । अध्यात्म के विभिन्न विषयों की जिज्ञासा के कारण गुरुदेवजी सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त करने की क्षमता रखनेवाले साधकों से अनेक प्रश्न पूछते हैं तथा साधक भी तत्परता के साथ उनके उत्तरों का टंकण करते हैं । उसके पश्चात गुरुदेवजी ‘साधकों को प्राप्त ज्ञान उचित है या नहीं, इसकी जांच करते हैं । वे कहते हैं, ‘‘कुछ ज्ञान-प्राप्तकर्ता साधकों की अनिष्ट शक्तिजनित पीडा तथा उनके आध्यात्मिक स्तर के कारण उनकी विश्वमन एवं विश्वबुद्धि के साथ एकरूपता अल्पाधिक होती रहती है, साथ ही अनिष्ट शक्तियां भी अनुचित ज्ञान देती हैं । उसके कारण साधकों को मिलनेवाले ज्ञान की आध्यात्मिक सत्यता का सत्यापन करना पडता है ।’’ सनातन संस्था ने इस प्रकार सत्यापित किया ज्ञान संकलित किया एवं सामान्य लोगों को अध्यात्म समझाने हेतु ग्रंथों में प्रकाशित किया है । सनातन के अधिकतर ग्रंथों में (अब तक ३६५ ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं ।) पृथ्वी पर कहीं भी उपलब्ध नहीं है, ऐसा दिव्य ज्ञान लगभग २० प्रतिशत है । अभी भी बहुत ज्ञान ग्रंथों में प्रकाशित करना शेष है ।

७. कला के माध्यम से साधना करनेवाले साधकों द्वारा सूक्ष्म आयाम को समझने से बहुत लाभ मिलना

७ अ. चित्रकला के माध्यम से साधना करनेवाले साधक : गुरुदेवजी ने चित्रकला के माध्यम से साधना करनेवाले साधकों को श्री गणपति, भगवान शिव, श्रीकृष्ण, भगवान दत्तात्रेय, श्री हनुमान, प्रभु श्रीराम एवं श्री महालक्ष्मीदेवी, इन सप्तदेवताओं के चित्र बनाने के लिए कहा । इसके अंतर्गत साधक प्रत्येक देवता कैसे दिखाई देते हैं, उनके वस्त्र प्रावरण, उनके आभूषण, उनके शस्त्र आदि सूक्ष्म आयाम से समझकर चित्र बनाते थे । साधकों द्वारा देवताओं के चित्र बनाने पर गुरुदेवजी ने बताया, ‘प्रत्येक चित्र में संबंधित देवता का तत्त्व कितने प्रतिशत आया है ?’ आरंभ में देवता का तत्त्व केवल २-४ प्रतिशत ही था; परंतु वह भी बाजार में मिलनेवाले देवता के चित्रों के १-२ प्रतिशत तत्त्व से अधिक ही था । गुरुदेवजी ने सप्तदेवताओं में से प्रत्येक देवता के चित्र में समाहित उनका तत्त्व बढाने हेतु प्रयास करने के लिए कहा । जैसे-जैसे साधकों की साधना बढती गई, वैसे वैसे सूक्ष्म आयाम को समझने की उनकी क्षमता बढती गई । उसके कारण २४ वर्ष की अवधि में देवताओं के चित्रों में समाहित संबंधित देवता का तत्त्व २-४ प्रतिशत से बढकर ३०-३२ प्रतिशत हो गया । कलियुग में मनुष्य देवता का तत्त्व अधिकतम ३० प्रतिशत ही समझ सकता है । सनातन के साधकों ने अब यह सीमा भी लांघ दी है । इन देवताओं के चित्रों का लाभ जिस प्रकार साधकों को उनमें भक्तिभाव बढाने हेतु हुआ, वैसे ही समाज को भी हुआ ।

७ आ. मूर्तिकला के माध्यम से साधना करनेवाले साधक : गणेशोत्सव के समय बाजार में गणेशजी की मूर्तियां बिक्री के लिए आती हैं ।

अधिकतर मूर्तियां धर्मशास्त्र के अनुसार नहीं बनी होतीं तथा सात्त्विक नहीं होती । जिन साधकों को मूर्तिकला ज्ञात है, ऐसे साधकों को गुरुदेवजी ने गणेशजी की सात्त्विक मूर्तियां बनाने के लिए कहा । इसमें उन साधकों को सूक्ष्म आयाम से गणेशजी का रूप समझकर उसके अनुसार गणेशजी की मूर्ति साकार करनी थी । उसके लिए उन्हें ३ वर्ष लगे । इस मूर्ति में गणेशजी का २८.३ प्रतिशत तत्त्व है । अब श्री दुर्गादेवी की मूर्ति बनाने का कार्य चल रहा है ।

७ इ. सात्त्विक रंगोलियां बनानेवाली साधिकाएं : रंगोलियां बहुत लोग बनाते हैं; परंतु अधिकतर रंगोलियां सात्त्विक अथवा देवता का तत्त्व आकर्षित करनेवाली नहीं होतीं । सूक्ष्म आयाम को समझने की क्षमता रखनेवाली सनातन की साधिकाओं ने सभी सहजता से बना पाएं, ऐसी सात्त्विक तथा विभिन्न देवताओं के तत्त्व आकर्षित करनेवाली रंगोलियों की आकृतियां बनाई हैं । समाज को इसका लाभ मिलने के लिए उससे संबंधित ग्रंथ ‘सात्त्विक रंगोलियां’ उपलब्ध करवाया है ।

७ ई. अन्य कलाओं के माध्यम से साधना करनेवाले साधक : सनातन संस्था में गायन, वादन, नृत्य आदि कलाओं के माध्यम से साधना करनेवाले साधक भी हैं । उनके लिए भी कला का अध्ययन करते समय उस कला का स्वयं पर, दर्शकों पर तथा वातावरण पर क्या परिणाम हो रहा है, यह जानने हेतु सूक्ष्म आयाम को समझना आवश्यक है । इन साधकों को उनकी इस क्षमता से लाभ होता है । सात्त्विक एवं ईश्वरप्राप्ति की ओर ले जानेवाली कला कैसी होनी चाहिए, इसका वे अध्ययन करते हैं तथा उसे समाज के सामने भी रखते हैं । इससे उनकी व्यष्टि साधना के साथ समष्टि साधना भी होती है ।

८. सूक्ष्म आयाम को समझने के कारण साधकों का अनिष्ट शक्तियों द्वारा किए जा रहे आक्रमण पहचानकर उन पर आध्यात्मिक उपचार करना

सनातन संस्था के साधक गुरुकृपा से अध्यात्म का प्रसार करते हैं । इसके कारण समाज सुसंस्कृत एवं सात्त्विक बन रहा है । इस कलियुग में अनिष्ट शक्तियों का प्रकोप हो गया है । अनिष्ट शक्तियां समाज की सात्त्विकता बढाने के कार्य का विरोध करती हैं । इसके अंतर्गत वे साधकों पर आक्रमण करती हैं, तथा साधकों की अध्यात्मप्रसार की सत्सेवा में बाधाएं उत्पन्न करती हैं । अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण पहचानने के लिए सूक्ष्म आयाम को समझने की क्षमता होना आवश्यक है । यह क्षमता होने पर ही अनिष्ट शक्तियां किस प्रकार तथा निश्चितरूप से कहां आक्रमण कर रही हैं, यह जानकर वे नामजपादि आध्यात्मिक उपचार कर सकते हैं । अनिष्ट शक्तियां किस दिशा में, कहां, किस कुंडलिनीचक्र पर तथा पंचतत्त्वों में से किस तत्त्व के स्तर पर आक्रमण कर रही हैं, यह समझना पडता है । यह सूक्ष्म आयाम से समझने पर आध्यात्मिक उपचार करना सुलभ होता है ।

९. सारांश

संक्षेप में बताना हो, तो साधक साधना करते हैं; इसलिए वे सूक्ष्म आयाम को समझने लगे हैं । साधनाके कारण सात्त्विकता-असात्त्विकता, अच्छा-कष्टदायक, पंचतत्त्व, सत्त्व-रज-तम आदि जानने की क्षमता उत्पन्न होती है तथा उनकी अनुभूति कर पाना संभव होता है । इसलिए साधक स्वाभाविक ही उचित आचरण करते हैं । वे हिन्दू संस्कृति, हिन्दू संस्कृति में बताए गए आचारधर्म का पालन तथा धर्माचरण करते हैं । अतः उन्हें वर्तमान कलियुग के रज-तमयुक्त वातावरण का तथा प्राकृतिक आपदाओं का बहुत अल्प दंश झेलना पडता है । भगवान उनकी रक्षा करते हैं । इसके विपरीत, आज हम यह देखते हैं कि अनेक लोग हिन्दू संस्कृति के अनुसार आचरण न कर पश्चिमी संस्कृति के अनुसार आचरण करते हैं । इसका एक उदाहरण देना हो, तो आजकल लडकियां एवं महिलाएं अपने केश खुले छोडकर, काले वस्त्र धारण कर तथा पुरुषों की भांति वेशभूषा कर समाज में विचरण करती हैं; क्योंकि उनकी साधना न होने के कारण इन अनुचित कृतियों के कारण क्या प्रतिकूल परिणाम होते हैं, यह उनकी समझ में नहीं आता; परंतु साधकों को इसके परिणाम ज्ञात होने के कारण, समाज में विचरण करना हो अथवा घर में वे सदैव ही उचित कृतियां करने का प्रयास करते हैं । घर की रचना, घर की दीवारों का रंग तथा उनकी नित्य कृतियों में सात्त्विकता लाने का प्रयास करते हैं । उनके बच्चे भी उनका ही अनुकरण करते हैं । ऐसा करने से उनका जीवन सात्त्विक बन रहा है ।

इससे साधना, सूक्ष्म आयाम को समझना तथा उसकी अनुभूति किस प्रकार महत्त्वपूर्ण है, यह समझ में आता है । सनातन संस्था यही प्रायोगिक अंग सिखाती है, जिसके कारण साधकों की तीव्र गति से आध्यात्मिक उन्नति हो रही है । इसका संपूर्ण श्रेय केवल और केवल सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी को ही जाता है !

सनातन संस्था की अध्यात्म क्षेत्र में यह २५ वर्षाें की उत्कर्षमय एवं उल्लेखनीय यात्रा सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी के कारण ही हुई है । इसलिए हम सभी साधक उनके श्रीचरणों में कोटि-कोटि कृतज्ञता व्यक्त करते हैं !’

– (सद्गुरु) डॉ. मुकुल गाडगीळ, पीएच.डी., महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय, गोवा. (३.३.२०२४)