‘भारत संतों की भूमि है । ‘अध्यात्म ज्ञान’ भारत की सर्वोत्तम विशेषता है । भारत में अनेक महान संतों ने जन्म लिया । उन्होंने लोगों को सिखाया कि ‘आनंदमय जीवन कैसे जीना है ?’ उनमें से कुछ संतों ने अध्यात्म प्रसार के कार्य के साथ-साथ राष्ट्र एवं धर्म की रक्षा का भी महान कार्य किया । पिछले ४०० वर्षों का विचार करें, तो १७वीं शताब्दी में समर्थ रामदासस्वामीजी, १९वीं शताब्दी में स्वामी विवेकानंदजी तथा २०वीं शताब्दी में महर्षि अरविंदजी, इन संतों ने लोगों को साधना सिखाने के साथ राष्ट्र-धर्म रक्षा का बडा कार्य किया । इन संतों के समान ही वर्तमान २१वीं शताब्दी में सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी यह राष्ट्र-धर्मरक्षा का कार्य कर रहे हैं । इन ४ संतों की जन्मकुंडलियों का अध्ययन करने पर उनकी जन्मकुंडलियों के अनेक ग्रहयोगों में समानता पाई गई । इन ४ संतों की जन्मकुंडलियों के ग्रहयोगों का विश्लेषण निम्नलिखित लेख में किया गया है, साथ ही इस अध्ययन से ज्ञात हुए सूत्र अंत में दिए गए हैं ।’
१. आध्यात्मिक कार्य
जन्मपत्रिका में ‘रवि’, ‘बुध’, ‘बृहस्पति’ एवं ‘शनि’ का एक-दूसरे के साथ शुभयोग होना, इन शुभयोगों का आध्यात्मिक स्थानों पर अथवा आध्यात्मिक राशियों में होना इत्यादि ग्रहयोग सिद्धांत, आध्यात्मिक लेखन, साधना की सीख आदि आध्यात्मिक कार्य दर्शाते हैं । ‘समाज को अध्यात्म की सीख देना’ मानवजाति की सर्वाेत्तम सेवा है । अध्यात्म के कारण ही मनुष्य को जीवन की सार्थकता समझ में आती है तथा उसे साध्य करने हेतु वह प्रयास करता है ।
१ अ. समर्थ रामदासस्वामीजी
१ अ १. आध्यात्मिक साहित्य की निर्मिति करना, साथ ही अध्यात्मप्रसार हेतु संप्रदाय की स्थापना करना : समर्थ रामदासस्वामीजी की जन्मपत्रिका में ‘रवि’, ‘बुध’ एवं ‘बृहस्पति’ की दशम (कर्म) स्थान में युति है, साथ ही उनका ‘शनि’ ग्रह के साथ योग है । यह योग सिद्धांत, आध्यात्मिक लेखन तथा अध्यात्मप्रसार का कार्य करता है । रामदासस्वामीजी ने पूरे भारत का भ्रमण कर लोगों को श्रीरामभक्ति का उपदेश दिया । उन्होंने ‘श्रीमद् दासबोध’, ‘आत्माराम’, ‘मन के श्लोक’, ‘षड्रिपु-निरूपण’ इत्यादि आध्यात्मिक साहित्य की निर्मिति की । उनके साहित्य से साधक को स्वयं के दोषों का निर्मूलन कर सदाचरण के विषय में मार्गदर्शन मिलता है । उन्होंने अनेक आरतियों, स्तोत्र आदि की रचना की । रामदासस्वामीजी ने अध्यात्मप्रसार हेतु ‘समर्थ संप्रदाय’ की स्थापना की । उन्होंने संपूर्ण भारत में ७०० से अधिक स्थानों पर मठों की स्थापना की । आज भी ‘समर्थ संप्रदाय’ अध्यात्मप्रसार का कार्य कर रहा है ।
१ आ. स्वामी विवेकानंदजी
१ आ १. आधुनिक शैली में अद्वैत सिद्धांत का प्रचार करना तथा अध्यात्म पर प्रचुर लेखन करना : स्वामी विवेकानंदजी की जन्मपत्रिका में ‘रवि’ एवं ‘बृहस्पति’, साथ ही ‘बुध’ एवं ‘शनि’ के मध्य शुभ योग हैं । ये योग ज्ञानशक्ति, गहन चिंतन, सैद्धांतिक विचार, आध्यात्मिक लेखन तथा अध्यात्मप्रसार, ये परिणाम दर्शाते हैं । स्वामी विवेकानंदजी ने आधुनिक शैली में अद्वैत सिद्धांत का प्रचार किया । ‘प्रत्येक प्राणिमात्र में एक ही ईश्वरीय तत्त्व है, इस सुप्त ईश्वरीय तत्त्व को प्रकट करना ही हमारा ध्येय है तथा यही सच्चा धर्म है’, ऐसा कहकर उन्होंने विश्व-एकात्मता का संदेश दिया । उन्होंने अध्यात्म पर प्रचुर लेखन किया; उनमें से उनके ‘राजयोग’, ‘ज्ञानयोग’, ‘भक्तियोग’, ‘कर्मयोग’ इत्यादि ग्रंथ प्रसिद्ध हैं । अध्यात्मप्रसार हेतु उन्होंने ‘रामकृष्ण मठ’ की स्थापना की । आज भी ‘रामकृष्ण मठ’ संस्था के माध्यम से अध्यात्मप्रसार एवं समाज प्रबोधन का कार्य हो रहा है ।
१ इ. महर्षि अरविंदजी
१ इ १. विश्व के अस्तित्व का रहस्योद्घाटन करनेवाला मौलिक साहित्य तैयार करना, साथ ही ‘आंतरिक योग’ की साधना पद्धति विकसित करना : महर्षि अरविंद की जन्मपत्रिका में ‘रवि’, ‘बृहस्पति’ एवं ‘हर्षल’ के मध्य में युति है, साथ ही ‘बुध’ एवं ‘शनि’ के मध्य शुभयोग है । ये योग चिंतनशीलता, सैद्धांतिक विचार, आध्यात्मिक लेखन एवं अध्यात्मप्रसार के परिणाम दर्शाते हैं । महर्षि अरविंद अंग्रेजों के कारावास से छूटने के उपरांत पुदुचेरी (पौंडिचेरी) आए । वहां उन्होंने अध्यात्म पर आधारित ‘आर्या’ नियतकालिक आरंभ किया । उसमें उन्होंने ‘ईश्वर का स्वरूप क्या है ? विश्व अस्तित्व में क्यों तथा कैसे आया ? विश्व में मनुष्य का प्रयोजन क्या है ? विश्व चेतना के स्तर पर कैसे विकसित होता है ?’ इत्यादि मूलभूत प्रश्नों के संबंध में प्रचुर लेखन किया । उनके ‘दिव्य जीवन’, ‘योग-समन्वय’, ‘योगा के मूलतत्त्व’, ‘गीता-प्रबंध’, ‘वेद-रहस्य’ इत्यादि ग्रंथ मौलिक हैं । ‘ईश्वर की दिव्य चेतना ने मनुष्य के माध्यम से कार्य किया, तो उससे पृथ्वी पर दिव्य जीवन अवतरित होगा’, यह सिद्धांत उन्होंने रखा । इस ध्येय को साध्य करने की प्रक्रिया को उन्होंने ‘आंतरिक योग’, यह नाम दिया । महर्षिजी ने पुदुचेरी (पौंडिचेरी) में बडा आश्रम बनाया ।
१ ई. सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी
१ ई १. काल के अनुसार यर्थाथ साधना प्रायोगिक स्तर पर सिखाना, प्रचुर ग्रंथ-निर्मिति करना, आध्यात्मिक कष्टों के निवारण हेतु सरल उपचार ढूंढना इत्यादि व्यापक आध्यात्मिक कार्य करना : सच्चिदानंद परब्रह्म गुरुदेवजी की जन्मपत्रिका के १२वें (मोक्ष) स्थान में ‘बुध’, ‘शनि’ एवं ‘हर्षल’ की युति है, साथ ही १२वें स्थान के अंत में ‘बृहस्पति’ ग्रह है । ये योग साधना की सीख, ग्रंथ-निर्मिति, आश्रमों की निर्मिति, आध्यात्मिक शोध कार्य, अध्यात्मप्रसार आदि परिणाम दर्शाते हैं । सच्चिदानंद परब्रह्म गुरुदेवजी ने ‘सनातन संस्था’ के माध्यम से साधकों को प्रायोगिक स्तर पर साधना की सीख दी । ‘शिष्य की सच्ची आध्यात्मिक उन्नति गुरु की कृपा से होती है’, यह सिद्धांत रखकर गुरुकृपा का निरंतर लाभ हो, इस हेतु उन्होंने ‘गुरुकृपायोग’ इस साधनामार्ग का आविष्कार किया । साधना के प्रमुख सिद्धांत, साधना में होनेवाली मूलभूत चूकें, साधना के प्रकार तथा साधना के चरण इनकी उन्होंने सरल भाषा में सीख दी ।
उनके मार्गदर्शन में साधना कर अप्रैल २०२५ तक सनातन के १२७ साधक संत बन गए हैं । अभी तक सनातन के अध्यात्म, साधना, धार्मिक कृतियों का अध्यात्मशास्त्र, देवताओं की उपासना, आपातकाल में संजीवनी आदि विषयों के ३६६ ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं । सच्चिदानंद परब्रह्म गुरुदेवजी ने सूक्ष्म विश्व के संबंध में प्रचुर शोध कार्य तथा लेखन किया है । उनकी शोधकर्ताबुद्धि के कारण उन्होंने आध्यात्मिक कष्टों के निवारण के लिए अभिनव एवं सरल आध्यात्मिक उपचारों की खोज की । वर्तमान में सनातन के सहस्रों साधक समर्पित होकर अध्यात्मप्रसार का कार्य कर रहे हैं ।

२. राष्ट्र एवं धर्म की रक्षा का कार्य
जन्मपत्रिका में रवि, मंगल, बृहस्पति एवं शनि के एक-दूसरे के साथ महत्त्वपूर्ण योग होना तथा इन योगों का पूरक स्थानों में एवं राशियों में होना इत्यादि योग व्यक्ति में विद्यमान समष्टि कार्य करने की क्षमता दर्शाते हैं । रवि, मंगल एवं बृहस्पति के एक-दूसरे के साथ योग धैर्य, नेतृत्वगुण, कार्यक्षमता, बौद्धिक क्षमता, तेज, सामर्थ्य इत्यादि गुण प्रदान करते हैं । इन गुणों के कारण व्यक्ति समाज का नेतृत्व कर समाज का मार्गदर्शन करता है । ऐसे योग संतों की जन्मपत्रिकाओं में हों, तो ऐसे संत समाज को साधना सिखाने के साथ राष्ट्र-धर्म की रक्षा हेतु समाज का नेतृत्व करते हैं । ईश्वर ही ऐसे संतों के माध्यम से कार्य करते हैं ।
२ अ. समर्थ रामदासस्वामीजी
२ अ १. लोगों में राष्ट्र-धर्म की भावना जागृत कर उन्हें ‘हिन्दवी स्वराज’ की स्थापना के कार्य में समर्पित होने की प्रेरणा देना : समर्थ रामदासस्वामीजी की जन्मपत्रिका में ‘रवि’, ‘बुध’ एवं ‘बृहस्पति’ की दशम (कर्म) स्थान में युति है, साथ ही इन ३ ग्रहों का ‘मंगल’ ग्रह के साथ शुभयोग है । ये बलवान योग हैं । ये योग क्षात्रतेज, सामर्थ्य, नेतृत्व, जनजागृति आदि परिणाम दर्शाते हैं । रामदास्वामीजी के काल में दीर्घकालीन आक्रमणों के कारण जनता त्रस्त थी । जनता की प्रतिरोधक क्षमता विलुप्त हुई थी । ऐसे कठिन काल में रामदासस्वामीजी ने उनके शिष्यों के साथ लोगों के घर-घर जाकर उनके मन में राष्ट्र-धर्म भावना जागृत की । उन्होंने लोगों का संगठन किया तथा उन्हें छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा अंगिकृत ‘हिन्दवी स्वराज’ की स्थापना के कार्य में समर्पित होने की प्रेरणा दी । श्री हनुमानजी की भांति शक्ति, भक्ति एवं बुद्धि प्राप्त होने हेतु समर्थ रामदासस्वामीजी ने अनेक स्थानों पर हनुमानजी के मंदिरों की स्थापना कर व्यायामशालाएं बनाईं । हिन्दू धर्म एवं राष्ट्र को पुनर्जीवित करने का उनका कार्य अभूतपूर्व सिद्ध हुआ । उनके कार्य से प्रेरणा लेकर आगे जाकर वीर सावरकर, लोकमान्य टिळक, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. केशव हेडगेवार, इतिहासकार वि.का. राजवाडे आदि अनेक राष्ट्रभक्तों ने प्रेरणा ली ।
२ आ. स्वामी विवेकानंद
२ आ १. युवकों को सशक्त बनाकर राष्ट्र की उन्नति हेतु कार्य करने की प्रेरणा देना, साथ ही हिन्दू धर्म को विश्व स्तर तक ले जाना : स्वामी विवेकानंदजी की जन्मपत्रिका में ‘रवि’, ‘मंगल’ एवं ‘बृहस्पति’ के एक-दूसरे के साथ योग बने हैं । उनमें से ‘रवि’ एवं ‘मंगल’ क्रमशः ‘धनु’ एवं ‘मेष’, इन अग्नितत्त्व की राशियों में हैं । यह बलवान योग है । यह योग सामर्थ्य, तेज, बुद्धि, शक्ति एवं नेतृत्व दर्शाता है । स्वामी विवेकानंदजी ने भारतीय समाज को महान हिन्दू धर्म एवं संस्कृति के प्रति गर्व करने की प्रेरणा दी । उन्होंने युवकों को शारीरिक एवं आत्मिक बल से सशक्त होने का मंत्र दिया । उन्होंने ‘उठो, जागृत हों तथा लक्ष्य पूरा होने तक न रुको !’ का उद्घोष किया । उन्होंने भारतीय लोगों को कर्मयोग की शिक्षा देकर राष्ट्र की उन्नति के लिए कार्य करने की प्रेरणा दी । स्वामी विवेकानंदजी ने ‘शिकागो’ (अमेरिका) में संपन्न विश्व धर्मपरिषद को संबोधित करते हुए हिन्दू धर्म का ‘सर्वसमावेशी, सहिष्णु तथा व्यापक’ दृष्टिकोण विश्व के सामने रखा । उसके कारण पूरे विश्व का ध्यान भारत की ओर आकर्षित हुआ । स्वामीजी ने हिन्दू धर्म को विश्व स्तर पर स्थान दिलाया । स्वामीजी ने २ वर्ष ‘अमेरिका’ एवं ‘यूरोप’ का भ्रमण कर अध्यात्म पर सैकडों प्रवचन दिए । उनकी सीख से अनेक पाश्चात्य विद्वान, विचारक, राजनेता इत्यादि प्रभावित हुए ।
२ इ. महर्षि अरविंद
२ इ १. मानवी चेतना का विकास साध्य करने पर बल देना तथा भारत को ‘विश्व का आध्यात्मिक गुरु’ बनने का मार्ग दिखाना : महर्षि अरविंद की जन्मपत्रिका में गुरु की ‘रवि’, ‘मंगल’ एवं ‘हर्षल’, इन ग्रहों के साथ युति है । यह युति जलतत्त्व की राशि ‘कर्क’ राशि में है । यह योग सूक्ष्म, संवेदनशील तथा भावात्मक पद्धति से समष्टि कार्य करने की क्षमता को दर्शाता है । महर्षि अरविंद का राष्ट्रकार्य सूक्ष्म एवं दीर्घकालीन प्रभाव डालनेवाला था । उन्होंने राष्ट्रकार्य को आध्यात्मिक स्वरूप दिया । ‘भारत को राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के साथ आत्मिक स्वतंत्रता भी प्राप्त करनी चाहिए । सच्ची क्रांति मानवी चेतना में आनी चाहिए तथा मनुष्य को दिव्यत्व की ओर अग्रसर होना चाहिए’, ऐसे विचार उन्होंने रखे । ‘मनुष्य की चेतना का स्तर नीचे गिर जाने के कारण वह वासनाओं की बलि चढकर दुखी एवं दुर्बल बन जाता है; परंतु मनुष्य ने यदि साधना कर विकास साधा, तो उससे वह सशक्त, ज्ञानी, विवेकशील, व्यापक एवं आनंदित बनेगा । साधना का अंतिम ध्येय केवल ‘माया से मुक्ति अथवा ‘समाधि’ नहीं है, अपितु ‘पृथ्वी पर व्यतीत किए जा रहे जीवन में दिव्यता लाना’ है ।’, उन्होंने चेतना की उत्क्रांति का सिद्धांत रखा । महर्षि अरविंद ने भारत को ‘विश्व का आध्यात्मिक गुरु’ बनने का मार्ग दिखाया । महर्षि अरविंद के विचारों के कारण अनेक क्रांतिकारी, नेता, विचारक, वैज्ञानिक, कलाकार आदि प्रभावित हुए ।
२ ई. सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी
२ ई १. देशविरोधी शक्तियों द्वारा राष्ट्र-धर्म पर होनेवाले आघात जानकर उनके प्रतिकार हेतु भारत में ‘हिन्दू राष्ट्र’ की स्थापना का संकल्प लेना : सच्चिदानंद परब्रह्म गुरुदेवजी की जन्मपत्रिका में प्रथम स्थान में ‘मंगल’ तथा ११वें (लाभ) स्थान में उच्च का ‘रवि’ है । उनकी जन्मपत्रिका में ‘बृहस्पति’ पहले स्थान के आरंभ में है । ये योग नेतृत्त्वगुण, धैर्य, कार्यतत्परता, संगठन कौशल, व्यापकता इत्यादि विशेषता दर्शाते हैं । भारत में पिछले कुछ दशकों से धर्मनिरपेक्षतावादी, साम्यवादी, ईसाई मिशनरी, धर्मांध इस्लामी गुट, तथाकथित बुद्धिजीवी इत्यादि राष्ट्र-धर्मविरोधी शक्तियां भारत में हिन्दू धर्म एवं संस्कृति को नष्ट करने का प्रयास कर रही हैं । ‘हिन्दू धर्म’ भारत का प्राण है । हिन्दू धर्म यदि नष्ट हुआ, तो उससे राष्ट्र का भी विनाश होगा’, यह जानकर सच्चिदानंद परब्रह्म गुरुदेवजी ने भारत में ‘हिन्दू राष्ट्र’ की स्थापना का संकल्प लिया । सच्चिदानंद परब्रह्म गुरुदेवजी की प्रेरणा के कारण हिन्दू राष्ट्र की स्थापना हेतु हिन्दुओं का संगठन खडा किया जा रहा है । हिन्दू धर्म पर हो रहे विभिन्न आघात, उदा. बलपूर्वक धर्मांतरण, विभिन्न प्रकार के जिहाद, देवताओं का अनादर, मंदिरों का सरकारीकरण, गोहत्याएं इत्यादि के विरोध में लोकतांत्रिक पद्धति से लडाई लडी जा रही है । सच्चिदानंद परब्रह्म गुरुदेवजी की प्रेरणा से भारत के हिन्दुत्वनिष्ठ संगठित होकर हिन्दू राष्ट्र की स्थापना हेतु प्रयास कर रहे हैं । भारत में हिन्दू राष्ट्र की स्थापना हुई, तो उससे हिन्दू धर्म के उच्चतम वैश्विक मूल्यों की रक्षा होकर समाज का सर्वांगीण उत्कर्ष होगा तथा भारत ‘विश्व का आध्यात्मिक गुरु’ बनेगा !
३. संतों की जन्मपत्रिकाओं में दिखनेवाले समान ग्रहयोग
अ. उक्त उल्लेखित ४ संतों की जन्मपत्रिकाओं में धर्मस्थानों के (१, ५ एवं ९ इन स्थानों के) स्वामियों का एक-दूसरे के साथ शुभयोग है । उसके कारण बौद्धिक क्षमता, भाग्य, पूर्वजन्मों की साधना, गुरुकृपा आदि लाभ मिलते हैं ।
आ. इन संतों की जन्मपत्रिकाओं में मोक्षस्थानों के (४, ८ एवं १२ वें स्थानों के) स्वामियों का भी एक-दूसरे के साथ शुभयोग है । इसलिए त्याग, समर्पण, आध्यात्मिक उन्नति, आध्यात्मिक कार्य करना आदि परिणाम मिलते हैं ।
इ. इन संतों की जन्मपत्रिकाओं में अनेक ग्रहयोग समान हैं । उसमें रवि-बृहस्पति (ज्ञानशक्ति), बुध-शनि (सैद्धांतिक एवं आध्यात्मिक कार्य), शुक्र-शनि (माया से अलिप्तता), बृहस्पति-मंगल (समष्टि कार्य करने की क्षमता) तथा चंद्रमा-नेपच्यून (सूक्ष्म से जानने की क्षमता) इन ग्रहयोगों का समावेश
है । बुध, शुक्र एवं शनि के एक-दूसरे के साथ स्थित शुभयोग आध्यात्मिक उन्नति हेतु पूरक हैं, जबकि रवि, मंगल एवं बृहस्पति के एक-दूसरे के साथ स्थित शुभयोग राष्ट्र-धर्म की रक्षा के कार्य हेतु आवश्यक क्षमता दर्शाते हैं ।
ई. इन संतों की जन्मपत्रिकाओं में ग्रहों के प्रबल अशुभ योग नहीं हैं, जिसके कारण व्यक्तिगत प्रारब्ध के कारण जीवन में आनेवाली समस्याएं अल्प होती हैं ।
३ अ. संतों की जन्मपत्रिकाओं का व्यष्टि एवं समष्टि साधना करने की दृष्टि से अनुकूल होना : उक्त विवेचन से यह ध्यान में आता है कि इन संतों की जन्मपत्रिकाएं आध्यात्मिक उन्नति की दृष्टि से उत्तम हैं, साथ ही उच्च श्रेणी की तथा असामान्य हैं । इन संतों की जन्मपत्रिकाओं में ‘रवि’, ‘मंगल’ एवं ‘बृहस्पति’ के शुभयोग होने से उनके दृष्टिकोण व्यापक दिखाई देते हैं, साथ ही उनमें राष्ट्र एवं धर्म की स्थिति में सुधार लाने की लगन भी दिखाई देती है । उन्होंने केवल स्वयं की आध्यात्मिक उन्नति की ओर ही ध्यान नहीं दिया, अपितु पूरे समाज को शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से सबल बनाने हेतु प्रयास किए ।
४. संतों की जन्मपत्रिकाओं में भले ही अच्छे योग हों, तब भी उनके द्वारा किए गए प्रयास अधिक महत्त्वपूर्ण
इन संतों की जन्मपत्रिकाओं में भले ही अच्छे योग हों; तब भी उनके द्वारा ध्येय की प्राप्ति हेतु दृढतापूर्वक किए गए प्रयास, उनके द्वारा सर्वस्व का किया गया त्याग, राष्ट्रविरोधी शक्तियों से लडी लडाई, निरंतर किया गया जनकल्याण का विचार आदि बातें अर्थात उनके प्रयास अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं । इन संतों ने उनके जीवन में तथा सीख में प्रयासों को ही अधिक महत्त्व दिया है । जन्मपत्रिकाओं में स्थित ग्रहयोगों के अनुसार हमारे जीवन में विशिष्ट स्थिति बनती है । उस पर हमारा नियंत्रण नहीं होता; परंतु उस स्थिति का सामना कैसे करना है, यह हमारे प्रयासों पर निर्भर होता है तथा ये प्रयास ही व्यक्ति को सफलता दिलाते हैं ।
५. संतों के माध्यम से ईश्वर के द्वारा धर्मसंस्थापना का कार्य किया जाना
गीता में भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं, ‘जब अधर्म प्रबल होता है, तब धर्म की पुनर्स्थापना हेतु मैं पुनः अवतार धारण करता हूं ।’ मनुष्यजाति का आध्यात्मिक स्तर गिर जाने पर उसे पुनः सुधारने हेतु ईश्वर विभिन्न विभूतियों के रूप में कार्य करते हैं । हाल ही के ४०० वर्षाें का विचार किया जाए, तो १७ वीं शताब्दी में समर्थ रामदासस्वामीजी, १९ वीं शताब्दी में स्वामी विवेकानंदजी तथा २० वीं शताब्दी में महर्षि अरविंदजी के माध्यम से ईश्वर ने धर्मसंस्थापना का कार्य किया । अब २१वीं शताब्दी में सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी के माध्यम से ईश्वर यह कार्य कर रहे हैं । इन संतों से ईश्वर की उच्च स्तर की चेतना व्यक्त हुई है । इसलिए उनके द्वारा होनेवाला कार्य व्यक्तिगत मन एवं बुद्धि से परे, ‘विश्वमन’ एवं ‘विश्वबुद्धि’ के बल पर संपन्न होता है, जिससे वह चिरकाल प्रभावी होता है ।
समाज की तत्कालीन स्थिति एवं मानसिकता के अनुरूप अवतारी संतों की कार्य करने की पद्धति, उनकी सीख, सिद्धांत, साधनामार्ग इत्यादि में विभिन्नता दिखाई देती है; परंतु उनका ध्येय एक ही होता है – मानवजाति को अज्ञान, संकीर्णता एवं दुर्बलता से बाहर निकालकर उन्हें ज्ञान, व्यापकता, सामर्थ्य एवं प्रेम का मार्ग दिखाना तथा मनुष्य में छिपी ईश्वर की दिव्यता प्रकट करना !’
– श्री. राज कर्वे, ज्योतिष विशारद, महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय, गोवा. (१४.४.२०२५)