१. श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) गाडगीळजी द्वारा अपरिचित श्री. देवा से इस प्रकार बातें करना, मानो वे उन्हें अनेक वर्षाें से जानती हों; तथा उन्हें अपना बना लेना
‘अगस्त २०२३ में सप्तर्षि जीवनाडी-पट्टिका में बताए अनुसार श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली मुकुल गाडगीळजी मुन्नार, केरल गई थीं । वहां एक हितचिंतक ने हमें रहने के लिए उनका घर दिया था । उनके यहां ‘देवा’ नाम का रसोईया था । वह बांग्ला था; परंतु उसने अनेक वर्ष मुंबई में काम किया था; इसलिए वह मराठी बोलता था । ‘किसी नए स्थान पर जाने पर तथा उसमें भी अपरिचित व्यक्ति से कैसे बात की जाए ?’, इसका मैं विचार कर रहा था; परंतु श्रीचित्शक्ति श्रीमती गाडगीळजी श्री. देवा से इस प्रकार बातें कर रही थीं, मानो वे अनेक वर्षाें से उन्हें जानती हों । हम वहां ४ दिन रहे; परंतु उन चार दिनों में ही श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली मुकुल गाडगीळजी ने श्री. देवा को अपना बना लिया । उन्होंने श्री. देवा को साधना बताई तथा नामजप करने के लिए कहा ।
श्री. देवा ने भी श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) गाडगीळजी को अपनी अनुभूतियां बताईं ।
२. गुरु की वाणी में चैतन्य एवं प्रीति होने से उनके बताने पर सामनेवाले व्यक्ति का साधना आरंभ करना
संतों के सत्संग के कारण केवल ४ दिनों में ही श्री. देवा में आया परिवर्तन देखकर मुझे समझ में आया कि ‘गुरु सभी जीवों पर समान प्रीति करते हैं ।’ जैसे आकाश में स्थित बादल, व्यक्ति, प्रदेश, समाज एवं देश के आधार पर बिना भेदभाव किए वर्षा करते हैं अथवा वृक्ष सभी को समान छाया देते हैं, वैसे ही गुरु सभी पर समान प्रीति करते हैं । गुरु की वाणी में चैतन्य एवं प्रीति होने से उनके बताने
पर सामनेवाला व्यक्ति साधना करने लगता है ।
इस प्रसंग से मुझे सीखने के लिए मिला कि ‘गुरु किसी भी जीव का पद, उसकी नौकरी आदि नहीं देखते, अपितु वे केवल उस जीव में विद्यमान चैतन्य की ओर देखते हैं तथा अन्यों को भी प्रत्येक व्यक्ति में स्थित चैतन्य की ओर देखना सिखाते हैं ।’
– श्री. विनायक शानभाग (आध्यात्मिक स्तर ६७ प्रतिशत), कांचीपुरम्, तमिलनाडु (४.१२.२०२३)