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नई दिल्ली – सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान की प्रस्तावना से ‘धर्मनिरपेक्ष’ तथा ‘समाजवाद’ शब्द हटाने की मांग वाली याचिका पूरी सुनवाई से पहले बंद कर दी है। न्यायालय ने कहा कि मामला ५० साल पुराना है । पूर्व केंद्रीय मंत्री डाॅ. सुब्रह्मण्यम स्वामी, अधिवक्ता श्री. अश्विनी उपाध्याय एवं अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन ने ये याचिका प्रविष्ट की थी । वर्ष १९७६ में आपातकाल के समय प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने ४२ वें संविधान संशोधन की प्रस्तावना में ये दो शब्द जोड़े ।
१. सर न्यायाधीश ने कहा कि इस याचिका पर विस्तृत सुनवाई की आवश्यकता नहीं है । वर्ष १९७६ में एक संशोधन द्वारा ‘समाजवाद’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द जोड़े गए और इससे वर्ष १९४९ में अपनाए गए संविधान पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है।
२. सुनवाई के समय वकील विष्णु शंकर जैन ने ९ जजों की संविधान पीठ के वर्तमान निर्णय का हवाला दिया । सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश वी.आर. कृष्णा अय्यर और न्यायमूर्ती ओ. चिन्नाप्पा रेड्डी की ‘समाजवादी’ शब्द की परिभाषा से सर्वोच्च न्यायालय ने असहमती दर्शायी है ।
३. इस पर चीफ जस्टिस खन्ना ने कहा कि भारत के संदर्भ में हम समझते हैं कि भारत में समाजवाद अन्य देशों से बहुत अलग है । समाजवाद को मुख्यतः एक ‘कल्याणकारी राज्य’ के रूप में समझा जाता है। एक कल्याणकारी राज्य में लोगों के कल्याण के लिए मान्य होना चाहिए और समान अवसर प्रदान करना चाहिए। वर्ष १९९४ के एस.आर बोम्मई मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि ‘धर्मनिरपेक्षता’ संविधान की मूल संरचना का अंग है।
Concerns expressed by @AshwiniUpadhyay Advocate and Social activist over dismissal of Preamble Amendment plea by SC without complete hearing 🚨
The recent closure of the Petitions to Remove ‘Secular’ And ‘Socialist’ From Preamble of Constitution by the #SupremeCourt has raised… pic.twitter.com/bA8BIZk0L4
— Sanatan Prabhat (@SanatanPrabhat) November 25, 2024
४. वकील जैन ने आगे तर्क दिया कि आपातकाल के समय १९७६ का संविधान संशोधन लोगों की बात सुने बिना पारित कर दिया गया था। इन शब्दों को सम्मिलित करने का अर्थ है लोगों को एक निश्चित विचारधारा का पालन करने के लिए बाध्य करना। जब परिचय में ‘कट ऑफ डेट’ (कुछ करने के लिए निर्धारित अंतिम दिन) आता है, तो नए शब्द कैसे जोड़े जा सकते हैं ?
५. पीठ ने कहा कि संविधान का अनुच्छेद ३६८ संसद को संविधान में संशोधन करने का अधिकार देता है और इसके विस्तार में प्रस्तावना भी सम्मिलित है।
सुप्रीम कोर्ट का सम्मान, किंतु याचिका बंद होने से संतुष्ट नहीं! -याचिकाकर्ता अधिवक्ता श्री. अश्विनी उपाध्यायइस संबंध में ‘सनातन प्रभात’ को जानकारी देते हुए अधिवक्ता श्री. अश्विनी उपाध्याय ने कहा कि मैं सुप्रीम कोर्ट का सम्मान करता हूं; लेकिन न्यायालय ने संविधान की प्रस्तावना पर पूरी सुनवाई से पहले ही याचिका बंद कर दी । मैं इससे संतुष्ट नहीं हूं । इस संबंध में अधिवक्ता उपाध्याय ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की है । वे पुनर्विचार याचिका प्रविष्ट कर न्यायालय से इस मामले पर पुनर्विचार करने का अनुरोध करने जा रहे हैं । उन्होंने प्रेस विज्ञप्ति से कानून को लेकर १५ सवाल उठाए हैं । उनमें से कुछ इस प्रकार हैं : १. क्या केंद्र सरकार को संविधान बदलने का अधिकार तब है जब केंद्र सरकार का कार्यकाल समाप्त हो गया हो, यानी जब उसके पास कोई लोकप्रिय समर्थन न हो?
अधिवक्ता उपाध्याय ने आगे कहा कि आपातकाल के समय और लोकसभा का कार्यकाल समाप्त होने के बाद प्रस्तावना में संशोधन महत्वपूर्ण संवैधानिक, कानूनी और नैतिक चिंताओं को जन्म देता है। यह लोकतांत्रिक शासन के सिद्धांतों को चुनौती देता है, संवैधानिक संशोधन की वैधता और प्रक्रिया पर प्रश्न उठाता है और संविधान की अखंडता और पवित्रता को बनाए रखने की आवश्यकता पर प्रकाश डालता है। संविधान की मूल संरचना के प्रतिबिंब के रूप में, प्रस्तावना को मनमाने परिवर्तनों से बचाया जाना चाहिए। यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कोई भी सुधार लोकतंत्र के मौलिक सिद्धांतों और आदर्शों के अनुरूप हो। हमारा लोकतांत्रिक गणतंत्र इसी पर आधारित है। |
संपादकीय भूमिकामूलतः ये शब्द तत्कालीन कांग्रेस सरकार द्वारा संविधान में संशोधन करते समय जोड़े गए थे। अत: वर्तमान केंद्र सरकार को संविधान में पुनः संशोधन कर इन शब्दों को हटा देना चाहिए ! |