बीमारियां होने पर उन्हें ठीक करने की अपेक्षा ‘बीमारियां हों ही न’; इसके लिए आयुर्वेद द्वारा जिन बंधनों का पालन करने के लिए कहा गया है; वे ही परोक्ष रूप से बीमारी का कारण भी बनते हैं !
१. प्रज्ञापराध (बुद्धि, स्थैर्य, स्मृति, इनसे दूर जाकर तथा उससे होनेवाली हानि ज्ञात होते हुए भी शारीरिक, वाचिक अथवा मानसिक स्तर पर पुनः-पुनः किया जानेवाला अनुचित कृत्य) होने न देना
२. मन एवं इंद्रियों को नियंत्रण में रखना तथा काम, क्रोध इत्यादि आवेगों का नियंत्रण करना
३. खांसी, शौच, मूत्रविसर्जन आदि प्राकृतिक वेगों को दबाकर न रखना
४. अच्छे स्वास्थ्य के लिए हितकारी आहार-विहार लेना
५. वसंत ऋतु में कफ न बढे; इसके लिए उल्टी करना, शरद ऋतु में पित्त न बढे; इसके लिए रेचक लेना; वर्षा ऋतु में वात न बढे; इसके लिए ‘एनिमा’ लेना
६. देश-काल के अनुसार दिनचर्या एवं ऋतुचर्या रखना
७. दान देना तथा अन्यों की सहायता करना
८. सत्यवचन बोलना, साथ ही तप एवं योगसाधना करना
९. अध्यात्म का चिंतन कर उसके अनुसार आचरण करना
१०. सदाचरण करना, सभी के साथ स्नेहभाव एवं समानता से व्यवहार करना
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