#Ayurved : …बीमारियों का मूल तथा उसकी दैवी चिकित्सा

कोई भी बीमारी शरीर में विद्यमान वात, पित्त अथवा कफ के स्तर में आनेवाले परिवर्तन के कारण होती है । आयुर्वेद के अनुसार कैंसर से लेकर हृदयरोग तक तथा पक्षाघात से लेकर मधुमेह तक सभी रोगों का मूल यही है । शरीर में स्थित त्रिदोषों में से किसी भी दोष का स्तर बढा अथवा अल्प हुआ अथवा उनके गुणों में परिवर्तन आने से वे दूषित हुए, तो यही कण शरीर में रोग उत्पन्न करते हैं । आयुर्वेद बताता है कि ‘आहार (सात्त्विक अन्न) एवं विहार (व्यायाम एवं उचित दिनचर्या) को उचित रखकर, साथ ही शरीर में विद्यमान वात, पित्त एवं कफ के कणों को संतुलित अथवा साम्यावस्था में रखकर बीमारियां टाली जा सकती हैं, उनकी तीव्रता अल्प बनाई रखी जा सकती है अथवा उन्हें ठीक किया जा सकता है ।’


‘बीमारियां न हों’; इसलिए आयुर्वेद द्वारा सुझाए गए उपचार !

 

बीमारियां होने पर उन्हें ठीक करने की अपेक्षा ‘बीमारियां हों ही न’; इसके लिए आयुर्वेद द्वारा जिन बंधनों का पालन करने के लिए कहा गया है; वे ही परोक्ष रूप से बीमारी का कारण भी बनते हैं !

१. प्रज्ञापराध (बुद्धि, स्थैर्य, स्मृति, इनसे दूर जाकर तथा उससे होनेवाली हानि ज्ञात होते हुए भी शारीरिक, वाचिक अथवा मानसिक स्तर पर पुनः-पुनः किया जानेवाला अनुचित कृत्य) होने न देना

. मन एवं इंद्रियों को नियंत्रण में रखना तथा काम, क्रोध इत्यादि आवेगों का नियंत्रण करना

३. खांसी, शौच, मूत्रविसर्जन आदि प्राकृतिक वेगों को दबाकर न रखना

४. अच्छे स्वास्थ्य के लिए हितकारी आहार-विहार लेना

. वसंत ऋतु में कफ न बढे; इसके लिए उल्टी करना, शरद ऋतु में पित्त न बढे; इसके लिए रेचक लेना; वर्षा ऋतु में वात न बढे; इसके लिए ‘एनिमा’ लेना

६. देश-काल के अनुसार दिनचर्या एवं ऋतुचर्या रखना

७. दान देना तथा अन्यों की सहायता करना

८. सत्यवचन बोलना, साथ ही तप एवं योगसाधना करना

९. अध्यात्म का चिंतन कर उसके अनुसार आचरण करना

१०. सदाचरण करना, सभी के साथ स्नेहभाव एवं समानता से व्यवहार करना


देह में विद्यमान ‘अग्नि’ ही स्वास्थ्य लाभ का मूल है !

१. स्वास्थ लाभ के लिए देह में विद्यमान अग्नि का (पाचन शक्ति का) महत्त्व !

१ अ. देह में विद्यमान अग्नि भगवान का रूप होना : बाह्य सृष्टि में जैसे अग्नि के कारण अन्न पकता है, साथ ही खाए गए आहार का पाचन अग्नि के कारण ही होता है । देह में विद्यमान अग्नि को ‘वैश्वानर’ कहा गया है । इसी को ‘जठराग्नि’ भी कहते हैं । भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं,

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः ।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ।।
– श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १५, श्लोक १४

अर्थ : हे अर्जुन, मैं ‘वैश्वानर’ अग्नि बनकर प्राणियों की देहों में वास करता हूं । मैं प्राण एवं अपान से युक्त (वैश्वानर अग्नि) ४ प्रकार के अन्न का पाचन करता हूं । (अन्न के ४ प्रकार बताए गए हैं – चबाकर खाने योग्य, चखकर खाने योग्य, निगलने योग्य तथा पीने योग्य ।)

२. जाठरो भगवान् अग्निः ईश्वरोऽन्नस्य पाचकः ।
– सुश्रुतसंहिता, सूत्रस्थान, अध्याय ३५, श्लोक २७
अर्थ : जठराग्नि प्रत्यक्ष भगवान का रूप है तथा उसके रूप में ईश्वर ही देह के अन्न का पाचन करते हैं । शरीर में अग्निरूप से भगवान ही वास करते हैं; इसलिए भोजन केवल ‘उदरभरण’ नहीं, अपितु वह ‘यज्ञकर्म’ है ।

३. आयु एवं स्वास्थ्य का देह में विद्यमान अग्नि पर ही निर्भर होना ! :

आयुर्वर्णाे बलं स्वास्थ्यम् उत्साहोपचयौ प्रभा ।
ओजस्तेजोऽग्नयः प्राणाश्चोक्ता देहाग्निहेतुकाः ।।
शान्तेऽग्नौ म्रियते युक्ते चिरं जीवत्यनामयः ।
रोगी स्याद् विकृते मूलम् अग्निस्तस्मात् निरुच्यते ।।
– चरकसंहिता, चिकित्सास्थान, अध्याय १५, श्लोक ३ एवं ४

अर्थ : आयु; शरीर का वर्ण; बल; स्वास्थ्य; उत्साह; उपचय (पुष्टि); कांति; ओज; तेज; शरीर में विद्यमान पंचमहाभूतों की ५ भूताग्नि; रस, रक्त आदि ७ धातुओं में स्थित (शरीर घटकों में से) ७ धात्वग्नि तथा प्राण देह में स्थित अग्नि पर (पाचन शक्ति पर) निर्भर हैं । देह में विद्यमान अग्नि शांत होते ही मृत्यु आ जाती है । अग्नि को यदि संतुलित रखा गया, तो दीर्घायु एवं स्वास्थ्य लाभ होता है । अग्नि विकृत अथवा दूषित हुई, तो उससे विकार उत्पन्न होते हैं । इसलिए ऋषि कहते हैं, ‘अग्नि देह का मूल है ।’

४. देह में विद्यमान अग्नि की रक्षा होकर स्वास्थ लाभ होने के लिए करने आवश्यक ४ मूलभूत कृत्य ! :

अ. शीघ्र सोएं, शीघ्र जाग जाएं तथा दोपहर को सोना टालें !

आ. मल-मूत्रादिकों के आवेग (प्रवृत्ति) न रोकें !

इ. शरीर में विद्यमान रोगकारक त्रिदोष नष्ट करने हेतु व्यायाम करें !

ई. आहार के ४ मूलभूत नियमों का पालन करें ! ये नियम निम्नानुसार हैं –

१. उचित समय पर भोजन करें !

२. उचित मात्रा में भोजन करें !

३. आवश्यक उतना ही पानी पीएं !

४. स्वास्थ्य अच्छा नहीं हो, तो उस समय दूध और उससे बने पदार्थाें का सेवन करना टालें ! (संदर्भ : सनातन का ग्रंथ – आयुर्वेदानुसार आचरण कर बिना औषधियों के स्वस्थ रहिए !)


बीमारी के आध्यात्मिक कारण तथा दैवी चिकित्सा !

वैद्य मेघराज पराडकर

औषधियों के साथ आयुर्वेद ‘दैवी चिकित्सा’ भी बताता है । अधिकतर किसी भी शारीरिक बीमारी में कुछ स्तर पर आध्यात्मिक तथा कुछ स्तर पर मानसिक भाग होता है । रोग के मूल कारण की खोज करते समय आयुर्वेद उसके आध्यात्मिक पक्ष (पहलू) की ओर भी हमारा ध्यान आकर्षित करता है । आयुर्वेद में बताया गया है, ‘औषधि के अपेक्षित परिणाम न होनेवाले रोग, पिछले जन्म में की गई चूकों अर्थात प्रारब्ध के कारण होते हैं । आयुर्वेद ने १४ प्रकार की दैवी चिकित्सा बताई है । मंत्र; औषधियां; मणि (ग्रहों के पत्थर); होम एवं यज्ञ; प्रायश्चित एवं व्रत; उपवास; दान; जप; तप; द्विज (ब्राह्मण), देवता एवं गुरु की पूजा; द्विज एवं संतों का सम्मान, सत्संग; सभी प्राणियों के प्रति मित्रता की भावना; योगाभ्यास एवं ध्यान धारणा; साथ ही कुलाचार आदि सूत्र इसके अंतर्गत आते हैं ।

सनातन के सहस्रों साधकों ने इसका अनुभव किया है, ‘मंत्रोपाय, जप करना, स्तोत्र का पाठ करना, कुदृष्टि निकालना (नजर उतारना), देह पर स्थित काली शक्ति का आवरण निकालना  इ. आध्यात्मिक उपचारों से कुछ बीमारियां ठीक होती हैं, उनकी तीव्रता अल्प होती है या संबंधित औषधियां उन बीमारियों पर लागू होती हैं ।’

मंत्रोपाय

परात्पर गुरु पांडे महाराजजी ने अनेक रोगों के लिए मंत्रोपाय दिए, जिससे सनातन के अनेक साधकों की बीमारियां ठीक हुईं अथवा अल्प हुईं । उन्होंने अनेक संस्कृत ग्रंथों का अध्ययन कर उन मंत्रों की खोज की है ।

पूर्वजों के कष्टों के कारण होनेवाली बीमारियों के उपाय

आज के समय में समाज के अधिकांश व्यक्तियों को पूर्वजों के कष्ट होते हैं । कुछ बीमारियां पूर्वजों के कष्टों के कारण होती हैं । ‘श्री गुरुदेव दत्त’ जप करने से पूर्वजों के कष्ट अल्प होकर वो ठीक होती हैं । ‘ssrf.org’ (‘एसएसआरएफ डॉट ओआरजी’) जालस्थल पर इसके उदाहरण दिए गए हैं ।

प्राणवहन संस्था में समाहित बाधाओं के कारण होनेवाली बीमारियों के उपाय

श्वसन, पाचन, मज्जा इ. तंत्रों, साथ ही रक्ताभिसरण हेतु प्राणवहन (चेतना) प्रणाली प्राणशक्ति की आपूर्ति करती है । उसमें बाधा आने से संबंधित अंगों की कार्यक्षमता न्यून होकर बीमारियां उत्पन्न होती हैं । कभी-कभी चिकित्सीय परीक्षण में परीक्षण सामान्य आते हैं; परंतु कष्ट होता है । ऐसे में संबंधित तंत्र या अंग में समाहित प्राणशक्ति (चेतना) क्षीण होने के कारण वह बीमारी होती है । सनातन संस्था के संस्थापक परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने हिन्दू धर्म में निहित ज्ञान का उपयोग कर प्राणशक्ति (चेतना) प्रणाली में विद्यमान अवरोध खोजने की पद्धति, साथ ही विभिन्न मुद्राओं, न्यासों तथा जपों के संदर्भ में स्वयं प्रयोग कर बीमारियां ठीक होने हेतु सनातन के साधकों को यह उपचार-पद्धति बताई । इसमें हाथ की उंगलियों की मुद्राएं तथा जप कर विशिष्ट कुंडलिनी चक्र के स्थान या अंगों के स्थान पर न्यास करना होता है । २०१० से सनातन के सहस्रों साधकों को इसका लाभ मिलने से अब यह एक प्रमाणभूत शास्त्र ही बन चुका है ।

प.पू. डॉक्टरजी ने देवताओं का एक छोडकर एक जप, खाली बक्सों के उपाय इ. विशेषतापूर्ण उपचार-पद्धतियों का भी शोध किया है ।

बीमारियों के लिए देवताओं के नामजप

मनुष्य की देह पंचमहाभूतों से बनी होती है; इसलिए उनमें से किसी तत्त्व का असंतुलन होने से बीमारियां उत्पन्न होती हैं । ये विकार भी पंचतत्त्वों से संबंधित होते हैं । प्रत्येक देवता में भी पंचतत्त्व होते हैं । देवता में विद्यमान पंचतत्त्वों में से किसी तत्त्व की प्रबलता के अनुसार वह देवता उस तत्त्व से संबंधित बीमारी शीघ्र ठीक (स्वस्थ) कर सकते हैं । पंचतत्त्वों से संबंधित बीमारी के लिए प्रयुक्त नामजप के साथ मुद्रा एवं न्यास करने से उपायों से अधिक लाभ मिलता है । सनातन संस्था के संस्थापक परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने विकार निर्मूलन के लिए प्रयुक्त नामजप का शोध किया है ।

सनातन के सद्गुरु डॉ. मुकुल गाडगीळजी ने भी विभिन्न रोगों के लिए विशिष्ट नामजपों का शोध किया है ।

– वैद्य मेघराज पराडकर, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा.

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