१. ‘निर्भया’ के निर्णय की समयमर्यादा !
१६ दिसंबर २०१२ को देहली में एक २३ वर्षीय युवती के साथ सामूहिक बलात्कार कर उसकी अमानवीय हत्या की गई । इस घटना से पूरे देश में क्षोभ का वातावरण बना तथा लोगों ने इसकी तीव्र निंदा की । इस प्रकरण में १३ सितंबर २०१३ को जिला न्यायालय का निर्णय आया । दुर्लभ से दुर्लभ सिद्धांत का संदर्भ देते हुए न्यायालय ने ४ आरोपियों को अर्थात मुकेश, विनय, पवन एवं अक्षय, इन आरोपियों को फांसी का दंड सुनाया । उसके उपरांत १३ मार्च २०१४ को देहली उच्च न्यायालय का निर्णय आया । देहली उच्च न्यायालय ने इन चारों आरोपियों को मिला फांसी का दंड बनाए रखा । ५ मई २०१७ को सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आया । इसमें सर्वोच्च न्यायालय ने भी ४ आरोपियों की अपील अस्वीकार कर फांसी के दंड पर अपनी मुहर लगाई । उसके उपरांत २० मार्च २०२० को प्रातः ५.३० बजे मुकेश, विनय, पवन एवं अक्षय, इन चारों दोषियों को फांसी
दी गई ।
२. न्यायालयीन व्यवसाय में मानसिक स्वास्थ्य की समस्याएं
न्यायालयीन व्यवसाय एक ऐसा व्यवसाय है, जिसमें निराशा जैसी मानसिक बीमारियों का बढता स्तर निरंतर दिखाई दिया है । वर्ष १९९० में ‘जॉन्स हॉपकिंस विश्वविद्यालय’ ने एक अध्ययन किया, जिसमें उन्हें संयुक्त राज्य अमेरिका के विभिन्न व्यवसायों में निराशा की प्रमुख बीमारियों पर किए गए अध्ययन में ऐसा दिखाई दिया कि निराशा से ग्रस्त व्यवसायियों में अधिवक्ताओं ने सबसे ऊंचा स्थान प्राप्त किया । पूरे विश्व में विभिन्न न्यायालयों ने विभिन्न अध्ययनों से इसकी समीक्षा कर निष्कर्षाें की पुष्टि की है । इस विषय में सामाजिक भाष्यकार विल रॉजर्स ने कहा, ‘‘अपराध से पैसे कमाइए, वकील बनिए !’ (Advocates Stress is professionally High among occupational stress : Will Rogers, the famous humorous/social commentator, said : ‘Make crime pay, become a lawyer !’)
३. अधिवक्ताओं के योगदान का महत्त्व
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अधिवक्ताओं का योगदान अतुलनीय है । लोकमान्य टिळक, सरदार वल्लभभाई पटेल, वीर सावरकर, लाला लाजपत राय, न्यायाधीश रानडे, देशबंधू चित्तरंजन दास जैसे अधिवक्ताओं ने उस समय भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेकर भारत को स्वतंत्रता दिलाई । अतः वर्तमान में हम जब हिन्दुओं को उनका अधिकार दिलानेवाली हिन्दू राष्ट्र की संकल्पना का विचार करते हैं, तब मुझे यह पूरा विश्वास है कि यदि हमारे सभी अधिवक्ताओं का संगठन सक्रिय हुआ तथा सभी ने यदि उसमें भाग लिया, तो भविष्य में इस भूमि पर निश्चित ही हिन्दू राष्ट्र की निर्मिति होगी ।
हिन्दू राष्ट्र के कार्य में अधिवक्ताओं की सहायता की आवश्यक होने का मुख्य कारण है हिन्दू राष्ट्र के वास्तविक संघर्ष में हमारे जैसे सामान्य कार्यकर्ता भी सहभागी होंगे; परंतु आज विरोधियों द्वारा वैचारिक युद्ध छेडा गया है । बौद्धिक स्तर पर यह लडाई जीतने के लिए वैचारिक योद्धाओं की आवश्यकता पडेगी, जो भारत के कानूनों का अध्ययन करेंगे तथा हिन्दुओं के कानूनी पक्ष को सक्षम बनाने हेतु, संविधान के प्रावधानों का उचित अर्थ लगाकर, हिन्दू अधिवक्ता समर्थरूप से हिन्दुओं के लिए वैचारिक योद्धाओं के रूप में सफलतापूर्वक अपनी भूमिका निभाएंगे । अतः सभी अधिवक्ताओं को इस वैचारिक लडाई के लिए तैयार रहना चाहिए ।
४. साधक अधिवक्ता क्या होता है ?
अधिवक्ताओं को वर्तमान संविधान की जानकारी है । वर्तमान संविधान में कौनसा अनुच्छेद अथवा प्रावधान हिन्दू धर्म के विरुद्ध है अथवा वह हिन्दू राष्ट्र की स्थापना में बाधा बन रहा है, यह बात हिन्दू अधिवक्ताओं के ध्यान में आती है, साथ ही जो अधिवक्ता भारतीय परंपरा के अधीन न्यायालयीन व्यवस्था की स्थापना के संदर्भ में अतीत में लागू की गई न्यायालयीन व्यवस्था के प्रावधानों को वर्तमान व्यवस्था में किस प्रकार लागू किया जा सकता है ?’, इसका अध्ययन करते हैं, उसके लिए वे संतों का मार्गदर्शन लेते हैं; क्योंकि वे ‘साधक अधिवक्ता’ हैं ! हमारे यहां अनेक हिन्दू अधिवक्ता हैं; परंतु अब उन्हें धर्मसंस्थापना के इस कार्य में सहायता करने के लिए साधक अधिवक्ता बनकर भारतीय न्यायदान की परंपरा को भारत में स्थापित करने हेतु प्रयास करना आवश्यक है ।

कछुए की गति से चलनेवाली भारतीय न्यायव्यवस्था !
भारतीय न्यायव्यवस्था को अभियोगों की प्रचंड लंबित स्थिति का सामना करना पड रहा है । अब तक सभी न्यायालयों में ५ करोड ११ लाख से अधिक प्रकरण लंबित हैं । इसमें उच्च न्यायालय के ६० लाख ५५ सहस्र ३७४ अभियोगों का समावेश है । जिला न्यायालयों में ४ करोड ४९ लाख ९९ सहस्र ५६५ प्रकरण लंबित हैं । उच्च न्यायालयों के लिए न्यायाधीश-जनसंख्या का अनुपात १ : १७ लाख ६५ सहस्र ७६० है तथा कनिष्ट न्यायालयों के लिए वह १ : ७१ सहस्र २२४ है । सिंगापुर, जिसने भारत की भांति अंग्रेजी कानून से ‘नागरी प्रक्रिया संहिता’ प्राप्त की । वर्ष १९९० के दशक में दीवानी प्रकरणों का निपटारा करने में उसे १० वर्ष का विलंब हुआ, तथापि न्यायिक सुधारों के उपरांत यह विलंब बहुत घट गया तथा अब सिंगापुर दीवानी एवं आपराधिक न्यायप्रणाली की स्थिति के संदर्भ में सर्वाेच्च देशों में से एक देश है । कोलकाता में महिला डॉक्टर के साथ बलात्कार की घटना के विरोध में क्षोभ एवं आंदोलन हुआ तथा उसका अन्वेषण भी चल रहा है; परंतु निर्भया प्रकरण का उदाहरण देखा जाए, तो न्यायतंत्र की स्थिति समझ में आ सकती है ।
– श्री. रमेश शिंदे, राष्ट्रीय प्रवक्ता, हिन्दू जनजागृति समिति
५. पू. अधिवक्ता हरि शंकर जैनजी तथा उनके पुत्र अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन का योगदान

अयोध्या का श्रीराम मंदिर हिन्दुओं के गर्व का प्रतीक ! हिन्दू विगत ५०० वर्षाें से इस मंदिर की प्रतीक्षा में थे । उसके लिए हिन्दुओं ने संघर्ष किया तथा प्राणों का भी बलिदान दिया । अंततः जब पूरे देश के हिन्दुओं के मन में अन्याय की भावना तीव्र हुई, तब क्षुब्ध हिन्दुओं ने संगठित होकर ६ दिसंबर १९९२ को श्रीराम जन्मभूमि के साथ किए गए अन्याय का प्रतीक बाबरी ढांचे का अतिक्रमण गिरा दिया; बाबरी गिराए जाने के उपरांत भी हिन्दुओं को श्रीराम मंदिर नहीं मिला । उसके लिए उच्च न्यायालय तथा सर्वोच्च न्यायालय में कानून के आधार से अभियोग लडना पडा । उसमें अनेक अधिवक्ताओं ने वैचारिक योद्धा की भूमिका निभाई । उनमें से पू. अधिवक्ता हरि शंकर जैनजी तथा उनके पुत्र अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी ।
अयोध्या का करोडों हिन्दुओं की आस्था के प्रतीक श्रीराम मंदिर का निर्माण-कार्य आज पूर्णता की ओर अग्रसर है । जैन पिता-पुत्र अयोध्या के श्रीराम मंदिर की लडाई समाप्त होने के उपरांत ‘हम जीत गए’, ऐसा बोलकर नहीं रुके, अपितु उन्होंने काशी, मथुरा, भोजशाला, कुतुबमिनार जैसे अनेक इस्लामी अतिक्रमणों के विरोध में याचिकाएं प्रविष्ट कर इस लडाई को आगे लेकर गए । अयोध्या की लडाई के लिए अनेक वर्ष लगे; परंतु अधिवक्ता विष्णु जैन बहुत अल्प समय में काशीविश्वनाथ मंदिर की मुक्ति की लडाई आगे लेकर गए । इस लडाई में वे केवल वैचारिक युद्ध नहीं लड रहे हैं, अपितु सच्ची लडाई लड रहे हैं । उन्हें जान से मारने की धमकियां भी मिल रही हैं तथा उन्हें अपने ही धर्मनिरपेक्ष एवं स्वार्थी हिन्दुओं के विरोध का सामना करना पड रहा है; परंतु ऐसा होते हुए भी वे उनके वकालत के व्यवसाय की अनदेखी कर तथा अनेक समस्याओं का सामना कर निरंतर देहली से काशी यात्रा कर हिन्दू अधिवक्ताओं के सामने आदर्श रख रहे हैं । उनकी लडाई से अन्य अधिवक्ता प्रेरणा लें; क्योंकि इस भारत में एक विष्णु शंकर जैन पर्याप्त नहीं हैं, अपितु प्रत्येक राज्य में, प्रत्येक शहर में तथा प्रत्येक प्रदेश में एक अयोध्या एवं एक काशी हिन्दुत्वनिष्ठ अधिवक्ताओं की प्रतीक्षा कर रही है । जहां हिन्दू मंदिर इस्लामी अतिक्रमण के नीचे गाड दिए गए हैं, वहां के देवता हिन्दुओं को पुकार रहे हैं । प्रत्येक अधिवक्ता ने इस अतिक्रमण के विरुद्ध एक एक होकर लडना सुनिश्चित किया, तो भारत को इस्लामी अतिक्रमणमुक्त होने में समय नहीं लगेगा । वहां से मुक्त होनेवाले देवता हमें भरभरकर आशीर्वाद देंगे तथा उनके आशीर्वाद से हिन्दू राष्ट्र का संकल्प पूर्ण होने में समय नहीं लगेगा ।
६. हिन्दूविरोधी ‘नैरेटिव’ (झूठी कहानी) के विरोध में ‘हिन्दू इकोसिस्टम’ (व्यवस्था) बनाने हेतु अधिवक्ताओं की आवश्यकता !
वर्तमान में हम देख रहे हैं कि देशविरोधी गतिविधियां चलानेवाले संगठित हैं । हमारे देश में साम्यवादी एवं मुसलमान ये दोनों एक-दूसरे के कट्टर शत्रु एकत्रित होकर कार्य करते हुए दिखाई देते हैं । उन्होंने स्वयं का ‘इकोसिस्टम’ तैयार किया है । इस कारणवश हिन्दू सामान्यतः न्याय से वंचित रहते हैं । हम इसके कुछ उदाहरण देखते हैं ।
६ अ. १६ जून २०२४ को बकरी ईद की पृष्ठभूमि पर मुंबई उच्च न्यायालय द्वारा दिया निर्णय इसका उत्तम उदाहरण है । छत्रपति शिवाजी महाराज के चरणस्पर्श से पवित्र किलों में से एक कोल्हापुर के विशालगढ में अवैध निर्माणकार्य कर दरगाह बनाई गई है । हिन्दू जनजागृति समिति तथा अन्य हिन्दू धर्मप्रेमियों ने एकजुट होकर इस अतिक्रमण का विरोध कर सरकार से इसकी शिकायत की । उसके कारण सरकार ने उन अवैध अतिक्रमणों पर कार्रवाई करने का निर्णय लिया । उसके उपरांत इस कार्रवाई को रोकने हेतु मुसलमानों ने उच्च न्यायालय में याचिका प्रविष्ट कर मांग की ‘हमें विशालगढ पर ‘कुर्बानी’ देने की अनुमति मिले; क्योंकि उनकी बकरीद निकट है ।’ मुंबई उच्च न्यायालय ने तुरंत उनकी यह मांग स्वीकार की ।
‘छत्रपति शिवाजी महाराज के ऐतिहासिक वास्तु पर (जो पुरातत्व विभाग के नियंत्रण में है) किए गए अतिक्रमण पर अभी तक कोई निर्णय नहीं हुआ है, तो उच्च न्यायालय ने ‘कुर्बानी’ पर तुरंत निर्णय कैसे दिया ?, यह प्रश्न यहां निर्माण होता है । न्यायालय ने महाराष्ट्र के अनेक मंदिरों में चल रही बलि देने की प्रथा निरस्त की । त्रिपुरा, ओडिशा, केरल इत्यादि अनेक राज्यों के उच्च न्यायालयों ने मंदिरों के सामने बलि देने की कुप्रथा बंद करने के लिए कहा, जिसके कारण वहां की सरकारों ने वहां चल रही बलिप्रथा को अंधविश्वास कहकर उस पर प्रतिबंध लगाया, तो ईद के दिन ‘कुर्बानी’ देना क्या अंधविश्वास नहीं है ? हिन्दू त्योहारों के संदर्भ में देखा जाए, तो मटकातोड की ऊंचाई न्यायालय निर्धारित करेगा, दीपावली में जलाए जानेवाले पटाखे प्रदूषणकारी घोषित किए जाएंगे, नागपंचमी के त्योहार पर प्रतिबंध लगाया जाएगा, जल्लीकट्टू (तमिलनाडु का पारंपरिक खेल), हिन्दुओं के मेलों में आयोजित की जानेवाले बैलगाडियों की प्रतियोगिताओं पर न्यायालय से प्रतिबंध लगाया जाता है; तो ईद की कुर्बानी को मान्यता कैसे दी जाती है ?, इस पर विचारमंथन होने की आवश्यकता है । इसमें हिन्दू समाज एवं युवकों को न्याय मिलना आवश्यक है । यह भारतीय संविधान द्वारा प्रदान समानता के मौलिक अधिकारों के विरुद्ध है ।
संविधान ने सभी के लिए समान न्याय तथा समानता का सिद्धांत स्थापित किया है, तो न्यायदान करते समय बहुसंख्यक हिन्दुओं को जो अधिकार नहीं दिए जाते, उन्हें न्यायालय अल्पसंख्यकों को कैसे दे सकता है ? न्यायालय असमानता कैसे बढा सकता है ? न्यायालय में इस विषय पर गहन चर्चा हो, साथ ही सभी के लिए उचित न्यायदान हो । देखना होगा कि सभी के लिए समानता की दृष्टि से कानून अथवा संविधान का विश्लेषण करना अधिवक्ताओं तथा न्यायालयों को कैसे सिखाया जाए ।
– श्री. रमेश शिंदे, राष्ट्रीय प्रवक्ता, हिन्दू जनजागृति समिति (क्रमशः)
संपादकीय भूमिकाप्रत्येक अधिवक्ता इस्लामी अतिक्रमण के विरुद्ध एक-एक कर लडने का निश्चय करे, तो भारत बहुत शीघ्र ही ‘इस्लामी अतिक्रमणमुक्त’ होगा, यह निश्चित है ! |