वैश्विक हिन्दू राष्ट्र महोत्सव का चौथा दिन (२७ जून) : उद़्बोधन सत्र : हिन्दू राष्ट्र के लिए वैचारिक आंदोलन
रामनाथी (गोवा) – पू. डॉ. शिवनारायण सेन ने कहा, ‘बंगाल के संत पंडित उपेंद्र मोहन के प्रारंभ का जीवन कष्टमय था । विवाह के उपरांत पत्नी के अनुरोध पर उन्होंने चंडीपाठ किया । चंडीपाठ में देवीमां ने कहा है ‘जो कोई चंडीपाठ करेगा, उनके सभी प्रकार के दु:ख मैं दूर करती हूं !’ उन्होंने उसकी प्रतीति लेने हेतु चंडीपाठ जारी रखा । एक वर्ष के उपरांत उन्हें अनुभूति हुई । उनके बहुत से प्रलंबित काम हो गए । उन्होंने चंडीपाठ का पठन अखंड शुरू रखा । ढाई वर्षों के पश्चात प्रत्यक्ष भगवान उनके सामने प्रगट होकर बोले, ‘‘मेरे साथ चलो, मैं तुम्हें लेने आया हूं ।’ उन्होंने भगवान के साथ जाना अस्वीकार कर दिया । उन्होंने भगवान से कहा, ‘आप कितने दयालु हैं, यह सभी को बता न दूं, तब तक मैं आपके साथ नहीं चलूंगा । विश्व भगवान को भूल गया है । इसलिए भगवान के मन में विशाद है । उनकी यह वेदना दूर होने तक मैं नहीं आऊंगा ।’ ‘जहां धर्म है, वहीं विजय है’, इस पर उनकी श्रद्धा थी । पंडित उपेंद्र मोहनजी के जीवन का यह प्रसंग कोलकाता, बंगाल के शास्त्र धर्म प्रचार सभा के सहसचिव पू. डॉ. शिबनारायण सेन ने बताया । ‘पंडित उपेंद्र मोहनजी के हिन्दू राष्ट्र के संबंध में विचार’ इस विषय पर बोलते समय उन्होंने पंडितजी का जीवनचरित्र उजागर किया ।
पू. डॉ. सेन ने आगे कहा, ‘पंडित उपेंद्र मोहनजी कहते थे, ५०० वर्ष मुसलमानों ने भारत को लूटा, मंदिर तोड डाले, परंतु वे हिन्दुओं का विश्वास नहीं तोड सके । आक्रामकों ने भारत को बडी मात्रा में लूट लिया, तब भी उस समय भारत की आर्थिक स्थिति विश्व में सुदृढ थी । ब्रिटिशों ने वर्ष १९३६ में देश में संस्कृत सिखाने पर प्रतिबंध लगा दिया । तब पंडित उपेंद्र मोहनजी ने उसका विरोध करते हुए ब्रिटिशों को सुनाया ‘संस्कृतद्रोह पाप है । पंडित उपेंद्र मोहनजी जिलाधिकारी बन गए । इस सरकारी पद पर कार्यरत रहते हुए उन्होंने भारतीय संस्कृति, परंपरा एवं नीतिमूल्यों को बनाए रखने का प्रयास किया । उसके लिए उन्होंने सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया । उन्होंने जर्मनी द्वारा किए गए जनसंहार का निषेध किया और कहा था जर्मनी एवं जापान द्वारा किए गए अधर्म का फल उन्हें भुगतना पडेगा और आगे ऐसा ही हुआ ।’