डॉ. वीरेंद्रसिंह तावडे निर्दोष मुक्त हुए हैं । उन पर सूत्रधार होने का आरोप था, वह न्यायालय ने अस्वीकार कर दिया है । सीबीआई ने उन पर आतंकवादी कार्यवाहियां करने का आरोप लगाकर उन्हें दोषी सिद्ध करने का प्रयास किया था । वह आरोप भी न्यायालय ने अस्वीकार कर दिया है । विक्रम भावे ने रेकी (कथित हत्यारों को मार्ग दिखाना) करने का आरोप भी न्यायालय ने अस्वीकार कर दिया है । इस प्रकरण में संजीव पुनाळेकर अधिवक्ता के रूप में कार्य कर रहे थे; परंतु उन्हें भी दोषी कहा गया था । उनसे संबंधित आरोप भी न्यायालय ने मान्य नहीं किए, एक प्रकार से यह विजय ही है, ऐसा मैं मानता हूं । इसके साथ ही दोनों को जो दंड मिला है, उनके प्रति हमारा मन अत्यंत दुःखी है । यह दंड मिलने का कारण नहीं था; क्योंकि स्मृतिभ्रंश के रोगी साक्षीदार ने ९ वर्ष उपरांत किसी को न्यायालय में पहचानना यह संदेह से परे की (beyond reasonable doubt) बात कहनी पडेगी ।
गुलांट मारकर गोल गोल घुमानेवाला सीबीआई का अन्वेषण !
इस प्रकरण में ३ अभियोग थे । प्रथम नागोरी एवं खंडेलवाल से बंदूक ली गई, तत्पश्चात उन्हें एक ओर रख दिया गया । तदुपरांत सारंग अकोलकर एवं विनय पवार पर गोलियां चलाने का आरोप लगाकर अकोलकर के घर पर छापा मारा गया । उनके लिए ५ लाख रुपयों का पारितोषिक रखा गया । अचानक एक गुलांट मारकर पुनः यह सब एक ओर रख दिया गया । अन्वेषण ऐसा गोल गोल घूमनेवाला कभी नहीं होता । अन्वेषण पहला अथवा दूसरा संस्करण नहीं होता, वह वेबसीरीज नहीं होता । ऐसा होते हुए सीबीआई का यह कृत्य अनुचित है, ऐसा हमारा कहना है । वर्ष २०१८ मध्ये सीबीआई तीसरा सिद्धांत लेकर आई । उस सिद्धांत के आधार पर आज ये दंड मिले हैं । फिर पहले की थ्योरी एवं उसके आधार पर पहले के साक्षीदारों ने अलग व्यक्तियों को पहचानना एक भयंकर बात है । इस पद्धति से अन्वेषण नहीं होना चाहिए । दो साक्षीदारों ने ‘क्रॉस एक्जामिनेशन’ में नहीं, अपितु चीफ एक्जामिनेशन में अलग अलग बातें बताईं । ऐसी परिस्थिति में अत्यंत दु:खी अंत:करण तथा उतनी ही बेचैनी से हम परिणाम स्वीकार रहे हैं । कदाचित तत्काल हम इसके विरोध में उच्च न्यायालय में जाएंगे ।
सीबीआई ने आरोपपत्र प्रविष्ट करने के उपरांत भी ६ वर्ष अभियोग नहीं चलाया !
भारत के इतिहास में पहली बार ऐसा घटा कि, सीबीआई ने आरोपपत्र प्रविष्ट किया, आरोपी को पकडा एवं आरोपी के अधिवक्ता अभियोग चलाने के लिए कहने लगे । तब सीबीआई ने कहा कि हमें यह अभियोग नहीं चलाना है । उन्होंने उच्च न्यायालय से ‘स्टे’ लिया । वर्ष २०१६ से २०२१ में अभियोग चला ही नहीं । वर्ष २०२१ के पश्चात अभियोग चला । १० जून २०१६ को डॉ. वीरेंद्रसिंह तावडे को बंदी बनाया गया । आज १० मई २०२४ को उन्हें निर्दोष मुक्त किया गया । उनके इतने वर्ष कारागृह में ही बीते । उसकी क्षतिपूर्ति कौन करेगा ?, इसका विचार समाज को भी करना चाहिए ।
उच्च न्यायालय में चुनौती देना, यही इससे आगे की भूमिका !
इस प्रकरण में अभी ‘टर्निंग पॉईंट’ आना है; क्योंकि अभी तीन ही व्यक्ति मुक्त हुए हैं । इसलिए संघर्ष अभी समाप्त नहीं हुआ है । कदाचित उच्च न्यायालय अथवा सर्वोच्च न्यायालय में उसमें घुमाव आएगा, तब भी तीन व्यक्तियों का मुक्त होना छोटी बात नहीं है । न्यायालय के परिणाम का अध्ययन कर उच्च न्यायालय में चुनौती देना ही हमारी आगे की भूमिका होगी !
दोषी आरोपियों के परिणाम के विरोध में न्यायालय में चुनौती देंगे ! – अधिवक्ता प्रकाश साळसिंगीकर
२० अगस्त २०१३ को दाभोलकर की हत्या हुई । तब से कुछ प्रसारमाध्यम एवं राजनीतिक नेताओं ने तुरंत ही निर्णय दे दिया । इसलिए अन्वेषण अधिकारी उचित दिशा में अन्वेषण नहीं कर पाए । आज शरद कळसकर एवं सचिन अंदुरे दोनों को दोषी माना गया है, तब भी परिणाम की पूर्ण प्रति प्राप्त होने पर हम इसके विरोध में न्यायालय में चुनौती देनेवाले हैं ।
इस अभियोग में ‘ट्रायल’ नहीं होने दी; परंतु किसने नहीं होने दी, यह ‘रोजनामा’ जालस्थल देखने पर ध्यान में आएगा । ‘स्टे’ न होते हुए भी यह अभियोग अनेक वर्ष रोककर रखा गया था । आरोपी सदैव कहते थे, हमारा अभियोग चलाइए । अभी दो महीने पूर्व भी सर्वोच्च न्यायालय में अभियोग समाप्त न करने हेतु याचिका प्रविष्ट की गई थी । उच्च न्यायालय द्वारा भी ‘मॉनिटरिंग’ बंद कर दी गई थी; परंतु पुनः चुनौती दी गई । अभियोग समाप्त करने की किसी की इच्छा नहीं थी । सहस्रों पृष्ठों की चार्जशीट न्यायालय में लाई गई; परंतु उनमें निहित सूत्र आरोपियों के विरोध में नहीं थे । इसकी जानकारी होने के कारण अभियोग समाप्त न होने देना, यही एक विकल्प था । आज न्यायालय ने ३ आरोपियों को निर्दोष मुक्त किया है । अन्य दोनों भी उच्च न्यायालय में निर्दाेष मुक्त होंगे, ऐसा हमारा विश्वास है ।
इस अभियोग में जो अधिवक्ता आरोपियों का बचाव कर रहा था, उसे ही (अधिवक्ता संजीव पुनाळेकर) आरोपी बनाया गया । कोई भी प्रमाण न होते हुए भी उन्हें आरोपी बनाया गया । बिना कारण ४२-४३ दिन उन्हें कारागृह में रहना पडा । उन्होंने अनेक जनहित याचिकाएं प्रविष्ट की हैं । अनेक गरीबों का भला होने के लिए सरकारी अथवा निजि चिकित्सालयों में १० प्रतिशत पलंग गरीबों के लिए रखने संबंधी जनहित याचिकाएं प्रविष्ट की थीं । ऐसा करनेवाले अधिवक्ता संजीव पुनाळेकर को इस अभियोग में आरोपी बनाया जाना खेदजनक है । उनके विरोध में कोई प्रमाण न होकर भी उन्हें इतने वर्ष कष्ट सहना पडा । UAPA कानून के अंतर्गत वे आरोपी हैं, ऐसा उन्हें सुनना पडा; परंतु प्रमाणों के अभाव में न्यायालय ने उन्हें निर्दोष मुक्त किया ।
शरद कळसकर एवं सचिन अंदुरे को बंदी बनाया जाना अनुचित ! – अधिवक्ता संजीव पुनाळेकर
इस प्रकरण में पहली बार अलग ही लोगों पर हत्या करने का आरोप लगाकर उन्हें बंदी बनाया गया । तत्पश्चात अन्वेषण तंत्र ने सचिन अंदुरे एवं शरद कळसकर को बंदी बनाया गया । इस प्रकरण में अंदुरे एवं कळसकर की पहचान परेड नहीं की गई । पहली बार जिन पर हत्या का आरोप लगाया गया, उनके छायाचित्र साक्षीदारों पहचाने तथा दूसरी बार जिन्हें बंदी बनाया गया, उनके छायाचित्र भी साक्षीदारों ने पहचाने ? फिर निश्चित रूप से हत्यारे कौन हैं ? इसलिए शरद कळसकर एवं सचिन अंदुरे को बंदी बनाया जाना अनुचित है ।