‘मैं जब ‘ऑर्मस फोर्सेस स्पेशल पॉवर एक्ट’ कानून के (सशस्त्र सेना दल को प्राप्त विशेषाधिकार कानून के) अंतर्गत कश्मीर में कार्यरत था, तब मुझे यह ज्ञात हुआ कि कश्मीर की समस्या का मूल कारण उस राज्य की संवैधानिक स्थिति है । अनुच्छेद ३७० के कारण (इस अनुच्छेद के कारण जम्मू एवं कश्मीर को विशेष श्रेणी प्राप्त थी) वहां जो स्थिति थी, वह अब सभी को ज्ञात है तथा अब उसे कुछ मात्रा में रद्द किया गया है । उस अनुच्छेद के कारण भारत सरकार जो कानून बनाती थी, उन्हें राज्य सरकार द्वारा पारित किए बिना इन कानूनों की कार्यवाही नहीं हो पाती थी । उसके कारण हमें अनेक समस्याओं का सामना करना पडा । ये समस्याएं संवैधानिक प्रावधानों तथा कश्मीर में लागू किए गए कानूनों के कारण उत्पन्न हुईं । मेरी पुस्तक ‘साइलेंट कौंस्टिट्यूशन डेंजरस कौंसिक्वेन्सेस’ में मैंने ऐसे २१ कानूनों की जानकारी दी है, जिन्हें एक तो अधिनियमित किया जाना चाहिए अथवा उनमें संशोधन किए जाने चाहिए । इससे ही साइलेंट पुस्तक बनी ।
लेखक : मेजर सरस त्रिपाठी (सेवानिवृत्त), लेखक एवं प्रकाशक, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश
१. हिन्दू राष्ट्र की संकल्पना साकार करने के लिए संविधान में संशोधन करना महत्त्वपूर्ण
हमारे लिए कुछ भी असंभव नहीं है, यह मेरा विश्वास है । हमने जर्मनी का एकत्रीकरण देखा है, साथ ही रूस के बडे साम्राज्य के अर्थात ही सोवियत यूनियन के टुकडे होते भी देखे हैं । हिन्दू राष्ट्र की संकल्पना अर्थात संविधान में संशोधन किया जाना चाहिए । अनेक लोग कहते हैं, ‘‘आप तो पहले से ही हिन्दू राष्ट्र हैं’’; क्योंकि राष्ट्र बहुसंख्यक लोगों के आधार पर पहचाना जाता है । अरब को सदैव ‘अरब’ ही बोला जाता है, साथ ही चाइनीज को ‘चाइनीज’ कहा जाता है । वैसे ही इंडियन्स को ‘हिन्दू’ कहना पडेगा; परंतु इतना पर्याप्त नहीं है । हमारे देश में हिन्दू राष्ट्र चाहिए; क्योंकि हमने जिस संविधान को स्वीकार किया है, उसमें बहुत विरोधाभास हैं ।
२. आरक्षण के माध्यम से जाति के आधार पर भेदभाव
डॉ. आंबेडकर ने कहा है, ‘‘जब तक उस संविधान को लोग मानते हैं, तब तक वह संविधान अच्छा होता है । यदि संविधान को चलानेवाले लोग अच्छे नहीं होंगे, तो अच्छा संविधान भी बुरा सिद्ध हो सकता है । इसके विपरीत, यदि संविधान चलानेवाले लोग अच्छे होंगे, तो बुरा संविधान भी अच्छा सिद्ध हो सकता है । आरंभ में भारत का संविधान अच्छा था; परंतु उसके उपरांत उसमें स्थित विरोधाभास सामने आए, उदाहरणार्थ ‘जाति, वर्ण एवं धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं है’; परंतु संविधान लागू हो जाने के उपरांत वर्ष १९५१ में आरक्षण लागू कर जाति के आधार पर भेदभाव किया गया । कुछ लोग इस आरक्षण की सूची में अंतर्भूत नहीं हैं । वे गरीब हैं; परंतु सरकार से उन्हें कोई छूट नहीं मिलती, अर्थात यह संविधान के मूलभूत सिद्धांत के विरुद्ध है ।
३. संविधान में बताए गए ‘नागरिकों के कर्तव्य’ केवल मार्गदर्शक तत्त्वों की भांति !
हमने संविधान में दिए गए कुछ कानून लागू किए, कुछ प्रावधान बनाए रखे तथा कुछ संशोधन किए । उसके कारण संविधान की आत्मा ही खो गई । यदि हम किसी भी संविधान का मसौदा देखते हैं, तो उसमें अधिकार एवं उत्तरदायित्व समानांतर होते हैं । राजा को सबसे अधिक अधिकार होते हैं; परंतु उस पर सबसे अधिक उत्तरदायित्व होता है । हमारा संविधान प्रकृति के नियमों के विरुद्ध है । अनुच्छेद १४ से २१ व्यक्तिगत अधिकार हैं । उसके उपरांत अनुच्छेद ३५ तक अधिकार हैं । हम २० अनुच्छेदों में अधिकारों के विषय में लिखा हुआ देखते हैं; परंतु मूल संविधान में उनका उल्लेख ‘नागरिकों के कर्तत्य’ के रूप में है । आपातकाल के समय में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने नागरिकों के कर्तव्य बताए; परंतु उन्हें मूलभूत अधिकारों जितना दर्जा नहीं मिला; क्योंकि उन्हें कानूनन न्यायालय ने पारित नहीं किया था । इसके कारण उनकी स्थिति दिखावटी वस्तुओं जैसी है अथवा उन्हें संविधान के मार्गदर्शक तत्त्व कहा जा सकता है ।
४. संविधान में समाहित विरोधाभास
संविधान में यह एक और विरोधाभास है । ‘संविधान की मूल आत्मा सामाजिक समाजवाद है अर्थात किसी प्रकार का भेदभाव न हो’; परंतु ‘संविधान के अनुच्छेद २५ से ३० तक दिया गया है कि अल्पसंख्यकों को विशेष अधिकार प्राप्त हैं ।’ इन अल्पसंख्यकों को उनके शिक्षासंस्थान बनाने का अधिकार है तथा वहां के ५० प्रतिशत स्थान अल्पसंख्यकों के लिए हैं । वे उनका अपना विद्यालय चला सकते हैं तथा अपनी विचारधारा रख सकते हैं; परंतु हिन्दू ऐसा नहीं कर सकते । इस पर बंधन नहीं है; परंतु उसे समर्थन भी नहीं है । यदि आपको वेदपाठशाला अथवा धर्मशाला चलानी हो, तो आपको उन्हें स्वयं के दायित्व पर तथा आपके अपने आर्थिक बलबूते पर चलाना पडेगा । इसके विपरीत सरकार की ओर से मदरसा चलाने के लिए सहायता की जाती है । भारत के संविधान में ऐसे बडे स्तर पर विरोधाभास हैं । इसलिए संविधान में संशोधन होना आवश्यक है ।
५. सनातन धर्म की रक्षा करने हेतु हिन्दू राष्ट्र चाहिए !
भारत में हिन्दू दोयम श्रेणी के नागरिक बन चुके हैं । भारत के ६ राज्यों तथा ३ केंद्रशासित प्रदेशों में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं; परंतु वहां उन्हें अल्पसंख्यकों के अधिकार प्राप्त नहीं हैं । वहां के बहुसंख्यक लोगों को अल्पसंख्यकों के अधिकार प्राप्त हैं, उदाहरणार्थ केंद्रशासित कश्मीर में कुल जनसंख्या में से ६४ प्रतिशत मुसलमान हैं; परंतु कश्मीर घाटी में मुसलमान ९८ प्रतिशत होते हुए भी वहां मुसलमानों को अल्पसंख्यकों के अधिकार प्राप्त हैं । यह जानकर आश्चर्य होगा । वहां के १ प्रतिशत हिन्दुओं को अल्पसंख्यकों के अधिकार प्राप्त नहीं है । इस कारण यहां हिन्दुओं के प्रति बडे स्तर पर भेदभाव किया गया है । इसकी भांति ही मिजोरम, मणिपुर, नागालैंड, इन राज्यों में ईसाईयों की संख्या अधिक होते हुए भी उन्हें अल्पसंख्यकों के अधिकार मिले हुए हैं; परंतु वो अधिकार हिन्दुओं को नहीं मिले हैं । इन राज्यों में हिन्दुओं को अल्पसंख्यकों की भांति अपने धार्मिक विद्यालय चलाने का अथवा धार्मिक संस्थाएं चलाने का अधिकार नहीं है ।
इसलिए मैं कहता हूं कि हिन्दू राष्ट्र आवश्यक है, जिससे सनातन धर्म की रक्षा हो पाएगी । विश्व में कुल २०१ राष्ट्र हैं । उनमें से ३३ राष्ट्रों में ईसाईयों का, जबकि ५८ राष्ट्रों में मुसलमानों का वर्चस्व है । २ राष्ट्र ऐसे हैं, जिनमें हिन्दू बहुसंख्यक हैं तथा वो हैं भारत एवं नेपाल ! ये दोनों ‘सेक्युलर’ (धर्मनिरपेक्ष) हैं । इसलिए सनातन धर्म की रक्षा कौन करेगा ? केवल दक्षिण एशिया में हिन्दू, जबकि अन्य स्थानों पर मुसलमान एवं ईसाई हैं । इसलिए हमारे प्राचीन धर्म की रक्षा होना आवश्यक है तथा जब भारत हिन्दू राष्ट्र बनेगा, तभी जाकर ऐसा होना संभव है ।
६. भारत के मंदिरों की संपत्ति पर ब्रिटिशों की कुदृष्टि होने से बनाया गया ‘हिन्दू एंडोमेंट एक्ट’ !
वास्तव में देखा जाए, तो ‘हिन्दू एंडोमेंट एक्ट’ का आरंभ ब्रिटिशों ने किया; क्योंकि उन्होंने यह देख लिया था कि हिन्दू मंदिरों में बहुत संपत्ति होती है तथा उस संपत्ति को प्राप्त करने के लिए उन्हें हिन्दू मंदिरों पर नियंत्रण स्थापित करना आवश्यक था, उदाहरणार्थ यदि तिरुवनंतपुरम् के मंदिर की संपत्ति देखी जाए, तो उनके पास १ लाख ५० सहस्र करोड रुपए के मूल्य का सोना तथा मूल्यवान वस्तुएं हैं । तिरुपति में बडी मात्रा में पैसा आता है । अब इस पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए उनकी पद्धति थी कानून बनाकर उसे पारित करा लेना । ब्रिटिशों ने ऐसे कुछ अर्थहीन कानून बनाए थे, जिनके पीछे कोई तर्कशुद्धता नहीं थी, राजा के द्वारा लडके को गोद लेने के संबंध में बनाया गया (पॉलिसी ऑफ लैप्स) कानून ! ब्रिटिशों ने कानून तो बनाया; परंतु जिस राजा की संतान नहीं है, जो अन्य किसी बच्चे को गोद नहीं ले सकता, उसकी मृत्यु के उपरांत उसके राज्य का ब्रिटिश राज्य में विलय किया जाएगा । यह कानून अर्थहीन है । यदि संपत्ति है मेरी तथा मैंने कोई लडका गोद लिया है, तो मुझे रोकनेवाले आप कौन होते हैं ?’, यह प्रश्न उठता है । उसके कारण ब्रिटिशों ने यह एंडोमेंट कानून बनाया । मुसलमानों ने यह कानून स्वीकार नहीं किया; परंतु उनकी तुलना में हिन्दू सभ्य होने के कारण उन्होंने विरोध नहीं किया तथा हिन्दू मंदिरों के लिए यह कानून लागू किया गया ।
दक्षिण भारत के मंदिर बहुत धनी थे; परंतु उत्तर भारत में अनेक बार आक्रमण होने से वहां के मंदिर नष्ट हुए । उसके कारण उत्तर भारत में २०० अथवा ३०० वर्ष के पूर्व के मंदिर दिखाई नहीं देते; परंतु इसके विपरीत दक्षिण में १२ सहस्र वर्ष पूर्व के भी मंदिर हैं । ब्रिटिशों को भारत के मंदिरों पर नियंत्रण चाहिए था; इसलिए उन्होंने तमिलनाडु एवं दक्षिण के राज्यों में यह कानून लागू किया ।
७. शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति की भांति हिन्दू मंदिरों के लिए हिन्दुओं की उनकी अपनी समिति हो !
भारत को स्वाधीनता मिलने के उपरांत दुर्भाग्यवश जवाहरलाल नेहरू ने वही नीति जारी रखी । उन्होंने वर्ष १९५९ में पुनः यह कानून लागू किया । हिन्दुओं के मंदिरों को छोड दिया जाए, तो अन्य किसी भी धर्म के मंदिरों पर सरकार का नियंत्रण नहीं है । इसके फलस्वरूप हिन्दुओं की संपत्ति चर्च जैसी संस्थाओं को विद्यालय अथवा महाविद्यालय चलाने के लिए दी गई । मंदिरों से जो पैसा आता है, वह सरकार की तिजोरी में जाता है । उसमें से मंदिरों के रखरखाव के लिए बहुत ही अल्प मात्रा में पैसे खर्च किए जाते हैं । पहले मंदिर तो धर्म की शिक्षा के केंद्र थे । वहां गरीबों को अन्नदान दिया जाता था । वो हमारे हिन्दू संस्कृति के केंद्रस्थान थे; परंतु अब उन्हें नष्ट कर दिया गया है ।
अब मंदिरों पर राज्य सरकारों का नियंत्रण है । इन मंदिरों के पैसों से सऊदी अरब में स्थित हज यात्रा के लिए अनुदान दिया जा रहा है । पिछले आंकडों के अनुसार भारत सरकार ने हज यात्रा के लिए ९५४ करोड रुपए का अनुदान दिया है । यह कौनसा ‘सेक्युलरिजम’ (धर्मनिरपेक्षतावाद) है ? इसका अर्थ हिन्दू ही अप्रत्यक्षरूप से मुसलमानों की हज यात्रा के लिए पैसे दे रहे हैं । इसका अर्थ हम सीधे इस्लाम के प्रसार में सहायता कर रहे हैं । अतः इस कानून को संपूर्णतया रद्द करने की आवश्यकता है । जिस प्रकार सिखों की शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति है, जिसमें सरकार का हस्तक्षेप नहीं है, उस प्रकार हमारे मंदिरों की भी हमारी अपनी समिति होनी चाहिए तथा मंदिर में आनेवाले पैसों का उपयोग हिन्दू धर्म के प्रसार, सनातन धर्म की सीख देने, हमारे शास्त्रों की जानकारी देने प्रसार करने तथा नए मंदिरों के निर्माण के लिए ही किया जाना चाहिए !’
– मेजर सरस त्रिपाठी (सेवानिवृत्त), लेखक एवं प्रकाशक, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश