राष्ट्ररचना एक शास्त्रीय संकल्पना है, जो सत्य पर आधारित है । इसमें असत्य का कोई स्थान नहीं है । ‘राष्ट्रनिर्माण’ सत्ता की लालसा रखनेवालों का काम नहीं है । राष्ट्रनिर्माण के लिए त्याग तथा राष्ट्र एवं धर्म के प्रति निष्ठा की आवश्यकता है । सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी ने वर्ष १९९८ में ही ‘ईश्वरीय राज्य की स्थापना’ ग्रंथ के माध्यम से ‘आध्यात्मिक राष्ट्ररचना’ का सिद्धांत रखा है । हिन्दू राष्ट्र अर्थात रामराज्य की भांति सात्त्विक समाज के निर्माण के लिए प्रत्येक व्यक्ति को साधना करनी चाहिए । सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी ने कहा है, ‘‘अनेक संतों एवं आध्यात्मिक संगठनों के पास लाखों विदेशी लोग साधना सिखने के लिए आते हैं तथा साधना सिखकर वे उसका आचरण करते हैं । उसके कारण समुद्रतटों, मसाज पार्लर, बार इत्यादि के विज्ञापन प्रसारित कर रज-तमप्रधान पर्यटकों को आकृष्ट करने के स्थान विश्व को रामसेतू, द्वारका, अयोध्या इत्यादिसहित भारत का आध्यात्मिक महत्त्व बताया, तो विज्ञापनों पर एक रुपए का बिना व्यय किए पर्यटकों की अपेक्षा अनेक गुना अधिक अध्यात्म के जिज्ञासु भारत आएंगे ।’’
हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करने के लिए आध्यात्मिक बल की आवश्यकता होगी तथा वह साधना के द्वारा ही प्राप्त होगा । समष्टि साधना करने के लिए आवश्यक बल व्यष्टि साधना से प्राप्त होगा तथा आध्यात्मिक स्तर पर की गई राष्ट्रसेवा से ईश्वरप्राप्ति की जा सकेगी । हिन्दू राष्ट्र निर्माण के इस ईश्वरीय कार्य में हमें आध्यात्मिक बल की आवश्यकता है, इसे ध्यान में रखकर हम आज नहीं, अपितु अभी से ही साधना का आरंभ करेंगे, ऐसा प्रतिपादन सनातन संस्था के धर्मप्रचारक श्री. अभय वर्तक ने किया । वैश्विक हिन्दू राष्ट्र महोत्सव के चौथे दिन (१९.६.२०२३ को) उपस्थित हिन्दुत्वनिष्ठों को संबोधित करते हुए वे ऐसा बोल रहे थे ।