हिन्दुओं के साथ अन्याय करनेवाले संविधान के २५ से ३१ वें अनुच्छेद में किए गए परिवर्तन !

हिन्दुओं के साथ अन्याय करनेवाले अनुच्छेदों में संशोधन करने के लिए हिन्दुओं को भिन्न-भिन्न वैधानिक पद्धतियों से आवाज उठानी होगी !

‘देश चलाने का मूलभूत आधार भारतीय संविधान ही है; परंतु कुछ कारणवश इस संविधान के कुछ अनुच्छेदों अथवा कुछ संकल्पनाओं में अनुचित परिवर्तन किए गए, तो उन्हीं को प्रमाणित माना जाता है । संविधान के अनुच्छेद २५ से ३१ के संदर्भ में ऐसा ही हुआ है । संविधान के २९ वें तथा ३० वें अनुच्छेद में अल्पसंख्यकों को भाषा संबंधी, वर्ण, जाति एवं धर्म के आधार पर मूलभूत अधिकार प्रदान कर आश्वस्त किया गया है । संविधान में कहीं भी ‘अल्पसंख्यक की अपेक्षा दूसरा अल्पसंख्यक अधिक महत्त्वपूर्ण है’, ऐसा उल्लेख नहीं है । इसलिए संविधान के अनुसार अल्पसंख्यकों के चारों ही प्रकार समान स्तर के हैं । स्वतंत्र भारत में अन्यों को जो कुछ सुविधाएं दी गई हैं, वे तो उन्हें मिलेंगी ही; परंतु धार्मिक अल्पसंख्यकों को छोडकर भाषा संबंधी अथवा जातीय अल्पसंख्यकों का राजनीति में कोई बडा महत्त्व नहीं होता । संविधान में किया गया यह अनावश्यक परिवर्तन है ।

 

प्रा. शंकर शरण

१. भारत में स्वतंत्रता से लेकर अब तक अल्पसंख्यकों के प्रति शासनकर्ताओं के तुष्टीकरण की नीति !

धार्मिक अल्पसंख्यकों में से एक विशिष्ट धर्म के अल्पसंख्यकों की ओर विशेष ध्यान दिया जाता है, यह सर्वविदित है । इस विशिष्ट अल्पसंख्यकों के पक्ष में निर्णय लेना तथा उन्हें विशेष सुविधाएं देना भी संविधान में किया गया अनावश्यक परिवर्तन है । सर्वप्रथम इस प्रकार के अनुच्छेद संविधान में अंतर्भूत क्यों किए गए ?’, इसकी पृष्ठभूमि हमें समझनी होगी । वर्ष १९४६-४७ में संविधान बनाते समय ‘अल्पसंख्यकों के संरक्षण’ का सूत्र अंतर्भूत किया गया । उस समय भारत का विभाजन किया जाएगा, ऐसा कुछ निश्चित नहीं किया गया था । साथ ही मार्च १९४७ तक किसी ने विभाजन की मांग गंभीरता से नहीं ली थी । उस समय मुसलमान विभाजन की मांग छोड दें; इसके लिए कदाचित संविधान में अल्पसंख्यकों के संरक्षण का सूत्र अंतर्भूत किया गया होगा । उसके कारण ही आरंभ से लेकर मुसलमानों के तुष्टीकरण की नीति होने की संभावना है; परंतु विभाजन के उपरांत भी वही संकल्पनाएं एवं अनुच्छेद वैसे ही रखे गए । उससे पूर्व भारत की राजनीति में आज की भांति ‘अल्पसंख्यक एवं बहुसंख्यक’ शब्द ज्ञात ही नहीं थे ।

२. बहुसंख्यकों को न मिलनेवाले अधिकार अल्पसंख्यकों को देनेवाला विश्व का एकमात्र देश है भारत !

‘राजनीतिक भाषा में ‘अल्पसंख्यक’ शब्द का अर्थ बहुत भिन्न है । सामान्यतः अल्पसंख्यक से तात्पर्य किसी समुदाय की जनसंख्या नहीं, इतिहास का सबसे पीडित समुदाय ! उस दृष्टि से विचार किया जाए, तो भारत में मुसलमानों को अनेक शताब्दियों तक बहुत सुविधाएं मिली हैं तथा उन्होंने ही अन्य समुदायों को कष्ट पहुंचाया है । भारत के इतिहास में कभी उन्हें अलग-थलग कर धमकाया गया हो, ऐसा कभी नहीं हुआ है । पिछली कुछ शताब्दियों में मुसलमानों द्वारा लिखे गए साहित्य से यह प्रमाणित होता है । इतिहास में मुसलमानों ने ही भारत पर आक्रमण कर भारत में राज किया, ऐसा उल्लेख है; इसलिए उन्हें ‘भय की छाया में ग्रस्त अल्पसंख्यक समुदाय’ कहना अनुचित धारणा है । यह केवल हिन्दुओं के नेताओं द्वारा जानबूझकर तैयार किया गया सूत्र है । संविधान के अनुच्छेद २५ से ३१ में दिए गए अधिकार तथा उससे संबंधित वक्तव्य अल्पसंख्यकों के लिए नहीं हैं, ऐसा संविधान में कहीं भी नहीं लिखा है । संविधान में ‘अल्पसंख्यक’ शब्द का उल्लेख अनेक बार आया है; परंतु ‘बहुसंख्यक’ शब्द एक बार भी नहीं आया है । इससे संविधान बनानेवालों ने अल्पसंख्यकों को जो अधिकार प्रदान किए हैं, वे अन्यों के लिए भी लागू हैं, यह बताने की आवश्यकता नहीं है ।

संविधान बनानेवालों के इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर हम निम्न ४ सूत्रों पर विचार कर सकते हैं –

अ. संविधान के अनुच्छेद १४ के अनुसार सभी नागरिक समान हैं । उसके कारण संविधान के निम्न अनुच्छेदों में जो उल्लेख है, उसके लिए यह सूत्र पूरक होगा, अन्यथा एक ओर ‘सभी लोग समान हैं’ ऐसा बोलना तथा दूसरी ओर समाज के कुछ घटकों को दोगुने अधिकार प्रदान करना उचित नहीं है । संविधान के अनुच्छेद १४ तथा अनुच्छेद २५ से ३० एक-दूसरे के विरुद्ध नहीं हैं, अपितु वो एक-दूसरे के लिए पूरक हैं ।

आ. संविधान के २५ से २८ तक के अनुच्छेद ‘धार्मिक स्वतंत्रता’ के शीर्षक तले दिए गए हैं । उसके उपरांत अनुच्छेद २९ एवं ३० सांस्कृतिक एवं शैक्षिक अधिकारों के विषय में हैं । उसके कारण ये अनुच्छेद भी किसी विशिष्ट समुदाय के लिए नहीं, अपितु सभी के लिए हैं । अल्पसंख्यकों के अधिकार सांस्कृतिक तथा शैक्षिक अधिकारों के एक अंग हैं । वैसा न होता, तो उसके लिए भिन्न अनुच्छेद रखा जाता ।

इ. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यकों के अधिकारों का विचार किया जाए, तो उस विषय पर आधारित संयुक्त राष्ट्रसंघ के मसौदे की ओर देखना पडेगा । १८ दिसंबर १९९२ को संयुक्त राष्ट्रसंघ ने एक घोषणापत्र प्रकाशित किया । अमेरिका में राष्ट्र, धर्म अथवा भाषा पर आधारित अल्पसंख्यकों ने यह घोषणापत्र स्वीकार किया है । इसमें ९ अनुच्छेद हैं । इस संपूर्ण घोषणापत्र में विश्व के किसी भी अल्पसंख्यक समुदाय के लिए विशेषाधिकार होने का किसी प्रकार का उल्लेख नहीं है, अपितु उसके विपरीत इस घोषणापत्र में भेदभाव समाप्त कर अल्पसंख्यकों को अन्यों की भांति समान अधिकार दिए जाने चाहिए, ऐसा वर्णन है ।

ई. वास्तव में बहुसंख्यकों को जो अधिकार नहीं हैं, वैसे कुछ अधिकार अल्पसंख्यकों को हैं । विश्व के किसी देश में ऐसा नहीं है; क्योंकि किसी देश में सभी लोगों को समान अधिकार होने के सिद्धांत होते हुए तथा वहां इसका प्रत्यक्ष क्रियान्वयन होने से अल्पसंख्यकों को कोई भय नहीं रहता ।

३. बिना संशोधित किए गए संविधान के मूल अनुच्छेदों में समाहित लेख

संविधान निर्माता नेताओं ने जो सुविधाएं अन्यों को उपलब्ध नहीं हैं, उन्हें विभिन्न प्रकार के अल्पसंख्यकों को देने का निश्चित किया ही नहीं था । वैसा होता, तो उस समय उस पर बडा विवाद तथा चर्चा होती । संविधान बनाने से संबंधित चर्चाओं में अल्पसंख्यकों को उनके अधिकारों के प्रति आश्वस्त करना तथा बहुसंख्यकों को उनके अधिकारों से वंचित रखना ही निष्कर्ष था । संशोधित न किए गए संविधान के मूल अनुच्छेदों में अल्पसंख्यकों के संरक्षण के विषय में निम्न लेख था –

अ. अनुच्छेद २९ (१) के अनुसार भारत में कहीं भी रहनेवाले, किसी भी समुदाय के घटक को, साथ ही स्वतंत्र भाषा, भाषा की लिपि अथवा जिनकी स्वयं की संस्कृति है, ऐसे किसी को भी यह अधिकार प्राप्त है ।

आ. केंद्र अथवा राज्य सरकारों की ओर से चलाए जानेवाले अथवा सरकार से अनुदान लेनेवाले किसी भी शिक्षा संस्थान में धर्म, वर्ण, जाति, भाषा अथवा अन्य मापदंडों पर आधारित किसी भी भारतीय नागरिक को प्रवेश देना अस्वीकार नहीं किया जा सकेगा ।

इ. अनुच्छेद ३० (१) के अनुसार किसी भी धर्म अथवा कोई भी भाषा बोलनेवाले सभी अल्पसंख्यकों को स्वयं के शिक्षा संस्थान की स्थापना कर उसकी व्यवस्था करने का अधिकार है । शिक्षा संस्थानों को अनुदान देते समय सरकार अल्पसंख्यक समुदाय का व्यवस्थापन प्राप्त शिक्षा संस्थान एवं विशिष्ट धर्म अथवा विशिष्ट भाषा बोलनेवाले समाज के घटकों के शिक्षा संस्थानों के संदर्भ में भेदभाव नहीं करेगी ।

४. संविधान के अनुच्छेद २५ से ३१ में सभी नागरिकों के लिए प्रावधित अधिकार अल्पसंख्यकों को मिलना

उपरोक्त लेख को बिना किसी पूर्वाग्रह के पढा जाए, तो यहां किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया गया है, यह ध्यान में आएगा । पूर्व के अर्थात अनुच्छेद २५ से २८ में ‘सभी व्यक्तियों’, ‘किसी भी व्यक्ति के लिए’ तथा ‘प्रत्येक धर्म के संप्रदाय’, यही उल्लेख है । इसलिए पुनःपुनः यह बात ध्यान में आती है कि उपरोक्त अधिकार समाज के सभी घटकों के लिए लागू हैं । संविधान में अधिकार प्रदान करते समय अल्पसंख्यकों के संदर्भ में किसी भी प्रकार के धार्मिक, शैक्षिक एवं सांस्कृतिक मापदंडों पर आधारित भेदभाव नहीं होना चाहिए, इस आशय से अल्पसंख्यकों के विषय में प्रासंगिक उल्लेख है । केवल अल्पसंख्यक ही इन अनुच्छेदों का विषय नहीं है; इसलिए यह ध्यान में आता है कि संविधान के अनुच्छेद २५ से ३१ में प्रदान किए गए अधिकार बिना किसी भेदभाव के सभी नागरिकों के लिए समान हैं । ऐसा होते हुए भी वास्तव में भारत की राजनीति में इन अनुच्छेदों को लागू करने के संदर्भ में विरोधाभास क्यों है ?, यह प्रश्न उठता है ।

५. तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के द्वारा हिन्दुओं का तिरस्कार

आज की परिस्थिति में संविधान के अनुच्छेद २५ से ३१ के अनुसार समाज के विशिष्ट अल्पसंख्यकों को तथा वह भी केवल मुसलमानों को ही विशेष अधिकार दिए जा रहे हैं । तो यह कैसे हुआ ? इसका उत्तर वास्तव में चौंकानेवाला है । हिन्दुओं ने अनेक शताब्दियों तक विदेशी आक्रांताओं के अत्याचार सहन किए । उसके कारण उन्होंने जो आत्मविश्वास गंवाया, उसके कारण हिन्दुओं के नेता ही अहिन्दुओं के तुष्टीकरण में लग गए । इस प्रक्रिया में वे एक के पश्चात एक ऐसी चूकें करते गए । इसके परिणामस्वरूप ईसाई धर्मप्रचारक इस स्थिति का अनुचित लाभ उठाने में सफल रहे । उन्होंने मानसिक दृष्टि से असुरक्षित हिन्दू नेताओं को मुसलमानों एवं ईसाईयों के लिए अनुकूल पद्धति से ऐसे अनुच्छेदों का अर्थ निकालने के लिए बाध्य किया । वर्ष १९५० में सरदार पटेल का निधन होने के उपरांत भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने निरंतर इस सूत्र को लगाए रखा । उन्होंने इस्लाम एवं वामपंथियों के प्रभाव में आकर हिन्दुओं का तिरस्कार किया । स्वतंत्र भारत के पहले प्रशासन को संविधान, नीति एवं शिक्षा को अपने ढांचे में ढालने की खुली छूट मिली । उसके कारण संविधान के अनुच्छेद २५ से ३१ में केवल अल्पसंख्यकों को रखकर उसमें बहुसंख्यकों को स्थान न देना, जानबूझकर किया गया परिवर्तन था अथवा इन अनुच्छेदों का विकृतीकरण था । इसे करते समय किसी प्रकार का शोर-शराबा नहीं किया गया । उसके कारण कुछ अनुचित घटित हो रहा है अथवा किसी के साथ अन्याय हो रहा है; इस पर किसी को संदेह नहीं हुआ; क्योंकि ऐसा करनेवाले नेता हिन्दू ही थे ।

स्वतंत्रता के उपरांत देश में भले ही विभिन्न राजनीतिक दलों का अस्तित्व हो; परंतु उन सभी की विचारधारा हिन्दू विरोधी थी । उनमें हिन्दूहित के प्रति बहुत अल्प मात्रा में आस्था थी । उस समय यह बहुत छोटी सी; परंतु विनाशकारी चाल कांग्रेस एवं वामपंथी राजनीतिक दलों को छोडकर अन्य दलों के नेताओं की समझ में आई ही नहीं । उन्होंने उसकी ओर केवल अल्पसंख्यकों का अधिक ध्यान रखा जाए, इस आशय से देखा । उसी प्रकार उन्होंने आगे जाकर एक अच्छी विचारधारा के रूप में समाजवाद को स्वीकृति दी । वास्तव में देखा जाए, तो अनेक राष्ट्रों में समाजवाद विफल रहा है । इस प्रकार नेहरूवादी, समाजवादी एवं वामपंथी नेताओं ने अनुच्छेद २५ से ३० का अर्थ बदल दिया । उनका यह कृत्य संविधान बनानेवालों के मूल उद्देश्यों से विसंगत था ।

६. हिन्दुओं को देश में उनके साथ हो रहे दोयम स्तर का व्यवहार रोकने के लिए आंदोलन खडा करना आवश्यक !

राजनीति में जानबूझकर, बल के आधार पर तथा निरंतर दुष्प्रचार कर शब्दों अथवा वाक्यों को परिवर्तित किया जा सकता है । उसके कारण भले वही शब्द तथा वही वाक्य होने के उपरांत भी विभिन्न राजनीतिक कागजातों में उनका अर्थ पूर्णतया भिन्न हो सकता है । संविधान के अनुच्छेद ३१ का हिन्दू विरोधी अर्थ लगाए जाने के उपरांत अनेक दशकों तक उन्हें इसका अभ्यस्थ बनाया गया । यह अल्पसंख्यकों तथा हिन्दू विरोधी धर्मनिरपेक्षता को भडकाने का एक भाग है । उनका यह कृत्य संविधान के मूलतत्त्वों से विसंगत है । इसलिए हिन्दुओं ने यदि इसके विरुद्ध आंदोलन खडा किया, तो संविधान के इन अनुच्छेदों में संशोधन किया जा सकेगा । इसके संदर्भ में हिन्दुओं का उद्बोधन कर उसका प्रचार करने के लिए अथक परिश्रम उठाना आवश्यक है । हिन्दू जब पूर्णतया जागृत होकर उनके साथ उन्हीं के देश में जो दोयम स्तर का व्यवहार किया जा रहा है, उसके विरुद्ध विद्रोह कर समान अधिकारों की मांग करेंगे, उस समय विशेष सुविधाएं लेनेवाले मुसलमान एवं ईसाई संविधान के मूल अनुच्छेदों को मान्य करेंगे; परंतु तब तक भारत में हिन्दू दोयम स्तर के ही नागरिक रहेंगे, यह स्पष्ट है ।

७. बहुसंख्यकों एवं अल्पसंख्यकों में भेदभाव करना, राष्ट्रीय भावना की दृष्टि से हानिकारक !

इसके कारण आज के समय में हिन्दू अपनी अनेक आध्यात्मिक परंपराओं से दूर होते जा रहे हैं । किसी को भी दोयम स्तर तथा समाज के दुर्बल घटकों में रहना स्वीकार न होने से कुछ हिन्दू भी उन्हें अल्पसंख्यक की श्रेणी मिलने के लिए न्यायालय जा रहे हैं । भारत में एक बार अल्पसंख्य होने का ठप्पा लगा, तो अधिक अधिकार मिलते हैं; यह उन्हें ज्ञात है । उसके कारण कुछ हिन्दू भी अहिन्दू बनने की इच्छा रख रहे हैं । राजनीतिक व्यवस्था के कारण भारत के हिन्दू असुरक्षित हैं, इसका यह अतिरिक्त प्रमाण है । न्यायालय में भारत के मुसलमानों को हिन्दुओं से दोगुने अधिकार हैं । वे भारतीय नागरिक के रूप में अथवा अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्य के रूप में; परंतु हिन्दू केवल भारतीय नागरिक के रूप में न्याय मांगने के लिए न्यायालय जा सकते हैं । उसके कारण भारत के हिन्दू को हिन्दू के रूप में किसी प्रकार के अधिकार न होने से संविधान में उल्लेखित न होते हुए भी भारत में दो प्रकार के नागरिक हैं, यह प्रमाणित होता है । इनमें से पहले स्तर के नागरिक को दो अधिकार, तो दूसरे स्तर के नागरिक को एक ही अधिकार है । भारत के संसद में इस स्थिति पर कभी भी विचार नहीं किया गया है । राष्ट्रीय भावना की दृष्टि से यह अन्यायकारी तथा हानिकारक है ।

८. बहुसंख्यक हिन्दुओं के साथ होनेवाले अन्याय का कारण, नेतृत्वहीन एवं निद्रित हिन्दू ही हैं !

उसके उपरांत २५ से ३० तक का विकृतीकरण किए जाने का एक अन्य प्रमाण भी है । अनुच्छेद २९ में अल्पसंख्यकों को धर्म, वर्ण, जाति एवं भाषा के संदर्भ में संरक्षण दिया गया है । यदि ऐसा है, तो भारत की किसी भी जाति को अल्पसंख्यक प्रमाणित कर उसे उसी प्रकार की सुविधाएं क्यों नहीं दी जातीं ? वैसे विचार किया जाए, तो भारत में सभी भाषा बोलनेवाले अल्पसंख्यक प्रमाणित होते हैं । भारत के दो तिहाई राज्यों में हिन्दी भाषा बोलनेवाले अल्पसंख्यक हैं । भारत में अल्पसंख्यक ब्राह्मणों एवं सिखों का क्या स्थान है ? इससे यह ध्यान में आता है कि भारत की राजनीति में केवल मुसलमानों को अल्पसंख्यकों की श्रेणी देना नेहरूकालीन नेताओं द्वारा इन अनुच्छेदों का जानबूझकर किया गया विकृतीकरण है । उसमें उन्हें बुद्धिजीवियों की चिंताविहीनता का साथ मिला है । उच्च पदों पर आसीन कुछ व्यक्तियों ने अपनी सुविधा के लिए सांठगांठ कर ऐसा किया है । इस प्रकार से खुलेआम एवं आत्मविश्वास के साथ यह चोरी की गई है । शेरलॉक होम्स द्वारा बंदूक दिखाकर की गई चोरी के विषय में जो कहा है, उसके अनुसार यह सब खुलेआम; परंतु गुप्त (ओपन सेक्रेट) है । बंदूक दिखाकर की गई इस चोरी के बलि तो नेतृत्वहीन तथा आवाज न उठानेवाले हिन्दू ही हैं । इस स्थिति में कब परिवर्तन आएगा ?’

लेखक – प्रा. शंकर शरण, नई देहली