सनातन के १४ वें संत सद्गुरु डॉ. चारुदत्त पिंगळेजी का जन्मदिन श्रावण शुक्ल प्रतिपदा (२९ जुलाई २०२२) एवं ४६ वें संत पू. मेनरायजी का जन्मदिन श्रावण शुक्ल पंचमी (नागपंचमी, २ अगस्त २०२२) को है । जन्मदिन निमित्त सनातन परिवार की ओर से कोटि-कोटि प्रणाम ! इस निमित्त उनके कुछ सूत्र यहां दे रहे हैं ।
सद्गुरु डॉ. चारुदत्त पिंगलेजी ने बताया सुख-दुःख के प्रसंगों की ओर देखने का मनुष्य, साधक और शिष्य के दृष्टिकोण में भेद !
‘जीवन में सुख-दुःख के प्रसंग आने पर मनुष्य, साधक और शिष्य के दृष्टिकोण में भेद कैसा होता है ?’, इस विषय पर जिलों में आरंभ भावसत्संगों में सद्गुरु डॉ. चारुदत्त पिंगळेजी ने किया मार्गदर्शन ।
१. मनुष्य
जब मनुष्य के जीवन में सुख आता है, तब वह उसका कर्तापन स्वयं पर लेता है । जब उसके जीवन में दु:ख आता है, तब वह उसके लिए भगवान को दोष देता है । वह कहता है, ‘भगवान ने ऐसा क्यों किया ?’
२. साधक
जब साधक के जीवन में सुख के क्षण आते हैं, तब वह कहता है, ‘सबकुछ ईश्वर की कृपा से अथवा गुरु की कृपा से ही हुआ ।’ जीवन में दु:ख के प्रसंग आने पर साधक को लगता है, ‘यह मेरे प्राब्ध के कारण हुआ ।’ साधक सुख-दु:ख पर मात करने का प्रयत्न करते हैं जिसके कारण वे कठिन प्रसंग में निराश न होते हुए उससे बाहर आते हैैं ।
३. शिष्य
शिष्य को लगता है कि ‘जीवन में आनेवाले सुख-दुःख गुरुकृपा है । जब जीवन में सुख हो, तब हमारे पुण्य समाप्त हो रहे हैं और जब कुछ विपरीत घटता है, तब पाप नष्ट हो रहे हैं ।’ वह सुख-दुख से ऊपर अर्थात आनंद अवस्था की ओर जाता है ।
निराशा और दुःख के स्थान पर ‘पाप नष्ट हो रहे हैं’, इन विचारों से शिष्य को कृतज्ञता लगती है ।
सद्गुरु पिंगळेजी द्वारा दिए उपरोक्त दृष्टिकोण के कारण साधकों को सीखने के लिए मिला कि ‘शिष्य बनने के लिए कैसे प्रयत्न करने चाहिए ?’
– कु. मनीषा माहुर, देहली सेवाकेंद्र, देहली. (२३.९.२०२१)
साधकों को भगवान के आंतरिक सान्निध्य में रहने का महत्त्व बताकर उन्हें तैयार करनेवाले पू. भगवंत कुमार मेनरायजी !
१. पू. मेनरायजी ने बताया अखंड नामजप करने का महत्त्व : पू. मेनराय काकाजी ने ‘नामजप एकाग्रता से होने के लिए उसे श्वास के साथ कैसे जोडना है ?’, यह समझाकर मेरे मन की प्रक्रिया करवा ली । उन्होंने मुझसे पूछा, ‘‘चूकें क्यों होती हैं ?’’ मैंने कहा, ‘मेरे स्वभावदोष एवं अहं के कारण ।’’ तब उन्होंने कहा, ‘‘स्वभावदोष एवं अहं का मूल ‘अपेक्षा करने’ में है । मन में ‘अपेक्षा के विचार ही न आएं’, इसलिए यदि कोई कृति करते समय मन में अपेक्षा आती हो, तो उस कृति की ओर साक्षीभाव से देखें । इससे लेन-देन नहीं बढेगा एवं साधना खर्च नहीं होगी । ‘मन में कोई अनावश्यक विचार आए ही नहीं’, इसलिए अखंड नामजप करना चाहिए । भगवान के आंतरिक सान्निध्य में रहने के अतिरिक्त अन्य कोई भी सरल साधन नहीं ।
२. ‘नामजप कर भगवान के आंतरिक सान्निध्य में रहने पर भगवान उचित कृति करना सुझाते हैं’, ऐसा पू. मेनरायजी का कहना : मैंने अपना चिंतन पू. काका को बताया तो उन्होंने कहा, ‘‘नामजप से भगवान के आंतरिक सान्निध्य में रहने पर भगवान ही उचित कृति करना सुझाते हैं । नामजप करते हुए कृति करने पर चूकें नहीं होतीं एवं उस विषय में लगनेवाला भय भी दूर हो जाता है ।’’ उन्होंने मुझे पुन: नामजप का महत्त्व बताया । तदुपरांत मेरे इस विचार में वृद्धि हुई कि ‘पू. काका जो बताते हैं, उसे मानना ही मेरी साधना है ।’ उस अनुसार करने पर मेरी सेवा की एकाग्रता बढ गई । पू. काकाजी की सेवा करते समय सहजता भी बढ गई । ‘७ दिन पू. काका की सेवा करते समय वे मुझे अल्प समय में स्वभावदोषों पर मात करना सिखा रहे थे । मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे ‘७ दिनों में मेरी ७ जन्मों की साधना हो रही है ।’
– श्री. हेमंत पुजारे, मुंबई (१०.१०.२०२१)
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