‘सादगीपूर्ण जीवनशैली और उच्च विचारधारा की प्रतीति : परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी !

रामनाथी आश्रम में परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का पूर्व निवास कक्ष

साधकों को राजयोगी की भांति सुविधाएं प्रदान करनेवाले परात्पर गुरु डॉक्टरजी स्वयं संन्यस्त जीवन व्यतीत करते हैं । सनातन के रामनाथी आश्रम के एक कक्ष में परात्पर गुरु डॉक्टरजी का निवास है । उस कक्ष में एक सामान्य कुर्सी, एक छोटीसी चौपाई (जिसका उपयोग वे भोजन करने के लिए भी करते हैं) और एक छोटा पलंग है । उस पर रखा गया गद्दा भी सामान्य है । उनके कक्ष में भले इतनी ही सामग्री हो; परंतु तब भी उसे ठीकठाक रखने के लिए परात्पर गुरु डॉक्टरजी स्वयं प्रयास करते हैं । आश्रम में परात्पर गुरु डॉक्टरजी का विचरण ‘मैं प.पू. भक्तराज महाराजजी का शिष्य हूं’, इसी भाव से होता है । उनका आचरण-बातें और जीवनशैली में कहीं भी बडप्पन दिखाई नहीं देता । इस लेख में परात्पर गुरु डॉक्टरजी कितना सादगीपूर्ण जीवन जीते हैं, इस संदर्भ में संक्षेप में बताने का प्रयास किया गया है ।

वास्तव में देखा जाए, तो परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी पहले अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त सम्मोहन-उपचार विशेषज्ञ थे । उन्होंने अपने जीवन का कुछ काल इंग्लैंड जैसे देश में भी व्यतीत किया है । वर्तमान में भी वे अध्यात्म के उच्च स्थान पर विराजमान हैं । उनका इतना त्यागपूर्ण पद्धति से और सादगीपूर्ण पद्धति से रहना ही उनमें विद्यमान देवत्व को स्पष्ट करता है । सनातन के आश्रमों में साधक सुलभता से साधना कर पाएं, इसके लिए अनेक अत्याधुनिक सुविधाएं उपलब्ध हैं । अपने लिए भी सुख-सुविधाएं उपलब्ध कराना सहजता से संभव होते हुए भी हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए एक-एक पैसा इकट्ठा करने के लिए यह सब उठापटक चल रही है । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का जीवन ‘मितव्ययिता’ इस गुण का सूचक है ।

कार्य के लिए एक-एक पैसा बचे; इसके लिए ८० वें वर्ष में भी मितव्ययता करनेवाले परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी !

प.पू. डॉक्टरजी ने उपयोग किए पंचे के कुछ स्थान पर कपडा जोडा है ।

१. परात्पर गुरु डॉक्टरजी को स्नान के उपरांत शरीर पोंछने के लिए नया पंचा देने पर वे उसे दो भागों में बांट देते हैं और उसकी काटी हुई किनार को सिलाने के लिए कहते हैं और उसके उपरांत वे उसमें से एक ही भाग उपयोग में लेते हैं । उसे कुछ माह उपयोग करने के उपरांत उस कपडे का क्षरण होकर वह कहीं फट जाता है । तब वे फटे हुए भाग पर अन्य किसी कपडे का जोड सिलवा लेते हैं और पुनः उसी पंचे का उपयोग करते हैं । इस प्रकार वे उस पंचे को ७-८ महिने से भी अधिक समय तक उपयोग करते हैं । (उक्त छायाचित्र देखें ।)

२. कोरोना के कारण परात्पर गुरु डॉक्टरजी की बीमारी में उनसे मिलने कोई नहीं आता; इसलिए वे आज के समय में बंडी नहीं पहनते । इसलिए वे एक ही बंडी का उपयोग करते हैं, साथ ही अंतर्वस्त्र किसी को दिखाई नहीं देता है; इसलिए परात्पर गुरु डॉक्टरजी उसे भी अन्य कपडा जोडकर उसका उपयोग करते हैं ।

३. पजामा, बंडी इत्यादि कपडे जीर्ण होकर उनका उपयोग करना जब असंभव हो जाता है, तब वे उन कपडों का अच्छी स्थिति में जो भाग होता है, उसे निकालकर उसका उपयोग कक्ष में स्थित सामग्री, खिडकियां, फर्श आदि को पोंछने के लिए सिलवा लेते हैं ।

चिट्ठियों पर लेखन करनेवाले परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी

४. किसी कागद की छायांकित प्रति निकालने पर उसमें यदि २-४ सें.मी. का निचला भाग कोरा हो, तो वे उतना कागद लेखन के लिए निकाल लेते हैं, साथ ही टिकट, डाक के पत्र का कोरा भाग काटकर उसपर भी लेखन करते हैं ।’

– परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की सेवा में रहनेवाला एक साधक (१०.८ २०२१) 

फटा हुआ कपडा पुनः सिलवाकर (रफू कर) उसका पुनः उपयोग करना

नवंबर १९९७ में भ्रमण के समय सांगली में होते समय परात्पर गुरु डॉक्टरजी श्री. एच.एन. पाटील के यहां रहने के लिए थे । आरंभ में श्री. पाटील के मन में ‘परात्पर गुरु डॉक्टरजी तो कोई बडी हस्ति होगी । उनकी उंगलियों में अंगूठियां होंगी । वे बडी कुर्सी पर बैठते होंगे । उनकी बाजू में सूखे फल रखे होंगे । वे भक्तों को आशीर्वाद देते होंगे’, ये कल्पनाएं थीं; परंतु वास्तव में परात्पर गुरु डॉक्टरजी उनके घर आए, तब उनका भ्रमनिरास हुआ; क्योंकि परात्पर गुरु डॉक्टरजी का रहन-सहन, उनका आचरण और बोलना अत्यंत ही सादगीपूर्ण था । एक दिन रात को परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने घर में उपयोग की जानेवाली पैंट इस्त्री करने के लिए श्री. पाटील को दी । उस पैंट में एक स्थान पर रफू किया गया था । उसे देखकर श्री. पाटील का भाव जागृत हुआ और वे उस रफू की गई पैंट को छाती से लगाकर रोने लगे । तब उनके मन में ये विचार आए कि ‘‘मैंने परात्पर गुरु डॉक्टरजी के प्रति क्या-क्या पूर्वाग्रह मन में रखे थे और वास्तव में वे कितने सादगीपूर्ण और महान हैं !’’ – सद्गुरु डॉ. चारुदत्त पिंगळेजी (कान-नाक-गला विशेषज्ञ), राष्ट्रीय मार्गदर्शक, हिन्दू जनजागृति समिति (५.४.२०१७)