२७ मार्च २०२२ को प्रकाशित भाग में पू. (अधिवक्ता) हरि शंकर जैनजी द्वारा इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका प्रविष्ट किए जाने के उपरांत न्यायालय द्वारा प्रभु श्रीराम का मंदिर भक्तों के लिए खोलने का आदेश दिया जाना, सर्वाेच्च न्यायालय के न्यायाधीश रमास्वामी ने निर्णयपत्र में ‘काशी की पिंडी स्वयं भगवान शिव ने उत्पन्न किया है’, ऐसा उल्लेख करना और काशी विश्वनाथ मंदिर के संपूर्ण भूमि मंदिर की संपत्ति है, ऐसा १९८३ में घोषित किए जाने के विषय में सूत्र पढे । आज इस लेख का शेष भाग यहां दे रहे हैं । (उत्तरार्ध)
५. काशी और मथुरा के संदर्भ में ‘प्लेसेस ऑफ वरशिप एक्ट’ में संशोधन करने के लिए समस्त हिन्दू सरकार से मांग करें !
अ. ‘प्लेसेस ऑफ वरशिप एक्ट सेक्शन – ४’ बताता है, ‘१५ अगस्त १९४७ तक धार्मिक स्थलों की जो स्थिति होगी, वही आगे जाकर स्थायी रहेगी । उसके लिए न्यायालय में कोई भी अभियोग प्रविष्ट नहीं कर सकेगा’, इस पद्धति से हिन्दू जनमानस का अधिकार छीन लिया गया । हमने इस कानून की संवैधानिक वैधता को सर्वाेच्च न्यायालय में चुनौती दी है, जो न्यायालय के विचाराधीन है । काशी विश्वनाथ मंदिर का विषय देखा जाए, तो १५ अगस्त १९४७ में इस स्थान की धार्मिक पहचान मंदिर ही थी और रहेगी; इसलिए काशी और मथुरा के प्रकरणों में ‘प्लेसेस ऑफ वरशिप एक्ट’ बाधा नहीं बनता ।
आ. राम मंदिर के संदर्भ में ‘प्लेसेस ऑफ वरशिप एक्ट’ के सेक्शन ४ को छूट दी गई थी । आज की तारीख में आर्टिकल २५४ (२) के अंतर्गत राज्य सरकार को उसमें सुधार कर उसे काशी और मथुरा से जोडा जाए और उसके उपरांत राष्ट्रपति उस पर हस्ताक्षर करेंगे । उत्तर प्रदेश सरकार और केंद्र सरकार से हमारी यह मांग है कि वे इस कानून में संशोधन करें । वर्ष १९९१ में इस अभियोग में मुसलमानों ने यह दलील दिया था कि ‘प्लेसेस ऑफ वरशिप एक्ट’ के अनुसार यह अभियोग चलाया नहीं जा सकता । इसी कारण से पिछले ३० वर्षाें से यह अभियोग आगे नहीं बढ पाया है ।
इ. सरकार को काशी की खुदाई कर उसका धार्मिक स्वरूप स्पष्ट करने हेतु ‘भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग’ को निर्देश देने चाहिए; परंतु वह भी नहीं हो रहा है । इससे यह स्पष्ट होता है कि सरकार को इस अभियोग का निर्णय ही नहीं करना है । इसके संदर्भ में संपूर्ण हिन्दू समाज को जागृत होकर सरकार से यह मांग करनी चाहिए कि काशी और मथुरा के संदर्भ में ‘प्लेसेस ऑफ वरशिप एक्ट’ में संशोधन करना चाहिए । काशी मंदिर के संदर्भ में ७ अभियोग स्वीकार किए गए हैं, जो अभी तक लंबित हैं । हिन्दू समाज ने राम मंदिर के संदर्भ में जैसे मांग की थी, उसी प्रकार से इस संदर्भ में भी करनी चाहिए, यह एकमात्र विकल्प है ।
६. मथुरा के श्रीकृष्ण मंदिर को तोडे जाने पर वहां की मूर्तियों को आगरा स्थित शाही मस्जिद की सीढियों के नीचे रखा जाना और उसके पीछे धर्मांध उन्हें पैरोंतले कुचले, यह उद्देश्य होना
हमने भगवान श्रीकृष्ण की ओर से श्रीकृष्ण जन्मभूमि को मुक्त करने के विषय में अभियोग प्रविष्ट किया है । इतिहास यह बताता है कि आक्रांताओं ने अनेक बार मथुरा का श्रीकृष्ण मंदिर तोडा था । उसके उपरांत अंतिम बार वर्ष १६१८ में राजा वीरसिंह बुंदेला ने उस समय में ३३ लाख रुपए का व्यय कर उसका पुनर्निर्माण किया । वर्ष १६७० में औरंगजेब ने १०८० हिजरी के रमजान के महिने में इस मंदिर को तोडने का आदेश दिया और उसके अनुसार उसे तोडा गया । उसके उपरांत वहां भव्य मस्जिद का निर्माण किया गया । वहां की मूर्तियों को आगरा स्थित बेगम शाही मस्जिद के सीढियों के नीचे रखा गया, जिसका उद्देश्य यह था कि वहां से आने-जानेवाले धर्मांध उन मूर्तियों को पैरोंतले कुचले । ‘मआसिर-ए-आलमगिरी’ नामक पुस्तक के पृष्ठ ९५ और ९६ में ‘मथुरा का नाम बदलकर इस्लामाबाद रखा जाए’, ऐसा भी लिखा हुआ है ।
७. ‘श्रीकृष्ण जन्मभूमि सेवा संघ’ नाम की फर्जी संस्था द्वारा ‘श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट’ के भूमि के संदर्भ में मुसलमानों के साथ समझौता किया जाना
अ. ५ अप्रैल १७७० को मराठों ने गोवर्धन युद्ध लडा । उस स्थान को उन्होंने पुनः जीत लिया । उसके उपरांत उन्होंने मुसलमानों को वहां से बाहर निकाला । वर्ष १८०३ में वहां ब्रिटिश सरकार आई । उन्होंने वर्ष १८१५ में उस स्थान की नीलामी की । उसमें इस १३.३७ एकड भूमि को वाराणसी के राजा पटनिमल ने खरीद लिया । उसके कागदपत्र हमारे पास हैं । तदुपरांत न्यायालय में इस अभियोग की १० फेरियां हुईं । यह संपूर्ण अभियोग हिन्दुओं ने जीता । ८ फरवरी १९४४ को राजा पटनिमल के वंशज राय किशन दास और राय आनंद दास ने यह भूमि जुगल किशोर बिर्ला को १३ सहस्र ४०० रुपए में बेच डाली । २१ फरवरी १९५१ को जुगल किशोर बिर्ला ने ‘श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट’ नाम से न्यास का गठन किया ।
आ. १ मई १९५८ को ‘श्रीकृष्ण जन्मभूमि सेवा संघ’ इस संस्था की स्थापना की गई । ‘कुछ लोगों ने इस मंदिर की भूमि हडप ली है; इसलिए इसे रोका जाए’, इसके लिए इस सेवा संघ ने वर्ष १९६४ में दिवानी अभियोग प्रविष्ट किया । १२ अक्टूबर १९६८ को इस सेवा संघ ने मुसलमानों के साथ समझौता किया । इसके पीछे का षड्यंत्र हमें समझ लेना चाहिए । जो भूमि ‘श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट’ की थी, उस विषय में ‘श्रीकृष्ण जन्मभूमि सेवा संघ’ यह फर्जी संस्था अभियोग कैसे प्रविष्ट कर सकती है ? और वह समझौता भी कैसे कर सकती है ? हमने इस समझौते को ही न्यायालय में चुनौती देकर उसे छुडाने की मांग की है ।
इ. न्यायालय ने हमसे पूछा कि आप ६० वर्ष उपरांत क्यों आए हैं ? इस संदर्भ में सर्वाेच्च न्यायालय का यह निर्णय है कि जहां षड्यंत्र हुआ है, उस विषय में हम कभी भी उसे चुनौती दे सकते हैं । आज के समय में ‘मथुरा’ के विषय पर ३० अभियोग प्रविष्ट किए गए हैं । अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन का अभियोग न्यायालय ने खारीज किया । उसके लिए यह कारण दिया गया कि श्रीकृष्ण के असंख्य भक्त हैं, वे सभी न्यायालय में आ गए, तो न्यायव्यवस्था में हंगामा मच जाएगा । ‘इस संदर्भ में अभियोग चलाकर ६ महिनों के अंदर निर्णय दिया जाना चाहिए’, यह हमारी मांग है । हम न्यायालय में ‘दूध का दूध पानी का पानी’ करेंगे !
८. वक्फ बोर्ड को असीमित अधिकार प्रदान किए जाने से उन्हें किसी भी संपत्ति को ‘वक्फ की संपत्ति’ घोषित करने का अधिकार होना
अ. ‘वक्फ एक्ट १९९५’ का मूल रूप ‘मुसलमान वक्फ एक्ट १९२३’ ऐसा था । उसमें मुसलमानों को उतने अधिकार नहीं दिए गए थे । यह कानून उनकी आंतरिक संपत्ति के विषय में था । राजनीतिक हस्तक्षेप होने के उपरांत उसमें अनेक संशोधन किए गए । आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के एक निर्णयपत्र के अनुसार बताया गया कि भारत में रेल और सेना के उपरांत सर्वाधिक भूमि वक्फ बोर्ड के पास है । भारत में वक्फ बोर्ड को असीमित अधिकार प्रदान किए गए हैं । उसके अनुसार वे किसी भी संपत्ति को अपने नियंत्रण में लेकर उसे ‘वक्फ की संपत्ति’ घोषित कर सकते हैं । इसी प्रकार से वर्ष २००५ में वक्फ बोर्ड ने ताजमहल को ‘वक्फ की संपत्ति’ घोषित किया है । भारतीय पुरातत्व विभाग ने इसे सर्वाेच्च न्यायालय में चुनौती दी है । अब सर्वाेच्च न्यायालय ने ऐसा पूछा कि ‘शाहजहां ने वक्फ अनुबंधपत्र बनाया हो, तो उसे लाकर दिखाइए ।’ २ वर्षाें से उनके अधिवक्ता उस पर कुछ नहीं कर सके हैं ।
आ. ‘वक्फ एक्ट सेक्शन ४’ में प्राप्त अनियंत्रित और असीमित अधिकारों के कारण बोर्ड किसी भी संपत्ति का सर्वेक्षण कर सकता है । उस सर्वेक्षण का व्यय राज्य सरकार को सौंपा गया है । उसके अनुसार प्रति १० वर्ष उपरांत वक्फ बोर्ड संपत्ति का सर्वेक्षण करता है । सेक्शन ४ और ५ के अनुसार जब राज्य सरकार सर्वेक्षण करेगी, तब सरकार किसी की भी संपत्ति को ‘वक्फ संपत्ति’ के रूप में घोषित कर सकती है । उसके उपरांत वह वक्फ बोर्ड को यह जानकारी देगी कि सरकार ने इस संपत्ति को ‘वक्फ की संपत्ति’ के रूप में घोषित किया है । उस व्यक्ति को यदि यह आदेश स्वीकार नहीं होगा, तो उसे ‘वक्फ प्राधिकरण’ में जाकर कानूनी लडाई लडनी पडेगी ।
इ. कांग्रेस की सरकार ने ‘वक्फ एक्ट सेक्शन ६’ में संशोधन कर ‘पर्सन इंटरेस्टेड’ के स्थान पर ‘पर्सन एग्रीव्ड’ ऐसा किया । ‘पर्सन इंटरेस्टेड’ का अर्थ होता है ‘मुसलमान समुदाय का व्यक्ति’ । उसके कारण वक्फ केवल मुसलमान समुदाय की संपत्ति के विषय में ही संबंधित व्यवहार कर सकता था; परंतु जब उसमें ‘पर्सन एग्रीव्ड’ लिखा गया, तब उसमें सभी का समावेश हो गया । उसके कारण हमारी संपत्ति भी ‘वक्फ की संपत्ति’ के रूप में घोषित हो सकती है । वैसा हुआ, तो हमें अपना अधिकार पुनः प्राप्त करने के लिए दिवानी न्यायालय में नहीं, अपितु वक्फ प्राधिकरण में जाना पडेगा । इसलिए ‘संपत्ति यदि गैरमुसलमानों की अर्थात हिन्दुओं की होगी, तब भी यह अधियोग ‘कॉमन’ (सामान्य) दिवानी न्यायालय में ही चलाया जाना चाहिए’, यह हमारी मांग है ।
९. वक्फ बोर्ड को सरकार से समानांतर अधिकार प्रदान किए जाने से बोर्ड जिला दंडाधिकारी को भी ‘जो वक्फ कहेगा, उसका पालन कीजिए’, ऐसा आदेश दे सकेगा ।
अ. सेक्शन २८ एवं २९ में वक्फ बोर्ड के लिए विशेष प्रावधान किया गया है । उसके अनुसार वे जिला दंडाधिकारी को भी आदेश दे सकता है कि ‘जो वक्फ कह रहा है, उसका पालन कीजिए’। इससे हिन्दू समाज के साथ कितना अन्याय हो रहा है, यह देखने में आता है । ‘प्लेसेस ऑफ वरशिप एक्ट’ के अंतर्गत हिन्दू अपने ही मंदिरों को अपने नियंत्रण में लेने के लिए न्यायालय में नहीं जा सकते, तो दूसरी ओर वक्फ बोर्ड किसी भी संपत्ति को ‘वक्फ की संपत्ति’ घोषित कर सकता है । इसका अर्थ एक ओर सभी मार्ग खुले हैं, तो दूसरी ओर हिन्दुओं के लिए न्यायालय जाने का मार्ग भी बंद किया गया है ।
आ. ‘सेक्शन ४० उपधारा ३’ में यह प्रावधान है कि वक्फ किसी भी सोसाइटी की संपत्ति को ‘वक्फ की संपत्ति’ घोषित कर सकता है । ‘किसी पंजीकृत सोसाइटी की संपत्ति अपने नाम पर कर लेनी चाहिए’, ऐसा वक्फ को लगा, तो उन्हीं न्यासियों की जांच कर नोटिस देंगे । सोसाइटी रजिस्ट्रार को और वह रजिस्ट्रार मुझे ‘नोटिस’ दे सकता है अथवा दे भी नहीं सकता । कालांतर में हमारी संपत्ति ‘वक्फ की संपत्ति’ के रूप में घोषित होगी और वह हमारे समझ में भी नहीं आएगा । जब हमें यह ज्ञात होगा, तब मुझे केवल ‘वक्फ प्राधिकरण’ में ही उसे चुनौती देने का अधिकार है और वह भी एक निहित समयसीमा के अंदर (अर्थात १ अथवा ३ वर्ष के अंदर) इसका अर्थ यह है कि कांग्रेस सरकार ने वक्फ बोर्ड को असीमित अधिकार प्रदान किए हैं, उसके कारण ताजमहल को भी ‘वक्फ की संपत्ति’ घोषित किया गया है ।
इ. ‘वक्फ एक्ट सेक्शन’ ५२ एवं ५४ में बोर्ड को यह अधिकार दिया गया है कि किसी ने वक्फ की भूमि ली, तो वक्फ बोर्ड स्वयं उन्हें ‘डिस्पोज’ करने का आदेश दे सकता है और जिला दंडाधिकारी को ‘आप हमारे आदेश का पालन कीजिए और उस संपत्ति को हमें पुनः सौंप दीजिए ।’ इसके विपरीत जब कोई मंदिर की संपत्ति हडप लेता है, तब हिन्दुओं को उसके लिए दिवानी अभियोग प्रविष्ट कर कानून की लंबी लडाई लडनी पडती है ।
ई. ‘सेक्शन ८९’ में यह प्रावधान है कि यदि हमें वक्फ की संपत्ति के संदर्भ में चुनौती देनी हो, तो हमें उन्हें २ महिने पूर्व नोटिस देना चाहिए । इन सभी सूत्रों को देखने पर यह ध्यान में आएगा कि उन्हें एक समानांतर सरकार के अधिकार दिए गए हैं । क्या इस प्रकार से मठाधीशों, पुजारियों और संतों को अधिकार दिए गए हैं ? यह धर्म के आधार पर किया जा रहा भेदभाव है ।
उ. ‘सेक्शन १०७’ में उन्हें समयसीमा में भी छूट दी गई है । अर्थात हिन्दू अपने मंदिर के लिए एक निहित समयसीमा के अंदर न्यायालय नहीं जाएंगे, तब वे अभियोग प्रविष्ट नहीं कर सकेंगे । यह सीमा वक्फ को लागू नहीं है । जब उन्हें कहीं पर उनकी संपत्ति होने का ज्ञात होगा, तब वे कभी भी न्यायालय के द्वार खटखटा सकते हैं ।
भारत के हिन्दू समाज को जागृत होकर अपने अधिकारों की लडाई लडनी चाहिए और हिन्दू राष्ट्र के कार्य में सम्मिलित होना चाहिए, यही इन सभी सूत्रों को बताने का उद्देश्य है ।’
– अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन, सर्वाेच्च न्यायालय (समाप्त)
अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन द्वारा न्यायालयीन लडाई लडकर क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद द्वारा आत्मबलिदान दिए गए स्थान ‘अल्फोर्ड पार्क’ को मजारों और मस्जिद से मुक्त करनाप्रयागराज में जिस स्थान पर क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद ने आत्मबलिदान दिया था, उस स्थान को ‘अल्फोर्ड पार्क’ कहा जाता है । वहां २० मजारें (इस्लामी पीर अथवा फकीर की समाधि) और १ मस्जिद बनाई गई थी । इस संदर्भ में अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में रिट याचिका प्रविष्ट कर बताया कि ‘ यह क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद की पुण्यभूमि है । इसलिए वहां से सभी मजारों को हटा देना चाहिए ।’ उसके उपरांत वक्फ ने इस संदर्भ में प्रतिज्ञापत्र प्रस्तुत कर कहा कि वर्ष १९९१ में इस स्थान का ‘वक्फ एक्ट १९९५’ के अंतर्गत पंजीकरण किया गया है । वर्ष १९९५ में वक्फ एक्ट का बनना और वर्ष १९९१ में ही वक्फ की संपत्ति में उसका पंजीकरण किया जाना, यह कितना हास्यास्पद है न ? भारत के न्यायालयीन इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने वहां से २० मजारों और १ मस्जिद को हटाने का आदेश दिया । उसके कारण आज यह संपूर्ण प्रांगण ही ‘क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद पार्क’ बन गया है । – अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन, सर्वाेच्च न्यायालय |