१. ‘लव जिहाद’ का कानून पारित होने पर विरोधियों द्वारा किए गए तर्कवाद के २ प्रकार !
‘गुजरात एवं उत्तर प्रदेश, इन दो राज्यों में ‘लव जिहाद’ विरोधी कानून पारित हुआ है, जिसका कई लोग तीव्र विरोध कर रहे हैं । इस संबंध में विरोधियों के तर्कवाद के दो प्रकार हैं । पहला यह कि ‘इस देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है; इसलिए कोई किसी से भी विवाह कर सकता है, साथ ही विवाहविच्छेद भी कर सकता है । तो ऐसे में विवाहित लोगों के व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप करनेवाला राज्यशासन कौन है ?’ उनका दूसरा तर्कवाद है कि देश में ‘लव जिहाद’ नाम की किसी संकल्पना का ही अस्तित्व नहीं है । ‘आपको वर्ष २०१७ में केरल राज्य में घटित हदिया प्रकरण का स्मरण होता होगा । उसमें हिन्दू लडकी द्वारा इस्लाम धर्म का स्वीकार करने के उपरांत शफीन जहान से विवाह किया । इस प्रकरण में लडकी के पिता ने उच्च न्यायालय में याचिका प्रविष्ट की । याचिका का निर्णय पिता के पक्ष में आने से लडकी का पति उसके विरोध में सर्वाेच्च न्यायालय गया । वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने वहां तर्कवाद किया । उनका मूल्य ‘पीएफआइ (पॉप्युलर फ्रंट ऑफ इंडिया)’ द्वारा चुकाए जाने से विवाद खडा हुआ था । इस प्रकरण में सर्वाेच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय अन्वेषण विभाग को अन्वेषण करने के लिए कहा था । उन्होंने ‘लव जिहाद’ नाम की किसी संकल्पना का ही अस्तित्व नहीं है’, यह भूमिका अपनाई । उसके कारण हिन्दुत्वनिष्ठों को कुछ कठिनाई हुई ।
अर्थात इन दोनों तर्कवादों के उत्तर तो हैं ही ! अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कानून-व्यवस्था, साथ ही स्वास्थ्य और नैतिकता को संकट में नहीं डाला जा सकता; इसलिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर बाहर ऐसा कोई भी कृत्य नहीं किया जा सकता, जैसे कि सडक पर बैठकर मद्यपान नहीं किया जा सकता, यह उसका एक बचकाना उदाहरण हुआ । किसी व्यक्ति के ३ अथवा ४ विवाह हो सकते हैं और टूट भी सकते हैं; परंतु क्या उसमें कुछ षड्यंत्र है ? प्रत्येक प्रकरण में हिन्दू लडकी का धर्मांतरण किया गया है, कुछ समय उपरांत उसे छोड दिया गया है और उस माध्यम से धन अर्जित किया गया है, क्या ऐसा कुछ हुआ है ? यदि ऐसा है, तो संबंधित व्यक्ति को दंड मिलना चाहिए न !
२. ‘लव जिहाद’ से बाहर निकलने के इच्छुकों को उससे बाहर कैसे निकलना है और उनकी सहायता के लिए इच्छुक हिन्दू भाईयों को कानून का किस प्रकार उपयोग करना चाहिए ?
यदि ‘लव जिहाद’ का अस्तित्व ही नहीं है, तो आप कानून किसलिए बना रहे हैं ? इतनी चिंता क्यों कर रहे हैं ? किसी को कोई कष्ट नहीं होगा । एक जनमत तैयार हुआ हो, तो उसका सम्मान करना पडेगा । इतने वर्षाें तक कांग्रेस और उससे पूर्व ब्रिटिशों ने इस्लामी जनमत का सम्मान किया ही न ? वह कैसे किया, इसका उत्तर इस लेख में मिलेगा; परंतु केवल उसका उत्तर देना, यही इस लेख का एकमात्र उद्देश्य नहीं है । हिन्दू स्त्रियों का धर्म बदलकर उनके विवाह किए जाते हैं । यदि उन्हें इससे बाहर निकलना है, तो कैसे निकलना चाहिए और उनकी सहायता करने के इच्छुक हिन्दुओं को इस कानून का उपयोग कैसे करना चाहिए ?, यह बताना इस लेख का मूल उद्देश्य है ।
३. इस्लाम में महिलाओं द्वारा ‘तलाक’ (विवाहविच्छेद) लेने की ‘खुला’ पद्धति के विषय में सर्वाेच्च न्यायालय के द्वारा एक अलग ही पच्चर मारकर रखना (टिप्पणी) और उससे विवाहविच्छेद करने में समस्या आना
(टिप्पणी : मुफ्ती का मार्गदर्शन लेने के लिए बताया गया है; परंतु मुफ्ती परामर्श नहीं देते; इस कारण समस्या आती है, इसे ही पच्चर मारना कहते हैं ।)
कई बार ऐसा दिखाई देता है कि मुसलमान से प्रेम करनेवाली हिन्दू महिला पहले अपना धर्म बदलती है । किसी मौलवी के पास ले जाकर उसका धर्मांतरण किया जाता है । उससे कोई सत्य प्रतिज्ञापत्र लिया जाता है, जिस पर लिखा होता है, ‘मैं अपनी इच्छा से धर्म बदल रही हूं और मेरे माता-पिता के पास जाने की मेरी इच्छा नहीं है ।’ प्रेम में अंधी बनी महिला को इसमें कुछ अनुचित नहीं लगता और तब तक वह भाग भी चुकी होती है । उसके उपरांत उन दोनों का ‘निकाह’ (विवाह) होता है । कोई काजी यह विवाह कराता है । उसके पति के पास निकाहनामा दिया जाता है । कालांतर में उस महिला का भ्रम टूट जाता है, तब ‘इससे बाहर कैसे निकलना चाहिए ? और इसके लिए कानूनी प्रक्रिया कैसे पूर्ण करनी चाहिए ?’, यह प्रश्न उठता है; क्योंकि उसके लिए पुनः ‘तलाकनामा’ होना आवश्यक होता है । इसमें पति को तलाक (विवाहविच्छेद) देना होता है । वह न देता हो, तो समस्या आएगी । महिला को विवाहविच्छेद करना हो, तो पारिवारिक न्यायालय में ‘डिजॉल्यूशन ऑफ मुस्लिम मैरेज एक्ट’ के अनुसार ही जाना पडेगा ।
मूल इस्लाम में महिला को ‘तलाक’ जैसी (सामान्यतः पति तलाक देता है) विवाहविच्छेद करने की पद्धति है । उसे ‘खुला’ कहते हैं; परंतु सर्वाेच्च न्यायालय ने इस ‘खुला’ के विषय में वर्ष २०१४ में एक अलग ही पच्चर मारकर रख दी है । ‘जुवेरिया अब्दुल मजिद पटनी विरुद्ध अतीफ इक्बाल मंसुरी’ प्रकरण में ‘खुला’ अर्थात न्यायालय के बाहर अलग होने की प्रक्रिया है तथा इस प्रक्रिया के विषय में चर्चा हुई है । सर्वाेच्च न्यायालय के बताए अनुसार ‘खुला’ पद्धति से मुसलमान स्त्री विवाहविच्छेद कर सकती है; परंतु उसके लिए उसे पहले मुफ्ती से मार्गदर्शन लेना चाहिए अथवा फतवा लेना चाहिए । (ये मुफ्ती भी उनके पंथ के ही होने चाहिए ।) महिला द्वारा पति को दिया गया लेन-देन का प्रस्ताव (ऑफर) पति को स्वीकार करना चाहिए आदि ।’
४. पति से विवाहविच्छेद करने हेतु मुसलमान महिलाओं का सहज धर्मांतरण किया जाना; परंतु यह मुसलमानों को स्वीकार्य न होने से उनसे इसका विरोध किया जाना
जब महिला का मन बदलता है, तब कई बार उसे केवल पति के संदर्भ में शिकायत नहीं होती, अपितु उसे पुनः हिन्दू बनना होता है । यहां एक तीव्र गति की विवाहविच्छेद की प्रक्रिया है । वैसे देखा जाए, तो इस्लाम कट्टर धर्म है । यदि किसी में पैगंबर, अल्लाह और कुरान के प्रति श्रद्धा न हो, तो उसे मुसलमान नहीं कहा जा सकता । इसलिए धर्म बदलने से एक प्रकार से वह उसके समुदाय से बहिष्कृत होता है । जब मुसलमान धर्मांतरण करता है, तो उसका अपनी इस्लामी पत्नी के साथ का संबंध समाप्त हो जाता है । यह छूट मुसलमान स्त्रियों को भी थी । वर्ष १९३८ तक मुसलमान महिलाएं खुलेआम धर्मपरिवर्तन करती थीं और उसके उपरांत अपने पति से विवाहविच्छेद करती थीं और वह भी केवल ‘इस्लाम त्याग दिया’; इसलिए न्यायालय ‘महिला ने धर्म क्यों बदला ?’, इसकी कारणमीमांसा न कर विवाहविच्छेद मान्य करते थे; परंतु इस पद्धति से महिलाओं का धर्म और पति को छोडना उस समुदाय को रास नहीं आया होगा । अर्थात ही आगे जाकर इसका बहुत विरोध होने लगा ।
५. मुसलमान महिलाएं पति को छोडने के लिए बडी मात्रा में धर्मांतरण की पद्धति अपनाती थीं; इसलिए ‘डिजॉल्यूशन ऑफ मुस्लिम मैरेज एक्ट’ कानून बनाया जाना
एक प्रकरण में न्यायालय ने इस्लाम त्यागी हुई महिला को न्यायालय में बुला लिया और भरे न्यायालय में उस महिला को ‘पोर्क’ (सुअर का मांस, जो इस्लाम में निषिद्ध होता है ।) खाने के लिए कहा । अर्थात ही उस महिला ने उसे खाना अस्वीकार किया । इसके आधार पर न्यायालय ने ‘उसने इस्लाम का त्याग नहीं किया है; इसलिए उनका विवाह नहीं टूटा है’, यह निर्णय दिया । (यह थोडा अतिरंजित ही हुआ) यह आदेश देनेवाले न्यायाधीश का नाम था लाला घनश्याम दास !
धर्मांतरण कर मुसलमान महिलाओं की तलाक देने की पद्धति मुसलमानों को रास नहीं आ रही थी, उससे वर्ष १९३९ में ‘डिजॉल्यूशन ऑफ मुस्लिम मैरेज एक्ट’ कानून बनाया गया । उसके कारण मुसलमान महिलाओं का धर्मपरिवर्तन के माध्यम से विवाह के चंगुल से छूटने का मार्ग बंद किया गया । उसमें धारा ४ के अनुसार ‘यदि इस्लाम में जन्मी महिला ने धर्मपरिवर्तन किया और उसके मुसलमान होने के समय उसका मुसलमान के साथ हुआ विवाह अपनेआप टूट गया’, ऐसा कहा नहीं जा सकता । धारा २ में जो १० कारण दिए गए हैं, उन कारणों में से ही कोई कारण न्यायालय को दिखाकर ही उसे विवाहविच्छेद करना चाहिए (इसका अर्थ न्यायालय में दोनों पक्षों से प्रमाण प्रस्तुत किए जाएंगे, तारीख पर तारीख पडेगी और अधिवक्ता को पैसे देने पडेंगे); परंतु यही मुसलमान महिला मुसलमान के रूप में नहीं जन्मी हो और उसने विवाह से पूर्व धर्मांतरण कर विवाह किया हो, तो वह जिस धर्म से इस्लाम में आई थी, उस धर्म में वह वापस चली गई, तो उसका विवाह अपनेआप टूट जाता है । यह छूट धारा ४ के स्पष्टीकरण में वैसी ही रखी गई है । इसका अर्थ किसी हिन्दू महिला ने धर्मांतरण कर मुसलमान व्यक्ति से विवाह किया और उसने पुनः हिन्दू धर्म का स्वीकार किया, तो उसका विवाह टूट जाता है ।
६. विवाह के लिए मुसलमान बनी महिला ने अपने मूल धर्म में घरवापसी की, तो उसका मुसलमान के साथ हुआ विवाह अपनेआप टूट जाना
सामान्यतः विवाहविच्छेद करने के लिए न्यायालय में कई कारण प्रमाणित करने पडते हैं । पति उपेक्षा करता है, पैसे नहीं देता, क्रूरतापूर्ण व्यवहार करता है अथवा उत्पीडन करता है इत्यादि में से विवेकपूर्ण कारण प्रमाणित हुआ, तभी विवाहविच्छेद होता है; परंतु विवाह के लिए मुसलमान बनी हिन्दू महिला यदि पुनः हिन्दू बन गई, तो उसे ये कारण प्रमाणित नहीं करने पडते । इस संदर्भ में देहली उच्च न्यायालय और गुजरात उच्च न्यायालय के ‘मुनव्वर-उल्-इस्लाम विरुद्ध रिशू अरोरा (AIR 2014 DELHI 130) देहली उच्च न्यायालय’ और ‘शिनु जावेद मन्सुरी विरुद्ध जावेद हुसैन मन्सुरी (FIRST APPEAL NO. 2979 OF 2013) गुजरात उच्च न्यायालय’ इन प्रकरणों के निर्णय सुपरिचित हैं ।
६ अ. देहली उच्च न्यायालय का मुनव्वर-उल्-इस्लाम विरुद्ध रिशू अरोरा प्रकरण : रिशू अरोरा नामक हिन्दू लडकी ने महाविद्यालय में घटित प्रेमप्रकरण में मुनव्वर से विवाह किया । उसके लिए उसने मुसलमान पंथ का स्वीकार किया । जुलाई २०१० में उसका विवाह हुआ । कालांतर से उसके पति से उसकी बात नहीं जम रही थी । उसके पति का क्रूर व्यवहार, उसकी उपेक्षा करना आदि कारणों से उसने विवाह से मुक्त होने का निर्णय लिया ।
उसके लिए उसने इस्लामी कानून के अनुसार पारिवारिक विवाद न्यायालय में विवाहविच्छेद की याचिका प्रविष्ट की; परंतु ४.३.२०१२ को उसने पुनः हिन्दू धर्म में प्रवेश किया । पुनर्प्रवेश के उपरांत न्यायालय में अपनी भूमिका रखते हुए उसने कहा, ‘अब मेरे धर्मांतरण करने से यह विवाह ही रद्द हुआ है; इसलिए वैसा आदेश दिया जाए’ । तब न्यायालय ने उसके अनुसार निर्णय दिया ।
मुनव्वर ने इस आदेश को उच्च न्यायालय में चुनौती दी । इस याचिका की सुनवाई के समय देहली उच्च न्यायालय ने संबंधित विषय की संपूर्ण चर्चा की । देहली उच्च न्यायालय की खंडपीठ के न्यायाधीश न्या. एस्. रवींद्र भट एवं न्या. नजमी वाजिरी ने यह घोषित किया कि ‘धर्मांतरण करने पर विवाह अपनेआप ही निरस्त होता है; इसलिए पुनः अलग से प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं है ।’
६ आ. शिनु जावेद मन्सुरी विरुद्ध जावेद हुसैन मन्सुरी प्रकरण : इस प्रकरण में महिला पहले ईसाई थी । वह इस्लाम से पुनः ईसाई बन गई । पारिवारिक विवाद न्यायालय ने यह याचिका खारीज की । उसके विरोध के अपील की सुनवाई करते हुए न्या. अकील कुरेशी और न्या. विपुल पंचोली ने भी बताया, ‘धर्मांतरण के उपरांत विवाह निरस्त होता है’; परंतु उन्होंने पहले का धर्म कौनसा था ?, विवाह इस्लामी पद्धति से हुआ था क्या ? उसके उपरांत पुनः मूल धर्म में प्रवेश हुआ क्या ?, इसके प्रमाण पारिवारिक न्यायालय को लेने चाहिए’, ऐसा कुछ अलग सूत्र रखा ।
७. धर्मांतर करने से हिन्दू महिलाओं की मुसलमान पति के उत्पीडन से मुक्ति होना; परंतु भरणभत्ता मांगने का अधिकार न होना
‘धर्मांतर करने से मेरा उत्पीडन समाप्त हो जाएगा’, ऐसा हिन्दू महिला को लगता हो, तो एक अर्थ से वह सत्य है । उससे वह भरणभत्ता नहीं मांग सकेगी अथवा जो ‘मेहर’ (एक प्रकार का दहेज – इस्लाम के अनुसार विवाह एक अनुबंधमात्र है । उसके कारण अनुबंध के भाग के रूप में पति को पत्नी को कुछ देने का लेन-देन) विवाह में पति अपनी पत्नी को कुछ देना स्वीकार करता है, वह उसे नहीं मिल सकेगा । अर्थात जो हिन्दू लडकियां धर्म बदलकर मुसलमान बन जाती हैं, उन्हें कहां ये बारिकियां कहां ज्ञात होती हैं ? अतः मेहर के संदर्भ में उनके साथ धोखाधडी होने की संभावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता । इसलिए जो है, उसका उपयोग किया जा सकेगा और जो नहीं है, उसके लिए संघर्ष किया जा सकेगा ।’
– अधिवक्ता वीरेंद्र इचलकरंजीकर, राष्ट्रीय अध्यक्ष, हिन्दू विधिज्ञ परिषद. (६.२.२०२२)