१. बलात्कार के प्रकरण में प्रतिभू हेतु इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा आरोपियों से कोई भी समझौता न करना
‘उत्तर प्रदेश में २९ फरवरी २०२० को एक अवयस्क (नाबालिग) युवती पर बलात्कार करने के प्रकरण में वासनांध कामिल को बंदी बनाया गया । उस पर भा.दं.वि. की धारा ३७६ और ‘पॉक्सो’ कानून (अवयस्क युवतियों पर होनेवाले अत्याचारों के विरुद्ध बनाया गया कठोर कानून) के अंतर्गत अपराध प्रविष्ट कर अभियोग चलाया गया । इस प्रकरण में ‘पॉक्सो’ न्यायालय द्वारा उसकी प्रतिभू की विनती अस्वीकृत कर दी गई । इसलिए उसने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में प्रतिभू हेतु आवेदन दिया । इस समय कामिल ने विनती कर बताया कि वह पीडित अवयस्क युवती से विवाह करने के लिए तैयार है । इसलिए मेरे विरुद्ध चलाया जा रहा अभियोग निरस्त कर मुझे प्रतिभू पर मुक्त करें । युवती भी मुझसे विवाह करने के लिए तैयार है ।’’ वास्तव में उच्च न्यायालय ने उसकी मांग को अस्वीकार कर ऐसा कोई भी समझौता करने से स्पष्ट मना कर दिया ।
इस विषय में वाद-विवाद को अस्वीकार करते हुए उच्च न्यायालय ने कहा कि जिस समय पीडिता ने ‘क्रिमिनल प्रोसिजर कोड’ की (फौजदारी प्रक्रिया संहिता की) धारा १६४ के अनुसार न्यायालय के समक्ष कथन प्रविष्ट किया (बयान दिया), उस समय उसने बताया था कि ‘एफआइआर’ का (प्रथम सूचना ब्योरा का) लेख सत्य है और वह मुझे स्वीकार है । इसलिए उसकी परिवर्तित भूमिका हमें स्वीकार नहीं है । ‘गोल्ड क्वेस्ट इंटरनेशनल’ अभियोग के समय सर्वोच्च न्यायालय ने घोषित किया था कि बलात्कार, हत्या और लूट जैसे घृणास्पद अपराधों के अभियोग में, साथ ही ‘एससी एंड एसटी प्रिवेंशन ऑफ एट्रोसिटी एक्ट’ (अनुसूचित जाति एवं जनजाति अत्याचार निवारण कानून), ‘प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट’ (भ्रष्टाचार निवारण कानून) और ‘पॉक्सो’ के अंतर्गत जिनके प्रकरण चल रहे हैं, ऐसे आरोपियों के प्रतिभू आवेदन में समझौता एवं विवाह जैसे प्रस्ताव स्वीकार न किए जाएं । इसलिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा कामिल का प्रतिभू आवेदन अस्वीकृत कर दिया गया । प्रतिभू अस्वीकार करते हुए उच्च न्यायालय द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के ‘अपर्णा भट विरुद्ध केंद्र सरकार २०१८’ प्रकरण का संदर्भ दिया गया ।
२. बलात्कार प्रकरण में आरोपियों को सहजता से प्रतिभू प्राप्त होने के विरोध में सामाजिक कार्यकर्ता अपर्णा भट द्वारा सर्वाेच्च न्यायालय में याचिका प्रविष्ट करना
सामाजिक कार्यकर्ता अपर्णा भट द्वारा वर्ष २०१८ में सर्वोच्च न्यायालय में याचिका प्रविष्ट की गई । इस याचिका के साथ कुछ हस्तक्षेप याचिकाएं भी प्रविष्ट हुई थीं । उन सभी याचिकाओं में ‘अपर्णा भट द्वारा प्रस्तुत सूत्र योग्य होने के कारण न्यायालय उन पर विचार करे’, ऐसी विनती भी की गई थी ।
सर्वाेच्च न्यायालय के समक्ष सूत्र प्रस्तुत करते हुए भट ने कहा कि बलात्कार और ‘पॉक्सो’ कानून के अंतर्गत अवयस्क युवतियों पर अत्याचारों से संबंधित प्रकरणों में आरोपियों के लिए सरलता से प्रतिभू स्वीकार की जाती है । प्रतिभू देते समय न्यायाधीश जो कारण बताते हैं, वे मन को स्वीकार न होनेवाले और हास्यास्पद होते हैं । आरोपी को प्रतिभू देते समय स्त्रियों का अपमान होगा, इस प्रकार की टिप्पणी भी न्यायाधीशों द्वारा की जाती है । इस विषय में न्यायालय के समक्ष उन्होंने निम्नांकित उदाहरण प्रस्तुत किए ।
३. बलात्कार के प्रकरण में आरोपियों को प्रतिभू देते समय न्यायाधीशों द्वारा पीडितों पर अनुचित टिप्पणी कर उनका अपमान करने के कुछ उदाहरण !
अ. एक बार एक सुशिक्षित युवती आरोपी के साथ सायंकाल से रात तक उसके कार्यालय में काम कर रही थी । दोनों ने साथ में भोजन किया । उस रात आरोपी ने युवती पर यौन अत्याचार किया। इस प्रकरण में उसे बंदी बनाकर न्यायालय में अभियोग चलाया गया । आरोपी द्वारा प्रतिभू हेतु न्यायालय में आवेदन दिया गया । न्यायालय ने आरोपी को प्रतिभू देते समय टिप्पणी की कि कोई भी भारतीय स्त्री पराए पुरुष के साथ उसके कार्यालय में संध्याकाल से रात्रि तक कार्य नहीं करेगी । यदि वह ऐसा करती है, तो आरोपी को प्रतिभू प्राप्त करने का अधिकार है ।
आ. दूसरे एक अभियोग में आरोपी को प्रतिभू देते समय न्यायालय द्वारा टिप्पणी की गई कि आरोपी द्वारा मादक द्रव्य लेने पर भी महिला ने कोई आपत्ति न जताते हुए उसके साथ भोजन किया । इसका अर्थ आरोपी द्वारा उसके साथ जो दुर्व्यवहार किया गया, उसे महिला की सहमति प्राप्त थी । अत: यह बलात्कार नहीं लगता; इसलिए इस प्रकरण में हम प्रतिभू दे रहे हैं ।
इ. एक प्रकरण में आरोपी को प्रतिभू देते हुए न्यायाधीश ने कहा कि महिला आधुनिक परिधान धारण करती है । इसलिए उस पर हुए बलात्कार के विषय में प्रतिभू देने में कोई बाधा नहीं है ।
ई. अन्य एक प्रकरण में तो न्यायाधीश ने सभी मर्यादाओं का उल्लंघन ही कर दिया । बलात्कार करनेवाले आरोपी को प्रतिभू देते हुए न्यायाधीश ने कहा कि आप अपनी पत्नी के साथ पीडिता के घर जाएं और उससे राखी बंधवा लें, साथ ही उसे उपहार के रूप में ११ सहस्र रुपए देकर उसका आशीर्वाद लें ।’
इस प्रकार की शर्तें रखकर प्रतिभू देना अनुचित और हास्यास्पद है । घृणास्पद आरोप के प्रकरण में आरोपी के साथ पीडित महिला का संबंध निर्माण करना, यह कल्पना ही हास्यास्पद है । प्रतिभू देते हुए महिलाओं के चरित्र के विषय में टिप्पणी करने से समाज में अश्लील अपराधों में वृद्धि होगी, यह ध्यान में रखना चाहिए ।
उ. एक प्रकरण में प्रतिभू देते हुए न्यायाधीश ने पीडिता से कहा कि आरोपी द्वारा बलात्कार किए जाने के कारण तुम गर्भवती हो गई हो । इसलिए होनेवाले बच्चे की देखभाल करने के लिए आरोपी को प्रतिभू देना आवश्यक है ।
ऊ. एक प्रकरण में ‘पीडिता का चिकित्सीय ब्योरा देखने पर यह उसका प्रथम संभोग अथवा बलात्कार नहीं लगता । यदि उसे इसकी आदत हो, तो आरोपी को प्रतिभू देना क्यों अनुचित है ?’, ऐसा कहकर न्यायाधीश द्वारा प्रतिभू दी गई ।
ए. एक बलात्कार के प्रकरण में वासनांध को प्रतिभू देते हुए न्यायालय ने टिप्पणी की कि पीडिता की चिकित्सा जांच में उसके शरीर पर घाव (जख्म) नहीं थे । अर्थात उसे बलात्कार का विरोध नहीं था ।
४. निकृष्ट स्तर की टिप्पणी कर प्रतिभू देना घृणास्पद अपराधों को प्रोत्साहित करना ही है !
ऐसे विविध कारण देते हुए आरोपियों को प्रतिभू देना महिलाओं का अपमान ही है । ऐसे सभी प्रकरणों में जिस पीडिता पर आक्रमण हुआ होता है, उसकी शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक स्थिति का विचार किया जाना चाहिए । इतने निकृष्ट स्तर पर ऐसी टिप्पणियां करना और प्रतिभू देना इन अपराधों को प्रोत्साहित करने समान है । ‘समाज में स्त्रियां अबला हैं, ऐसी मानसिकता होने के कारण उन पर अत्याचार होते हैं, उन्हें रोकने के लिए कानून बनाए गए हैं, न्यायालय द्वारा सर्वप्रथम इस सूत्र पर विचार किया जाना चाहिए’, अपर्णा भट और अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सर्वोच्च न्यायालय में इस प्रकार का वाद-विवाद किया था ।
५. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संबंधित न्यायाधीशों की कार्यपद्धति पर आपत्ति दर्शाते हुए उचित कार्यवाही हेतु आदेश देना
५ अ. सर्वाेच्च न्यायालय द्वारा ‘स्त्रियों के लिए स्वयं का शरीर मंदिर है, इस कारण उनके लिए चरित्र अनमोल है’, ऐसा विचार करने के लिए बताना : सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बलात्कार के उक्त सभी प्रकरणों को असंवेदनशीलता से चलानेवाले न्यायाधीशों की कार्यपद्धति पर आपत्ति उठाते हुए कुछ आदेश दिए गए । सर्वाेच्च न्यायालय ने कहा कि ‘घृणास्पद यौन अत्याचार’ और ‘पॉक्सो’ कानून से संबंधित प्रकरणों में आरोपी को प्रतिभू देते समय न्यायालय गंभीरतापूर्वक आदेश दे । प्रतिभू देते समय वासनांध पुन: पीडिता के सामने नहीं आए, इसकी व्यवस्था कर पीडिता को सुरक्षा दी जाए । स्त्रियों के लिए स्वयं का शरीर मंदिर है, उनका चरित्र उनके लिए अनमोल है, न्यायालय सदैव इसका विचार करे ।
५ आ. पीडिता की सुरक्षा का विचार कर अपराधियों को दंड मिले, ऐसे निर्णय दिए जाएं ! : इस समय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा वर्ष २०१९ में बलात्कार के कितने प्रकरण प्रविष्ट किए गए, इसका संक्षिप्त ब्योरा दिया गया । वर्ष २०१९ में बलात्कार के ३२ सहस्र से अधिक प्रकरण प्रविष्ट हुए तथा बलात्कार के प्रयास करने के ४ सहस्र से अधिक अपराध हुए । वर्ष २०१९ में स्त्रियों से छेडछाड करने अथवा उनके शील हरण का प्रयास करने के ८८ सहस्र अपराध प्रविष्ट किए गए । जांच अभिकरणों (एजेंसी) द्वारा गंभीरतापूर्वक ऐसे प्रकरणों की जांच की जानी चाहिए । प्रतिभू देते समय न्यायालय भी सर्वप्रथम पीडिता की सुरक्षा का विचार करे और अपराधियों को दंड मिले, ऐसा निर्णय दें ।
५ इ. विधि विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम में महिलाओं पर अत्याचार और ‘पॉक्सो’ कानून विषय पढाए जाएं । साथ ही न्यायाधीश और सरकारी अधिवक्ताओं को भी इसका प्रशिक्षण दिया जाए । सभी कनिष्ठ और जिलास्तरीय न्यायाधीशों को भी यह प्रशिक्षण दिया जाए । उनके लिए देश और राज्य स्तर पर प्रशिक्षण केंद्र होते हैं, वहां भी सभी विषय समझाकर बताए जाएं ।
५ ई. इसके साथ ही सभी को इस विषय से संबंधित विशेषज्ञों और मनोचिकित्सकों के मार्गदर्शन भी दिए जाएं, जिससे महिलाओं पर अत्याचार और ‘पॉक्सो’ कानून के अंतर्गत आनेवाले सभी प्रकरण गंभीरतापूर्वक चलाए जाएं और हास्यास्पद शर्तें लगाकर प्रतिभू न दी जाए । ‘घृणास्पद अभियोग लडते समय सरकारी और आरोपी के अधिवक्ता भी सामाजिक मर्यादा का भान रखकर प्रतिवाद करेंगे’, ऐसी अपेक्षा व्यक्त कर सर्वाेच्च न्यायालय ने तदनुसार स्पष्ट आदेश भी दिया ।
अपर्णा भट जैसी सामाजिक कार्यकर्त्री इस प्रकार के सूत्र लेकर न्यायालय के सामने आती हैं, यह देखकर सकारात्मकता अनुभव होती है और ऐसा लगता है, ‘समाज अभी इतना पतित नहीं हुआ है, अत: अभी भी आशा की किरण जीवित है’ !
श्रीकृष्णार्पणमस्तु ।
– (पू.) अधिवक्ता सुरेश कुलकर्णी, संस्थापक सदस्य, हिन्दू विधिज्ञ परिषद और अधिवक्ता, मुंबई उच्च न्यायालय
(७.७.२०२१)